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द्वादश समुल्लास भाग -4

(प्रश्न) जो कर्म से मुक्त होता है वही ईश्वर कहाता है।

(उत्तर) जब अनादि काल से जीव के साथ कर्म लगे हैं उन से जीव मुक्त कभी नहीं हो सकेंगे।

(प्रश्न) कर्म का बन्ध सादि है।

(उत्तर) जो सादि है तो कर्म का योग अनादि नहीं और संयोग के आदि में जीव निष्कर्म होगा और जो निष्कर्म को कर्म लग गया तो मुक्तों को भी लग जायगा और कर्म कर्त्ता का समवाय अर्थात् नित्य सम्बन्ध होता है यह कभी नहीं छूटता, इसलिये जैसा ९वें समुल्लास में लिख आये हैं वैसा ही मानना ठीक है। जीव चाहै जैसा अपना ज्ञान और सामर्थ्य बढ़ावे तो भी उस में परिमित ज्ञान और ससीम सामर्थ्य रहेगा। ईश्वर के समान कभी नहीं हो सकता। हां! जितना सामर्थ्य बढ़ना उचित है उतना योग से बढ़ा सकता है। और जैनियों में आर्हत लोग देह के परिमाण से जीव का भी परिमाण मानते हैं उन से पूछना चाहिये कि जो ऐसा हो तो हाथी का जीव कीड़ी में और कीड़ी का जीव हाथी में कैसे समा सकेगा? यह भी एक मूर्खता की बात है। क्योंकि जीव एक सूक्ष्म पदार्थ है जो कि एक परमाणु में भी रह सकता है परन्तु उस की शक्तियां शरीर में प्राण, बिजुली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त हो रहती हैं। उन से सब शरीर का वर्त्तमान जानता है। अच्छे संग से अच्छा और बुरे संग से बुरा हो जाता है। अब जैन लोग धर्म इस प्रकार का मानते हैं-

मूल- रे जीव भव दुहाइं, इक्कं चिय हरइ जिणमयं धम्मं।
इयराणं पणमंतो, सुह कय्ये मूढ मुसिओसि।। -प्रकरणरत्नाकर, भाग २। षष्टीशतक ६०। सूत्रंक ३।।

संक्षेप से अर्थ- रे जीव! एक ही जिनमत श्रीवीतरागभाषित धर्म संसार सम्बन्धी जन्म, जरा, मरणादि दुःखों का हरणकर्त्ता है। इसी प्रकार सुदेव और सुगुरु भी जैन मत वाले को जानना। इतर जो वीतराग ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त वीतराग देवों से भिन्न अन्य हरि, हर, ब्रह्मादि कुदेव हैं उन की अपने कल्याणार्थ जो जीव पूजा करते हैं वे सब मनुष्य ठगाये गये हैं। इस का यह भावार्थ है कि जैनमत के सुदेव सुगुरु तथा सुधर्म को छोड़ के अन्य कुदेव कुगुरु तथा कुधर्म को सेवन से कुछ भी कल्याण नहीं होता। ३।।

(समीक्षक) अब विद्वानों को विचारना चाहिये कि कैसे निन्दायुक्त इन के धर्म के पुस्तक हैं।

मूल- अरिहं देवो सुगुरु सुद्धं धम्मं च पंच नवकारो।
धन्नाणं कयच्छाणं, निरन्तरं वसइ हिययम्मि।। -प्रकन भा०२। षष्टी० ६०। सूत्र० १।।

जो अरिहन् देवेन्द्रकृत पूजादिकन के योग्य दूसरा पदार्थ उत्तम कोई नहीं ऐसा जो देवों का देव शोभायमान अरिहन्त देव ज्ञान क्रियावान्, शास्त्रें का उपदेष्टा, शुद्ध कषाय मलरहित सम्यक्त्व विनय दयामूल श्रीजिनभाषित जो धर्म है वही दुर्गति में पड़ने वाले प्राणियों का उद्धार करने वाला है और अन्य हरिहरादि का धर्म संसार से उद्धार करने वाला नहीं। और पञ्च अरिहन्तादिक परमेष्ठी तत्सम्बन्धी उन को नमस्कार। ये चार पदार्थ धन्य हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं अर्थात् दया, क्षमा, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और चारित्र यह जैनों का धर्म है।।१।।

