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द्वादश समुल्लास भाग -6

(प्रश्न) जैसे जाठराग्नि से वैसे उष्णता पाके जल से बाहर जीव क्यों न निकल जायेंगे?

(उत्तर) हां! निकल तो जाते परन्तु जब तुम मुख के वायु की उष्णता से जीव का मरना मानते हो तो जल उष्ण करने से तुम्हारे मतानुसार जीव मर जावेंगे वा अधिक पीड़ा पाकर निकलेंगे और उन के शरीर उस जल में रंध जायेंगे इस से तुम अधिक पापी होगे वा नहीं?

(प्रश्न) हम अपने हाथ से उष्ण जल नहीं करते और न किसी गृहस्थ को उष्ण जल करने की आज्ञा देते हैं, इसलिए हम को पाप नहीं।

(उत्तर) जो तुम उष्ण जल न लेते, न पीते तो गृहस्थ उष्ण क्यों करते? इसलिये उस पाप के भागी तुम ही हो; प्रत्युत अधिक पापी हो क्योंकि जो तुम किसी एक गृहस्थ को उष्ण करने को कहते तो एक ही ठिकाने उष्ण होता है। जब वे गृहस्थ इस भ्रम में रहते हैं कि न जाने साधु जी किस के घर को आवेंगे इसलिये प्रत्येक गृहस्थ अपने-अपने घर में उष्ण जल कर रखते हैं। इस के पाप के भागी मुख्य तुम ही हो। दूसरा अधिक काष्ठ और अग्नि के जलने जलाने से भी ऊपर लिखे प्रमाणे रसोई, खेती और व्यापारादि में अधिक पापी और नरकगामी होते हो। फिर जब तुम उष्ण जल कराने के मुख्य निमित्त और तुम उष्ण जल के पीने और ठण्डे के न पीने के उपदेश करने से तुम ही मुख्य पाप के भागी हो। और जो तुम्हारा उपदेश मान कर ऐसी बातें करते हैं वे भी पापी हैं। अब देखो! कि तुम बड़ी अविद्या में होते हो वा नहीं कि छोटे-छोटे जीवों पर दया करनी और अन्य मत वालों की निन्दा, अनुपकार करना क्या थोड़ा पाप है? जो तुम्हारे तीर्थंकरों का मत सच्चा होता तो सृष्टि में इतनी वर्षा, नदियों का चलना और इतना जल क्यों उत्पन्न ईश्वर ने किया? और सूर्य्य को भी उत्पन्न न करता क्योंकि इन में क्रोड़ान् क्रोड़ जीव तुम्हारे मतानुसार मरते ही होंगे। जब वे विद्यमान थे और तुम जिन को ईश्वर मानते हो उन्होंने दयाकर सूर्य्य का ताप और मेघ को बन्ध क्यों नहीं किया? और पूर्वोक्त प्रकार से विना विद्यमान प्राणियों के दुख, सुख की प्राप्ति कन्दमूलादि पदार्थों में रहने वाले जीवों को नहीं होती। सर्वथा सब जीवों पर दया करना भी दुःख का कारण होता है क्योंकि जो तुम्हारे मतानुसार सब मनुष्य हो जावें। चोर डाकुओं को कोई भी दण्ड न देवे तो कितना बड़ा पाप खड़ा हो जाये? इसलिए दुष्टों को यथावत् दण्ड देने और श्रेष्ठों के पालन करने में दया और इस से विपरीत करने में दया क्षमारूप धर्म का नाश है। कितने जैनी लोग दुकान करते, उन व्यवहारों में झूठ बोलते, पराया धन मारते और दीनों को छलने आदि कुकर्म करते हैं उन के निवारण में विशेष उपदेश क्यों नहीं करते? और मुखपट्टी बांधने आदि ढोंग में क्यों रहते हो? जब तुम चेला, चेली करते हो तब केशलुञ्चन और बहुत दिवस भूखे रहने में पराये वा अपने आत्मा को पीड़ा दे और पीड़ा को प्राप्त होके दूसरों को दुःख देते । और आत्महत्या अर्थात् आत्मा को दुःख देने वाले होकर हिसक क्यों बनते हो? जब हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट पर चढ़ने और मनुष्यों को मजूरी कराने में पाप जैनी लोग क्यों नहीं गिनते? जब तुम्हारे चेले ऊटपटांग बातों को सत्य नहीं कर सकते तो तुम्हारे तीर्थंकर भी सत्य नहीं कर सकते। जब तुम कथा बांचते हो तो मार्ग में श्रोताओं के और तुम्हारे मतानुसार जीव मरते ही होंगे इसलिये तुम इस पाप के मुख्य कारण क्यों होते हो? इस थोड़े कथन से बहुत समझ लेना कि उन जल, स्थल, वायु के स्थावर शरीर वाले अत्यन्त मूर्छित जीवों को दुख वा सुख कभी नहीं पहुंच सकता। अब जैनियों की और भी थोड़ी सी असम्भव कथा लिखते हैं। सुनना चाहिये और यह भी ध्यान में रखना कि अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का धनुष होता है। और काल की संख्या जैसी पूर्व लिख आये हैं वैसी ही समझना। रत्नसार भाग १। पृष्ठ १६६-१६७ तक में लिखा है -