(समीक्षक) जब मनुष्यमात्र पर दया नहीं वह दया न क्षमा। ज्ञान के बदले अज्ञान दर्शन अन्धेर और चारित्र के बदले भूखे मरना कौनसी अच्छी बात है? जैन मत के धर्म की प्रशंसा-

मूल- जइ न कुणसि तव चरणं, न पढसि न गुणेसि देसि नो दाणम्।
ता इत्तियं न सक्किसि, जं देवो इक्क अरिहन्तो।। -प्रकरण० भा० २। षष्टी ६०। सू० २।

हे मनुष्य! जो तू तप चारित्र नहीं कर सकता, न सूत्र पढ़ सकता, न प्रकरणादि   का विचार कर सकता और सुपात्रदि को दान नहीं दे सकता तो भी जो तू देवता एक अरिहन्त ही हमारे आराधना के योग्य सुगुरु सुधर्म जैन मत में श्रद्धा रखना सर्वोत्तम बात और उद्धार का कारण है।।२।।

(समीक्षक) यद्यपि दया और क्षमा अच्छी वस्तु है तथापि पक्षपात में फंसने से दया अदया और क्षमा अक्षमा हो जाती है। इस का प्रयोजन यह है कि किसी भी जीव को दुःख न देना यह बात सर्वथा सम्भव नहीं हो सकती क्योंकि दुष्टों को दण्ड देना भी दया में गणनीय है। जो एक दुष्ट को दण्ड न दिया जाय तो सहस्रों मनुष्यों को दुःख प्राप्त हो, इसलिये वह दया अदया और क्षमा अक्षमा हो जाय। यह तो ठीक है कि सब प्राणियों के दुःखनाश और सुख की प्राप्ति का उपाय करना दया कहाती है। केवल जल छान के पीना, क्षुद्र जन्तुओं को बचाना ही दया नहीं कहाती किन्तु इस प्रकार की दया जैनियों के कथनमात्र ही है क्योंकि वैसा वर्त्तते नहीं। क्या मनुष्यादि पर चाहें किसी मत में क्यों न हो दया करके उस को अन्नपानादि से सत्कार करना और दूसरे मत के विद्वानों का मान्य और सेवा करना दया नहीं है? जो इन की सच्ची दया होती तो ‘विवेकसार’ के पृष्ठ २२१ में देखो क्या लिखा है। एक ‘परमती की स्तुति’ अर्थात् उन का गुणकीर्तन कभी न करना। दूसरा ‘उनको नमस्कार’ अर्थात् वन्दना भी न करनी। तीसरा ‘आलपन’ अर्थात् अन्य मत वालों के साथ थोड़ा बोलना। चौथा ‘संलपन’ अर्थात् उन से बार-बार न बोलना। पांचवां ‘उन को अन्न वस्त्रदि दान’ अर्थात् उन को खाने पीने की वस्तु भी न देनी। छठा ‘गन्धपुष्पादि दान’ अन्य मत की प्रतिमा पूजन के लिए गन्धपुष्पादि भी न देना। ये छ यतना अर्थात् इन छः प्रकार के कर्मों को जैन लोग कभी न करें।

(समीक्षक) अब बुद्धिमानों को विचारना चाहिए कि इन जैनी लोगों की अन्य मत वाले मनुष्यों पर कितनी अदया, कुदृष्टि और द्वेष है। जब अन्य मतस्थ मनुष्यों पर इतनी अदया है तो फिर जैनियों को दयाहीन कहना सम्भव है क्योंकि अपने घर वालों ही की सेवा करना विशेष धर्म नहीं कहाता। उन के मत के मनुष्य उन के घर के समान हैं। इसलिए उन की सेवा करते; अन्य मतस्थों की नहीं; फिर उन को दयावान् कौन बुद्धिमान् कह सकता है? विवेक० पृष्ठ १०८ में लिखा है कि मथुरा के राजा के नमुची नामक दीवान को जैनयतियों ने अपना विरोधी समझ कर मार डाला और आलोयणा करके शुद्ध हो गये।

(समीक्षक) क्या यह भी दया और क्षमा का नाशक कर्म नहीं है? जब अन्य मत वालों पर प्राण लेने पर्यन्त वैरबुद्धि रखते हैं तो इन को दयालु के स्थान पर हिसक कहना ही सार्थक है। अब सम्यक्त्व दर्शनादि के लक्षण आर्हत प्रवचनसंग्रह परमागम सार में कथित हैं। सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये चार मोक्ष मार्ग के साधन हैं। इन की व्याख्या योगदेव ने की है। जिस रूप से जीवादि द्रव्य अवस्थित हैं उसी रूप से जिनप्रतिपादित ग्रन्थानुसार विपरीत अभिनिवेशादिरहित जो श्रद्धा अर्थात् जिनमत में प्रीति है सो ‘सम्यक् श्रद्धान’ और ‘सम्यक् दर्शन है’।

रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते।

जिनोक्त तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा करनी चाहिए अर्थात् अन्यत्र कहीं नहीं।

यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा।
योऽवबोधस्तमत्रहु सम्यग्ज्ञानं मनीषिण ।।

जिस प्रकार के जीवादि तत्त्व हैं उन का संक्षेप वा विस्तार से जो बोध होता है उसी को ‘सम्यक् ज्ञान’ बुद्धिमान् कहते हैं।

सर्वथाऽनवद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते।
कीर्त्तितं तदहिसादिव्रतभेदेन पञ्चधा।
अहिसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्य्यापरिग्रहा ।।

सब प्रकार से निन्दनीय अन्य मत सम्बन्ध का त्याग चारित्र कहाता है और अहिसादि भेद से पांच प्रकार का व्रत है। एक (अहिसा) किसी प्राणिमात्र का न मारना। दूसरा (सूनृता) प्रिय वाणी बोलना। तीसरा (अस्तेय) चोरी न करना। चौथा (ब्रह्मचर्य्य) उपस्थ इन्द्रिय का संयमन। और पांचवां (अपरिग्रह) सब वस्तुओं का त्याग करना। इन में बहुत सी बातें अच्छी हैं अर्थात् अहिसा और चोरी आदि निन्दनीय कर्मों का त्याग अच्छी बात है परन्तु ये सब अन्य मत की निन्दा करनी आदि दोषों से सब अच्छी बातें भी दोषयुक्त हो गई हैं। जैसे प्रथम सूत्र में लिखी है-‘अन्य हरिहरादि का धर्म संसार में उद्धार करने वाला नहीं। क्या यह छोटी निन्दा है कि जिन के ग्रन्थ देखने से ही पूर्ण विद्या और धार्मिकता पाई जाती है उन को बुरा कहना? और अपने महा असम्भव जैसा कि पूर्व लिख आये वैसी बातों के कहने वाले अपने तीर्थंकरों की स्तुति करना? केवल हठ की बातें हैं। भला जो जैनी कुछ चारित्र न कर सके, न पढ़ सके, न दान देने का सामर्थ्य हो तो भी जैन मत सच्चा है। क्या इतना कहने ही से वह उत्तम हो जाये? और अन्य मत वाले श्रेष्ठ भी अश्रेष्ठ हो जायें? ऐसे कथन करने वाले मनुष्यों को भ्रान्त और बालबुद्धि न कहा जाय तो क्या कहें? इस में यही विदित होता है कि इनके आचार्य स्वार्थी थे; पूर्ण विद्वान् नहीं। क्योंकि जो सब की निन्दा न करते तो ऐसी झूठी बातों में कोई न फंसता, न उन का प्रयोजन सिद्ध होता। देखो! यह तो सिद्ध होता है कि जैनियों का मत डुबाने वाला और वेदमत सब का उद्धार करनेहारा, हरिहरादि देव सुदेव और इन के ऋषभदेवादि सब कुदेव दूसरे लोग कहें तो क्या वैसा ही इन को बुरा न लगेगा? और भी इन के आचार्य्य और मानने वालों की भूल देख लो-

मूल- जिणवर आणा भंगं, उमग्ग उस्सुत्त लेस देसणउ।
आणा भंगे पावं ता जिणमय दुक्करं धम्मम्।। -प्रकरण भाग २। षष्टी श० ६१। सू० ११।।