(१) ऋषभदेव का शरीर ५०० पांच सौ धनुष् लम्बा और ८४००००० (चौरासी लाख) पूर्व का आयु। (२) अजितनाथ का ४५० धनुष् परिमाण का शरीर और ७२००००० (बहत्तर लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (३) सम्भवनाथ का शरीर ४०० चार सौ धनुष् परिमाण शरीर और ६०००००० (साठ लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (४) अभिनन्दन का ३५० साढ़े तीन सौ धनुष् का शरीर और ५०००००० (पचास लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (५) सुमतिनाथ का ३०० धनुष् परिमाण का शरीर और ४०००००० (चालीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (६) पद्मप्रभ का १४० धनुष् का शरीर और परिमाण ३०००००० (तीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (७) पार्श्वनाथ का २०० धनुष् का शरीर और २०००००० (बीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (८) चन्द्रप्रभ का १५० धनुष् परिमाण का शरीर और १०००००० (दस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (९) सुविधिनाथ का १०० सौ धनुष् का शरीर और २००००० (दो लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (१०) शीतलनाथ का ९० नब्बे धनुष् का शरीर और १००००० (एक लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (११) श्रेयांसनाथ का ८० धनुष् का शरीर और ८४००००० (चौरासी लाख) वर्ष का आयु। (१२) वासुपूज्य स्वामी का ७० धनुष् का शरीर और ७२००००० (बहत्तर लाख) वर्ष का आयु। (१३) विमलनाथ का ६० धनुष् का शरीर और ६०००००० (साठ लाख) वर्षों का आयु। (१४) अनन्तनाथ का ५० धनुष् का शरीर और ३०००००० (तीस लाख) वर्षों का आयु। (१५) धर्मनाथ का ४५ धनुष् का शरीर और १०००००० (दस लाख) वर्षों का आयु। (१६) शान्तिनाथ का ४० धनुषों का शरीर और १००००० (एक लाख) वर्ष का आयु। (१७) कुन्थुनाथ का ३५ धनुष् का शरीर और ९५००० (पचानवें सहस्र) वर्षों का आयु। (१८) अमरनाथ का ३० धनुषों का शरीर और ८४००० (चौरासी सहस्र) वर्षों का आयु। (१९) मल्लीनाथ का २५ धनुषों का शरीर और ५५००० (पचपन सहस्र) वर्षों का आयु। (२०) मुनि सुव्रत का २० धनुषों का शरीर और ३०००० (तीस सहस्र) वर्षों का आयु। (२१) नमिनाथ का १४ धनुषों का शरीर और १०००० (दश सहस्र) वर्षों का आयु। (२२) नेमिनाथ का १० धनुषों का शरीर और १०००० (दश सहस्र) वर्ष का आयु। (२३) पार्श्वनाथ ९ हाथ का शरीर और १०० (सौ) वर्ष का आयु। (२४) महावीर स्वामी का ७ हाथ का शरीर और ७२ वर्षों की आयु। ये चौबीस तीर्थंकर जैनियों के मत चलाने वाले आचार्य और गुरु हैं। इन्हीं को जैनी लोग परमेश्वर मानते हैं और ये सब मोक्ष को गये हैं। इसमें बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि इतने बड़े शरीर और इतना आयु मनुष्य देह का होना कभी सम्भव है? इस भूगोल में बहुत ही थोड़े मनुष्य वस सकते हैं। इन्हीं जैनियों के गपोड़े लेकर जो पुराणियों ने एक लाख, दश सहस्र और एक सहस्र वर्ष का आयु लिखा सो भी सम्भव नहीं हो सकता तो जैनियों का कथन सम्भव कैसे हो सकता है? अब और भी सुनो-कल्पभाष्य पृष्ठ ४ -नागकेत ने ग्राम की बराबर एक शिला अंगुली पर धर ली! कल्पभाष्य पृष्ठ ३५ -महावीर ने अंगूठे से पृथिवी को दबाई उस से शेषनाग कंप गया! कल्पभाष्य पृष्ठ ४६ - महावीर को सर्प ने काटा, रुधिर के बदले दूध निकला। और वह सर्प ८वें स्वर्ग को गया!। कल्पभाष्य पृष्ठ ४७ -महावीर के पग पर खीर पकाई और पग न जले!। कल्पभाष्य पृष्ठ १६ -छोटे से पात्र में ऊंट बुलाया! रत्नसार भाग १। प्रथम पृष्ठ १४ -शरीर के मैल को न उतारे और न खुजलावें। विवेकसार पृष्ठ २१५ -जैनियों के एक दमसार साधु ने क्रोधित होकर उद्वेगजनक सूत्र पढ़ कर एक शहर में आग लगा दी और महावीर तीर्थंकर का अति प्रिय था। विवेक पृष्ठ २२७ -राजा की आज्ञा अवश्य माननी चाहिये। विवेक पृष्ठ २२७ -एक कोशा वेश्या ने थाली में सरसों की ढेरी लगा उस के ऊपर फूलों से ढकी हुई सुई खड़ी कर उस पर अच्छे प्रकार नाच किया परन्तु सुई पग में गड़ने न पाई और सरसों की ढेरी बिखरी नहीं!!! तत्त्वविवेक पृष्ठ २२८ -इसी कोशा वेश्या के साथ एक स्थूलमुनि ने १२ वर्ष तक भोग किया और पश्चात् दीक्षा लेकर सद्गति को गया और कोशा वेश्या भी जैन धर्म को पालती हुई सद्गति को गई। विवेकसार पृष्ठ १९५ -एक सिद्ध की कन्था जो गले में पहिनी जाती है वह ५०० अशर्फी एक वैश्य को नित्य देती रही। विवेकसार पृष्ठ २२८ -बलवान् पुरुष की आज्ञा, देव की आज्ञा, घोर वन में कष्ट से निर्वाह, गुरु के रोकने, माता, पिता, कुलाचार्य्य, ज्ञातीय लोग और धर्मोपदेष्टा इन छः के रोकने से धर्म में न्यूनता होने से धर्म की हानि नहीं होती।

(समीक्षक) अब देखिये इन की मिथ्या बातें। एक मनुष्य ग्राम के बराबर पाषाण की शिला को अंगुली पर कभी धर सकता है? और पृथिवी के ऊपर अंगूठे से दबाने से पृथिवी कभी दब सकती है? और जब शेषनाग ही नहीं तो कंपेगा कौन? ।।२।। भला शरीर के काटने से दूध निकलना किसी ने नहीं देखा। सिवाय इन्द्रजाल के दूसरी बात नहीं। उस को काटने वाला सर्प तो स्वर्ग में गया और महात्मा श्रीकृष्ण आदि तीसरे नरक को गये यह कितनी मिथ्या बात है? ।।३। ४।। जब महावीर के पग पर खीर पकाई तब उसके पग जल क्यों न गये? ।।५।। भला छोटे से पात्र में कभी ऊंट आ सकता है।।६।। जो शरीर का मैल नहीं उतारते और न खुजलाते होंगे वे दुर्गन्धरूप महानरक भोगते होंगे।।७।। जिस साधु ने नगर जलाया उस की दया और क्षमा कहां गई? जब महावीर के संग से भी उस का पवित्र आत्मा न हुआ तो अब महावीर के मरे पीछे उस के आश्रय से जैन लोग कभी पवित्र न होंगे।।८।। राजा की आज्ञा माननी चाहिये परन्तु जैन लोग बनिये हैं इसलिये राजा से डर कर यह बात लिख दी होगी।।९।। कोशा वेश्या चाहे उस का शरीर कितना ही हल्का हो तो भी सरसों की ढेरी पर सुई खड़ी करके उसके ऊपर नाचना, सूई का न छिदना और सरसों का न बिखरना अतीव झूठ नहीं तो क्या है? ।।१०।। धर्म किसी को किसी अवस्था में भी न छोड़ना चाहिये; चाहे कुछ भी हो जाय।।११।। भला कन्था वस्त्र का होता है वह नित्यप्रति ५०० अशर्फी किस प्रकार दे सकता है? ।।१२।। अब ऐसी-ऐसी असम्भव कहानी इनकी लिखें तो जैनियों के थोथे पोथों के सदृश बढ़ जाय इसलिये अधिक नहीं लिखते। अर्थात् थोड़ी सी इन जैनियों की बातें छोड़ के शेष सब मिथ्या जाल भरा है। देखिये-