उन्मार्ग उत्सूत्र के लेख दिखाने से जो जिनवर अर्थात् वीतराग तीर्थंकरों की आज्ञा का भंग होता है वह दुःख का हेतु पाप है। जिनेश्वर कहे सम्यक्त्वादि धर्म ग्रहण करना बड़ा कठिन है। इसलिये जिस प्रकार जिन आज्ञा का भंग न हो वैसा करना चाहये।।११।।

(समीक्षक) जो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा और अपने ही धर्म को बड़ा कहना और दूसरे की निन्दा करनी है वह मूर्खता की बात है क्योंकि प्रशंसा उसी की ठीक है कि जिस की दूसरे विद्वान् करें। अपने मुख से अपनी प्रशंसा तो चोर भी करते हैं तो क्या वे प्रशंसनीय हो सकते हैं? इसी प्रकार की इन की बातें हैं।

मूल- बहुगुण विज्झा निलओ, उसुत्त भासी तहा विमुत्तव्वो।
जह वर मणि जुत्तो विहु, विग्घकरी विसहरो लोए।। -प्रकरण भा०२। षष्टी० सू० १८।

जैसे विषधर सर्प में मणि त्यागने योग्य है वैसे जो जैनमत में नहीं वह चाहै कितना बड़ा धार्मिक पण्डित हो उस को त्याग देना ही जैनियों को उचित है।।१८।।

(समीक्षक) देखिये! कितनी भूल की बात है। जो इन के चेले और आचार्य्य विद्वान् होते तो विद्वानों से प्रेम करते। जब इन के तीर्थंकर सहित अविद्वान् हैं तो विद्वानों का मान्य क्यों करें? क्या सुवर्ण को मल वा धूल में पड़े को कोई त्यागता है? इस से यह सिद्ध हुआ कि विना जैनियों के वैसे दूसरे कौन पक्षपाती हठी दुराग्रही विद्याहीन होंगे?

मूल- अइसय पाविय पावा, धम्मिअ पव्वेसु तोवि पाव रया।
न चलन्ति सुद्ध धम्मा, धन्ना किविपाव पव्वेसु।। -प्रकरण भा० २। षष्टी० सू० २९।।

अन्य दर्शनी कुलिगी अर्थात् जैनमत विरोधी उन का दर्शन भी जैनी लोग न करें।।२९।।

(समीक्षक) बुद्धिमान् लोग विचार लेंगे कि यह कितनी पामरपन की बात है। सच तो यह है कि जिस का मत सत्य है उस को किसी से डर नहीं होता। इन के आचार्य जानते थे कि हमारा मत पोलपाल है जो दूसरे को सुनावेंगे तो खण्डन हो जायेगा इसलिये सब की निन्दा करो और मूर्ख जनों को फंसाओ।

मूल- नामंपि तस्स असुहं, जेण निदिठाइ मिच्छ पव्वाइ।
जेसि अणुसंगाउ, धम्मीणवि होइ पाव मई।। -प्रकनभान २। षष्टी० सू० २७।।

जो जैनधर्म से विरुद्ध धर्म हैं वे मनुष्यों को पापी करने वाले हैं इसलिये किसी के अन्य धर्म को न मान कर जैनधर्म ही को मानना श्रेष्ठ है।।२७।।

(समीक्षक) इस से यह सिद्ध होता है कि सब से वैर, विरोध, निन्दा, ईर्ष्या आदि दुष्ट कर्मरूप सागर में डुबाने वाला जैन मार्ग है। जैसे जैनी लोग सब के निन्दक हैं वैसा कोई भी दूसरा मत वाला महानिन्दक और अधर्मी न होगा। क्या एक ओर से सब की निन्दा और अपनी अतिप्रशंसा करना शठ मनुष्यों की बातें नहीं हैं? विवेकी लोग तो चाहें किसी के मत के हों उन में अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहते हैं।

मूल- हा हा गुरु अ अकज्झं, सामी न हु अच्छि कस्स पुक्करिमो।
कह जिण वयण कह सुगुरु; सावया कह इय अकज्झं।। -प्रकन भा० २। षष्टी सू० ३५।।