दो ससि दो रवि पढमे। दुगुणा लवणंमि धायई संडे।
बारस ससि बारस रवि। तप्पमि इं निदिठ ससि रविणो।।

तिगुणा पुब्बिल्लजया। अणंतराणंतरं मिखित्तमि।
कालो ए बयाला। बिसत्तरी पुरकर द्वंमि।।
- प्रकरण भाग ४। संग्रहणीसूत्र ७७, ७८।।

जो जम्बूद्वीप लाख योजन अर्थात् ४ लाख कोश का लिखा है उन में यह पहला द्वीप कहाता है। इस में दो चन्द्र और सूर्य्य हैं और वैसे ही लवण समुद्र में उससे दुगुणे अर्थात् ४ चन्द्रमा और चार सूर्य्य हैं तथा धातकीखण्ड में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य्य हैं।।७७।। और इन को तिगुणा करने से छत्तीस होते हैं, उनके साथ दो जम्बूद्वीप के और चार लवण समुद्र के मिलकर ब्यालीस चन्द्रमा और ब्यालीस सूर्य्य कालोदधि समुद्र में हैं। इसी प्रकार अगले-अगले द्वीप और समुद्रों में पूर्वोक्त ब्यालीस को तिगुणा करें तो एक सौ छब्बीस होते हैं। उन में धातकीखण्ड के बारह, लवण समुद्र के ४ चार और जम्बूद्वीप के जो दो-दो इसी रीति से निकाल कर १४४ एक सौ चवालीस चन्द्र और १४४ सूर्य्य पुष्करद्वीप में हैं। यह भी आधे मनुष्यक्षेत्र की गणना है। परन्तु जहां तक मनुष्य नहीं रहते हैं वहां बहुत से सूर्य्य और बहुत से चन्द्र हैं और जो पिछले अर्ध पुष्करद्वीप में बहुत चन्द्र और सूर्य्य हैं वे स्थिर हैं। पूर्वोक्त एक सौ चवालीस को तिगुणा करने से ४३२ और उन में पूर्वोक्त जम्बूद्वीप के दो चन्द्र्रमा, दो सूर्य्य, चार-चार लवण समुद्र के और बारह-बारह वमातकीखण्ड के और ब्यालीस कालोदधि के मिलाने से ४९२ चन्द्रमा तथा ४९२ सूर्य्य पुष्कर समुद्र में हैं। ये सब बातें श्रीजिनभद्रगणीक्षमाश्रमण ने बड़ी ‘संघयणी’ में तथा ‘योतीसकरण्डक पयन्ना’ मध्ये और ‘चन्द्रपन्नति’ तथा ‘सूरपन्नति’ प्रमुख सिद्धान्तग्रन्थों में इसी प्रकार कहा है।।७८।।

(समीक्षक) अब सुनिये भूगोल खगोल के जानने वालो! इस एक भूगोल में एक प्रकार ४९२ चार सौ बानवे और दूसरी प्रकार असंख्य चन्द्र और सूर्य्य जैनी लोग मानते हैं। आप लोगों का बड़ा भाग्य है कि वेदमतानुयायी सूर्य्यसिद्धान्तादि ज्योतिष ग्रन्थों के अध्ययन से ठीक-ठीक भूगोल खगोल विदित हुए। जो कहीं जैन के महा अन्धेर मत में होते तो जन्मभर अन्धेर में रहते जैसे कि जैनी लोग आजकल हैं। इन अविद्वानों को यह शंका हुई कि जम्बूद्वीप में एक सूर्य और एक चन्द्र से काम नहीं चलता क्योंकि इतनी बड़ी पृथिवी को तीस घड़ी में चन्द्र, सूर्य कैसे आ सकें? क्योंकि पृथिवी को ये लोग सूर्यादि से भी बड़ी और स्थिर मानते हैं यही इन की बड़ी भूल है।

दो ससि दो रवि पंती एगंतरिया छसठि संखाया।
मेरुं पयाहिणंता। माणुसखित्ते परिअडंति।।
- प्रकरण०भाग ४। संग्रहणी सू० ७९।।

मनुष्यलोक में चन्द्रमा और सूर्य की पंक्ति की संख्या कहते हैं। दो चन्द्रमा और दो सूर्य की पंक्ति (श्रेणी) हैं, वे एक-एक लाख योजन अर्थात् चार लाख कोश के आंतरे से चलते हैं। जैसे सूर्य की पंक्ति के आंतरे एक पंक्ति चन्द्र की है इसी प्रकार चन्द्रमा की पंक्ति के आंतरे सूर्य की पंक्ति है। इसी रीति से चार पंक्ति हैं वे एक-एक चन्द्र पंक्ति में ६६ चन्द्रमा और एक-एक सूर्य पंक्ति में ६६ सूर्य हैं। वे चारों पंक्ति जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करती हुई मनुष्य-क्षेत्र में परिभ्रमण करती हैं अर्थात् जिस समय जम्बूद्वीप के मेरु से एक सूर्य दक्षिण दिशा में विहरता उस समय दूसरा सूर्य उत्तर दिशा में फिरता है। वैसे ही लवण समुद्र की एक-एक दिशा में दो-दो चलते फिरते। धातकीखण्ड के ६, कालोदधि के २१, पुष्करार्द्ध के ३६, इस प्रकार सब मिलकर ६६ सूर्य दक्षिण दिशा और ६६ सूर्य उत्तर दिशा में अपने-अपने क्रम से फिरते हैं। और जब इन दोनों दिशा के सब सूर्य मिलाये जायें तो १३२ सूर्य और ऐसे ही छासठ-छासठ चन्द्रमा की दोनों दिशाओं की पंक्तियां मिलाई जायें तो १३२ चन्द्रमा मनुष्यलोक में चाल चलते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा के साथ नक्षत्रदि की भी पंक्तियां बहुत सी जाननीं।।७९।।

(समीक्षक) अब देखो भाई! इस भूगोल में १३२ सूर्य और १३२ चन्द्रमा जैनियों के घर पर तपते होंगे! भला जो तपते होंगे तो वे जीते कैसे हैं? और रात्रि में भी शीत के मारे जैनी लोग जकड़ जाते होंगे? ऐसी असम्भव बात में भूगोल, खगोल के न जानने वाले फंसते हैं; अन्य नहीं। जब एक सूर्य इस भूगोल के सदृश अन्य अनेक भूगोलों को प्रकाशता है तब इस छोटे से भूगोल की क्या कथा कहनी। और जो पथिवी न घूमे और सूर्य पृथिवी के चारों और घूमे तो कई एक वर्षों का दिन और रात होवे। और सुमेरु विना हिमालय के दूसरा कोई नहीं। यह सूर्य के सामने ऐसा है कि जैसे घड़े के सामने राई का दाना भी नहीं। इन बातों को जैनी लोग जब तक उसी मत में रहेंगे तब तक नहीं जान सकते किन्तु सदा अन्धेरे में रहेंगे।

सम्मत्तचरण सहिया सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं ।
सत्तय चउदस भाए पंचय सुयदेशविरईए।।
- प्रकरण०भा० ४। संग्रहणी सू० १३५।।

सम्यक्चारित्र सहित जो केवली वे केवल समुद्घात अवस्था से सर्व चौदह राज्यलोक अपने आत्मप्रदेश करके फिरेंगे।।१३५।।

(समीक्षक) जैनी लोग १४ चौदह राज्य मानते हैं। उन में से चौदहवें की शिखा पर सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर थोड़े दूर पर सिद्धशिला तथा दिव्य आकाश को शिवपुर कहते हैं। उस में केवली अर्थात् जिन को केवलज्ञान सर्वज्ञता और पूर्ण पवित्रता प्राप्त हुई है वे उस लोक में जाते हैं और अपने आत्मप्रदेश में सर्वज्ञ रहते हैं। जिस का प्रदेश होता है वह विभु नहीं, जो विभु नहीं वह सर्वज्ञ केवलज्ञानी कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जिस का आत्मा एकदेशी है वही जाता आता है और बद्ध, मुक्त, ज्ञानी, अज्ञानी होता है। सर्वव्यापी सर्वज्ञ वैसा कभी नहीं हो सकता। जो जैनियों के तीर्थंकर जीवरूप अल्प, अल्पज्ञ होकर स्थित थे, वे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकते। किन्तु जो परमात्मा अनाद्यनन्त, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, पवित्र, ज्ञानस्वरूप है उस को जैनी लोग मानते नहीं कि जिस में सर्वज्ञादि गुण याथातथ्य घटते हैं।

गब्भनर तिपलियाऊ। तिगाऊ उक्कोस ते जहन्नेणं।
मुच्छिम दुहावि अन्तमुहु। अंगुल असंख भागतणू।।
- संग्रहणी० २४१।।

यहां मनुष्य दो प्रकार के हैं। एक गर्भज, दूसरे जो गर्भ के विना उत्पन्न हुए। उन में गर्भज मनुष्य का उत्कृष्ट तीन पल्योपम का आयु जानना और तीन कोश का शरीर।।२४१।।