सर्वज्ञभाषित जिन वचन, जैन के सुगुरु और जैनधर्म कहां और उन से विरुद्ध कुगुरु अन्य मार्गी के उपदेशक कहां अर्थात् हमारे सुगुरु, सुदेव, सुधर्म और अन्य के कुदेव, कुगुरु, कुधर्म हैं।।३५।।

(समीक्षक) यह बात बेर बेचनेहारी कूंजड़ी के समान है। जैसे वह अपने खट्टे बेरों को मीठा और दूसरी के मीठों को भी खट्टा और निकम्मे बतलाती है, इसी प्रकार की जैनियों की बातें हैं। ये लोग अपने मत से भिन्न मत वालों की सेवा में बड़ा अकार्य्य अर्थात् पाप गिनते हैं।

मूल- सप्पो इक्कं मरणं, कुगुरु आणंताइ देइ मरणाइ।
तो वरिसप्पं गहियुं, मा कुगुरुसेवणं भद्दम्।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ३७।।

जैसे प्रथम लिख आये कि सर्प में मणि का भी त्याग करना उचित है वैसे अन्यमार्गियों में श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों का भी त्याग कर देना। अब उस से भी विशेष निन्दा अन्य मत वालों की करते हैं-जैनमत से भिन्न सब कुगुरु अर्थात् वे सर्प्प से भी बुरे हैं। उन का दर्शन, सेवा, संग कभी न करना चाहिये। क्योंकि सर्प्प के संग से एक बार मरण होता है और अन्यमार्गी कुगुरुओं के संग से अनेक बार जन्म मरण में गिरना पड़ता है। इसलिए हे भद्र! अन्यमार्गियों के गुरुओं के पास भी मत खड़ा रह क्योंकि जो तू अन्यमार्गियों की कुछ भी सेवा करेगा तो दुःख में पड़ेगा।।३७।।

(समीक्षक) देखिये! जैनियों के समान कठोर, भ्रान्त, द्वेषी, निन्दक, भूले हुए दूसरे मतवाले कोई भी न होंगे। इन्होंने मन से यह विचारा है कि जो हम अन्य की निन्दा और अपनी प्रशंसा न करेंगे तो हमारी सेवा और प्रतिष्ठा न होगी। परन्तु यह बात उन के दौर्भाग्य की है क्योंकि जब तक उत्तम विद्वानों का संग सेवा न करेंगे तब तक इन को यथार्थ ज्ञान और सत्य धर्म की प्राप्ति कभी न होगी। इसलिए जैनियों को उचित है कि अपनी विद्याविरुद्ध मिथ्या बातें छोड़ वेदोक्त सत्य बातों का ग्रहण करें तो उन के लिये बड़े कल्याण की बात है।

मूल- कि भणिमो कि करिमो, ताण हयासाण धिट्ठ दुट्ठाणं।
जे दंसि ऊण लिगं खिवंति न रयम्मि मुद्ध जणं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ४०।।

जिस की कल्याण की आशा नष्ट हो गई; धीठ, बुरे काम करने में अतिचतुर दुष्ट दोष वाले से क्या कहना? और क्या करना? क्योंकि जो उस का उपकार करो तो उलटा उस का नाश करे। जैसे कोई दया करके अन्धे सिह की आंख खोलने को जाये तो वह उसी को खा लेवे। वैसे ही कुगुरु अर्थात् अन्यमार्गियों का उपकार करना अपना नाश कर लेना है अर्थात् उनसे सदा अलग ही रहना।।४०।।

(समीक्षक) जैसे जैन लोग विचारते हैं वैसे दूसरे मत वाले भी विचारें तो जैनियों की कितनी दुर्दशा हो? और उन का कोई किसी प्रकार का उपकार न करे तो उन के बहुत से काम नष्ट होकर कितना दुःख प्राप्त हो? वैसा अन्य के लिये जैनी क्यों नहीं विचारते?