(समीक्षक) भला तीन पल्योपम का आयु और तीन कोश के शरीर वाले मनुष्य इस भूगोल में बहुत थोड़े समा सकें और फिर तीन पल्योपम की आयु जैसा कि पूर्व लिख आये हैं उतने समय तक जीवें तो वैसे ही उन के सन्तान भी तीन-तीन कोश के शरीर वाले होने चाहिये। इन जैसे ‘मुम्बई’ से शहर में दो और ‘कलकत्ता’ ऐसे शहर में तीन वा चार मनुष्य निवास कर सकते हैं। जो ऐसा है तो जैनियों ने एक नगर में लाखों मनुष्य लिखे हैं तो उनके रहने का नगर भी लाखों कोशों का होना चाहिये तो सब भूगोल में वैसा एक नगर भी न बस सके।

पणयाल लरकजोयण विरकंभा सिद्धिसिल फलिह विमला।
तदुवरि गजोयणंते लोगंतो तच्छ सिद्धठिई।।२५८।।

जो सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर १२ योजन सिद्धशिला है वह वाटला और लम्बेपन और पोलपन में ४५ पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है वह सब धवला अर्जुन सुवर्णमय स्फटिक के समान निर्मल सिद्धशिला की सिद्धभूमि है। इस को कोई ‘ईषत्’ ‘प्राग्भरा’ ऐसा नाम कहते हैं। यह सर्वार्थसिद्धशिला विमान से १२ योजन अलोक भी है। यह परमार्थ केवली बहुश्रुत जानता है। यह सिद्धशिला सर्वार्थ, मध्य भाग में ८ योजन स्थूल है। वहां से ४ दिशा और ४ उपदिशा में घटती-घटती मक्खी के पांख के सदृश पतली उत्तानछत्र और आकार करके सिद्धशिला की स्थापना है। उस शिला से ऊपर १ एक योजन के आंतरे लोकान्त है। वहां सिद्धों की स्थिति है।।२५८।।

(समीक्षक) अब विचारना चाहिये कि जैनियों के मुक्ति का स्थान सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा के ऊपर ४५ पैंतालीस लाख योजन की शिला अर्थात् चाहैं ऐसी अच्छी और निर्मल हो तथापि उसमें रहने वाले मुक्त जीव एक प्रकार के बद्ध हैं क्योंकि उस शिला से बाहर निकलने में मुक्ति के सुख से छूट जाते होंगे। और जो भीतर रहते होंगे तो उन को वायु भी न लगता होगा। यह केवल कल्पनामात्र अविद्वानों को फंसाने के लिये भ्रमजाल है।

वि ति चउरिंदिस सरीरं । बारस जोयणं तिकोस चउकोसं।
जोयण सहसपणिदिय । उहे वुच्छंत विसेसंतु।।
- प्रकरण०भा० ४। संग्रह० सू० २६७।।

सामान्यपन से एकेन्द्रिय का शरीर १ सहस्र योजन के शरीर वाला उत्कृष्ट जानना और दो इन्द्रिय वाले जो शखांदि उन का शरीर १२ योजन का जानना। वैसे ही कीड़ी मकोड़ादि तीन इन्द्रिय वालों का शरीर ३ कोश का जानना। और चतुरिन्द्रिय भ्रमरादि का शरीर ४ कोश का और पञ्चेन्द्रिय का एक सहस्र योजन अर्थात् ४ सहस्र कोश के शरीर वाले जानना।।२६७।।

(समीक्षक) चार-चार सहस्र कोश के प्रमाण वाले शरीर वाले हों तो भूगोल में तो बहुत थोड़े मनुष्य अर्थात् सैकड़ों मनुष्यों से भूगोल ठस भर जाय। किसी की चलने की जगह भी न रहै फिर वे जैनियों से रहने का ठिकाना और मार्ग पूछें जो इन्होंने लिखा है तो अपने घर में रख लें। परन्तु चार सहस्र कोश के शरीर वाले को निवासार्थ कोई एक के लिए ३२ बत्तीस सहस्र कोश का घर तो चाहिये। ऐसे एक घर के बनवाने में जैनियों का सब धन चुक जाय तो भी घर न बन सके। इतने बड़े आठ सहस्र कोश की छत बनवाने के लिये लट्ठे कहां से लावेंगे? और जो उसमें खम्भा लगावें तो वह भीतर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिये ऐसी बातें मिथ्या हुआ करती हैं।

ते थूला पल्ले विहु संखिज्जाचे बहुंति सव्वेवि।
ते इक्किक्क असंखे । सुहुमे खम्भे पकप्पेह।।
- प्रकरण०भा० ४। लघुक्षेत्रसमासप्रकरण सूत्र ४।।

पूर्वोक्त एक अंगुल लोम के खण्डों से ४ कोश का चौरस और उतना ही गहिरा कुआ हो। अंगुल प्रमाण लोम का खण्ड सब मिल के बीस लाख सत्तावन सहस्र एक सौ बावन होते हैं और अधिक से अधिक (३३०, ७६२१०४, २४६५६२५, ४२१९९६०, ९७५३६००, ०००००००) तैंतीस क्रोड़ाक्रोड़ी, सात लाख बासठ हजार एक सौ चार क्रोड़ाक्रोड़ी; चौबीस लाख पैंसठ हजार छः सौ पच्चीस इतने क्रोड़ाक्रोड़ी तथा ब्यालीस लाख उन्नीस हजार नौ सौ साठ इतनी क्रोड़ाक्रोड़ी तथा सत्तानवे लाख त्रेपन हजार और छः सौ क्रोड़ाक्रोड़ी, इतनी वाटला घन योजन पल्योपम में सर्व स्थूल रोम खण्ड की संख्या होवे यह भी संख्यातकाल होता है। पूर्वोक्त एक लोम खण्ड के असंख्यात खण्ड मन से कल्पे तब असंख्यात सूक्ष्म रोमाणु होवें।

(समीक्षक) अब देखिये इन की गिनती की रीति! एक अंगुल प्रमाण लोम के कितने खण्ड किये यह कभी किसी की गिनती में आ सकते हैं? और उस के उपरान्त मन से असंख्य खण्ड कल्पते हैं इससे यह भी सिद्ध होता है कि पूर्वोक्त खण्ड हाथ से किये होंगे। जब हाथ से न हो सके तब मन से किये। भला! यह बात कभी सम्भव हो सकती है कि एक अंगुल रोम के असंख्य खण्ड हो सकें?

जम्बूद्वीपपमाणं गुलजोयणलरक वट्टविरकंभी।
लवणाई यासेसा। बलयाभा दुगुण दुगुणाय।।
- प्रकरण०भा० ४। लघुक्षेत्रसमा० सू० १२।।

प्रथम जम्बूद्वीप का लाख योजन का प्रमाण और पोला है और बाकी लवणादि सात समुद्र, सात द्वीप, जम्बूद्वीप के प्रमाण से दुगणे-दुगणे हैं। इस एक पृथिवी में जम्बूद्वीपादि सात द्वीप और सात समुद्र हैं जैसे पूर्व लिख आये हैं।।१२।।

(समीक्षक) अब जम्बूद्वीप से दूसरा द्वीप दो लाख योजन, तीसरा चार लाख योजन, चौथा आठ लाख योजन, पांचवां सोलह लाख योजन, छठा बत्तीस लाख योजन और सातवाँ चौसठ लाख योजन और उतने प्रमाण वा उन से अधिक समुद्र के प्रमाण से इस पन्द्रह सहस्र परिधि वाले भूगोल में क्योंकर समा सकते हैं। इससे यह बात केवल मिथ्या है।

कुरु नइ चुलसी सहसा। छच्चेवन्तरनईउ पइ विजयं।
दो दो महा नईउ । चउदस सहसाउ पत्तेयं।।
- प्रकरणरत्ना०भा० ४। लघुक्षेत्रसमा० सू० ६३।।

कुरुक्षेत्र में ८४ चौरासी सहस्र नदी हैं।।६३।।

(समीक्षक) भला कुरुक्षेत्र बहुत छोटा देश है, उस को न देख कर एक मिथ्या बात लिखने में इन को लज्जा भी न आई।

जामुत्तराउ ताउ । इगेग सिहासणाउ अइपुब्बं।
चउसुवि तासु नियासण, दिसि भवजिण मज्जणं होई।।
- प्रकरणरत्नाकर भा० ४। लघुक्षेत्रसमा० सू० ११९।।

उस शिला के विशेष दक्षिण और उत्तर दिशा में एक-एक सिहासन जानना चाहिये। उन शिलाओं के नाम दक्षिण दिशा में अति पाण्डु कम्बला, उत्तर दिशा में अति रक्त कम्बला शिला हैं। उन सिहासनों पर तीर्थंकर बैठते हैं।।११९।।