मूल- जह जह तुट्टइ धम्मो, जह जह दुट्ठाण होई अइ उदउ।
समद्दिट्ठि जियाणं, तह तह उल्लसइ समत्तं।। -प्रकन भा०२। षष्टी० सू० ४२।।

जैसे-जैसे दर्शनभ्रष्ट निह्नव, पाच्छत्ता, उसन्ना तथा कुसीलियादिक और अन्य दर्शनी, त्रिदण्डी, परिव्राजक तथा विप्रादिक दुष्ट लोगों का अतिशय बल सत्कार पूजादिक होवे वैसे-वैसे सम्यग्दृष्टि जीवों का सम्यक्त्व विशेष प्रकाशित होवे यह बड़ा आश्चर्य है।।४२।।

(समीक्षक) अब देखो! क्या इन जैनों से अधिक ईर्ष्या, द्वेष, वैरबुद्धियुक्त दूसरा कोई होगा? हां दूसरे मत में भी ईर्ष्या, द्वेष है परन्तु जितनी इन जैनियों में है उतनी किसी में नहीं। और द्वेष ही पाप का मूल है इसलिए जैनियों में पापाचार क्यों न हो? ।

मूल- संगोवि जाण अहिउ, तेसि धम्माइ जे पकुव्वन्ति।
मुत्तूण चोर संगं, करन्ति ते चोरियं पावा।। -प्रकनभान २। षष्टी० सू० ७५।।

इस का मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि जैसे मूढ़जन चोर के संग से नासिकाछेदादि दण्ड से भय नहीं करते वैसे जैनमत से भिन्न चोर धर्मों में स्थित जन अपने अकल्याण से भय नहीं करते।।७५।।

(समीक्षक) जो जैसा मनुष्य होता है वह प्रायः अपने ही सदृश दूसरों को समझता है। क्या यह बात सत्य हो सकती है कि अन्य सब चोरमत और जैन का साहूकार मत है? जब तक मनुष्य में अति अज्ञान और कुसंग से भ्रष्ट बुद्धि होती है तब तक दूसरों के साथ अति ईर्ष्या, द्वेषादि दुष्टता नहीं छोड़ता। जैसा जैनमत पराया द्वेषी है ऐसा अन्य कोई नहीं।

मूल- जच्छ पसुमहिसलरका पव्वं होमन्ति पाव नवमीए।
पूअन्ति तंपि सढ्ढा, हा हीला वीयरायस्स।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ७६।।

पूर्व सूत्र में जो मिथ्यात्वी अर्थात् जैनमार्ग भिन्न सब मिथ्यात्वी और आप सम्यक्त्वी अर्थात् अन्य सब पापी, जैन लोग सब पुण्यात्मा, इसलिये जो कोई मिथ्यात्वी के धर्म का स्थापन करे वही पापी है।।७६।।

(समीक्षक) जैसे अन्य के स्थानों में चामुण्डा, कालिका, ज्वाला, प्रमुख के आगे पापनौमी अर्थात् दुर्गानौमी तिथि आदि सब बुरे हैं वैसे क्या तुम्हारे पजूसण आदि व्रत बुरे नहीं हैं जिन से महाकष्ट होता है? यहां वाममार्गियों की लीला का खण्डन तो ठीक है परन्तु जो शासनदेवी और मरुत्देवी आदि को मानते हैं उन का भी खण्डन करते तो अच्छा था। जो कहैं कि हमारी देवी हिसक नहीं तो इन का कहना मिथ्या है क्योंकि शासनदेवी ने एक पुरुष और दूसरे बकरे की आंखें निकाल ली थीं। पुनः वह राक्षसी और दुर्गा कालिका की सगी बहिन क्यों नहीं? और अपने पच्चखाण आदि व्रतों को अतिश्रेष्ठ और नवमी आदि को दुष्ट कहना मूढ़ता की बात है क्योंकि दूसरे के उपवासों की तो निन्दा और अपने उपवासों की स्तुति करना मूर्खता की बात है। हां! जो सत्यभाषणादि व्रत धारण करने हैं वे तो सब के लिए उत्तम हैं। जैनियों और अन्य किसी का उपवास सत्य नहीं है।

मूल- वेसाण वंदियाणय, माहण डुंबाण जरकसिरकाणं।
भत्ता भरकट्ठाणं, वियाणं जन्ति दूरेणं।। -प्रकनभान २। षष्टी० सू० ८२।।