(समीक्षक) देखिये इन के तीर्थंकर के जन्मोत्सवादि करने की शिला को! ऐसी ही मुक्ति की सिद्धशिला है। ऐसी इन की बहुत सी बातें गोलमाल हैं; कहां तक लिखें? किन्तु जल छान के पीना और सूक्ष्म जीवों पर नाम मात्र दया करना; रात्रि को भोजन न करना ये तीन बातें अच्छी हैं। बाकी जितना इन का कथन है सब असम्भवग्रस्त है।

इतने ही लेख से बुद्धिमान् लोग बहुत सा जान लेंगे, थोड़ा सा यह दृष्टान्तमात्र लिखा है। जो इनकी असम्भव बातें सब लिखें तो इतने पुस्तक हो जायें कि एक पुरुष आयु भर में पढ़ भी न सके। इसलिये जैसे एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा करने से कच्चे वा पक्के हैं सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं। क्योंकि दिग्दर्शनवत् सम्पूर्ण आशय को बुद्धिमान् लोग जान ही लेते हैं।

इसके आगे ईसाइयों के मत के विषय में लिखा जायेगा।

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वती स्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे सुभाषा विभूषिते नास्तिक मतान्तर्गतचार्वाक बौद्धजैनमत खण्डनमण्डनविषये

द्वादश समुल्लास सम्पूर्ण ।।१२।।

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If you have a body with proof of four thousand thousand shells, then geography should be filled with very few people, that is, hundreds of humans. If there is no place for anyone to walk, then they ask the whereabouts of Jains to stay and the path which they have written, then keep it in their house. But for a person with four millennium cells, one needs 32 two thousand millennium houses for residence. Even if all the money of the Jains is paid in the construction of such a house, the house could not be built. Where will the logs be made to make the roof of such a large eight thousand shells?

 

Twelfth Chapter Part - 6 of Satyarth Prakash (the Light of Truth) | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | Arya Samaj Mandir Marriage Helpline Raipur | Aryasamaj Mandir Helpline Raipur | inter caste marriage Helpline Raipur | inter caste marriage promotion for prevent of untouchability in Raipur | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | arya samaj marriage Raipur | arya samaj marriage rules Raipur | inter caste marriage promotion for national unity by Arya Samaj Raipur | human rights in Raipur | human rights to marriage in Raipur | Arya Samaj Marriage Guidelines Raipur | inter caste marriage consultants in Raipur | court marriage consultants in Raipur | Arya Samaj Mandir marriage consultants in Raipur | arya samaj marriage certificate Raipur | Procedure of Arya Samaj Marriage Raipur | arya samaj marriage registration Raipur | arya samaj marriage documents Raipur | Procedure of Arya Samaj Wedding Raipur | arya samaj intercaste marriage Raipur | arya samaj wedding Raipur | arya samaj wedding rituals Raipur | arya samaj wedding legal Raipur | arya samaj shaadi Raipur | arya samaj mandir shaadi Raipur | arya samaj shadi procedure Raipur | arya samaj mandir shadi valid Raipur | arya samaj mandir shadi Raipur | inter caste marriage Raipur | validity of arya samaj marriage certificate Raipur | validity of arya samaj marriage Raipur | Arya Samaj Marriage Ceremony Raipur | Arya Samaj Wedding Ceremony Raipur | Documents required for Arya Samaj marriage Raipur | Arya Samaj Legal marriage service Raipur | Arya Samaj Pandits Helpline Raipur | Arya Samaj Pandits Raipur | Arya Samaj Pandits for marriage Raipur | Arya Samaj Temple Raipur | Arya Samaj Pandits for Havan Raipur | Arya Samaj Pandits for Pooja Raipur | Pandits for marriage Raipur | Pandits for Pooja Raipur | Arya Samaj Pandits for vastu shanti havan | Vastu Correction without Demolition Raipur | Arya Samaj Pandits for Gayatri Havan Raipur | Vedic Pandits Helpline Raipur | Hindu Pandits Helpline Raipur | Pandit Ji Raipur, Arya Samaj Intercast Matrimony Raipur | Arya Samaj Hindu Temple Raipur | Hindu Matrimony Raipur | सत्यार्थप्रकाश | वेद | महर्षि दयानन्द सरस्वती | विवाह समारोह, हवन | आर्य समाज पंडित | आर्य समाजी पंडित | अस्पृश्यता निवारणार्थ अन्तरजातीय विवाह | आर्य समाज मन्दिर | आर्य समाज मन्दिर विवाह | वास्तु शान्ति हवन | आर्य समाज मन्दिर आर्य समाज विवाह भारत | Arya Samaj Mandir Marriage Raipur Chhattisgarh India

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