इस का मुख्य प्रयोजन यह है कि जो वेश्या, चारण, भाटादि लोगों, ब्राह्मण, यक्ष, गणेशादिक मिथ्यादृष्टि देवी आदि देवताओं का भक्त है जो इन के मानने वाले हैं वे सब डूबने और डुबाने वाले हैं क्योंकि उन्हीं के पास वे सब वस्तुएं मांगते हैं और वीतराग पुरुषों से दूर रहते हैं।।८२।।

(समीक्षक) अन्यमार्गियों के देवताओं को झूठ कहना और अपने देवताओं को सच कहना केवल पक्षपात की बात है। और अन्य वाममार्गियों की देवी आदि

का निषेध करते हैं परन्तु जो ‘श्राद्ध दिनकृत्य’ के पृष्ठ ४६ में लिखा है कि शासनदेवी ने रात्रि में भोजन करने के कारण एक पुरुष के थपेड़ा मारा उस की आंखें निकाल डालीं। उस के बदले बकरे की आंख निकाल कर उस मनुष्य के लगा दीं। इस देवी को हिसक क्यों नहीं मानते? रत्नसार भाग १। पृ० ६७ में देखो क्या लिखा है-मरुत्देवी पथिकों को पत्थर की मूर्त्ति होकर सहाय करती थी। इस को भी वैसी क्यों नहीं मानते?

मूल- कि सोपि जणणि जाओ, जाणो जणणीइ कि गओ विद्धि।
जई मिच्छरओ जाओ, गुणेसु तह मच्छरं वहइ।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ८१।।

जो जैनमत विरोधी मिथ्यात्वी अर्थात् मिथ्या धर्म वाले हैं वे क्यों जन्मे? जो जन्मे तो बढ़े क्यों? अर्थात् शीघ्र ही नष्ट हो जाते तो अच्छा होता।।८१।।

(समीक्षक) देखो! इन के वीतरागभाषित दया, धर्म दूसरे मत वालों का जीवन भी नहीं चाहते। केवल इन की दया धर्म कथनमात्र है। और जो है सो क्षुद्र जीवों और पशुओं के लिये है; जैनभिन्न मनुष्यों के लिये नहीं।

मूल- सुद्धे मग्गे जाया, सुहेण गच्छत्ति सुद्ध मग्गमि।
जे पुण अमग्गजाया, मग्गे गच्छन्ति तं चुय्यं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ८३।।

सं० अर्थ- इस का मुख्य प्रयोजन यह है कि जो जैनकुल में जन्म लेकर मुक्ति को जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं परन्तु जैनभिन्न कुल में जन्मे हुए मिथ्यात्वी अन्यमार्गी मुक्ति को प्राप्त हों इस में बड़ा आश्चर्य है। इस का फलितार्थ यह है कि जैनमत वाले ही मुक्ति को जाते हैं अन्य कोई नहीं। जो जैनमत का ग्रहण नहीं करते वे नरकगामी हैं।।८३।।

(समीक्षक) क्या जैनमत में कोई दुष्ट वा नरकगामी नहीं होता? सब ही मुक्ति में जाते हैं? और अन्य कोई नहीं? क्या यह उन्मत्तपन की बात नहीं है? विना भोले मनुष्यों के ऐसी बात कौन मान सकता है?

मूल- तिच्छयराणं पूआ, संमत्त गुणाणकारिणी भणिया।
साविय मिच्छत्तयरी, जिण समये देसिया पूआ।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ९०।।

सं० अर्थ- एक जिन मूर्त्तियों की पूजा सार और इस से भिन्नमार्गियों की मूर्त्तिपूजा असार है। जो जिन मार्ग की आज्ञा पालता है वह तत्त्वज्ञानी जो नहीं पालता है वह तत्त्वज्ञानी नहीं।।९०।।

(समीक्षक) वाह जी! क्या कहना!! क्या तुम्हारी मूर्त्ति पाषाणादि जड़ पदार्थों की नहीं जैसी कि वैष्णवादिकों की हैं? जैसी तुम्हारी मूर्त्तिपूजा मिथ्या है वैसी ही मूर्त्तिपूजा वैष्णवादिकों की भी मिथ्या है। जो तुम तत्त्वज्ञानी बनते हो और अन्यों को अतत्त्वज्ञानी बनाते हो इससे विदित होता है कि तुम्हारे मत में तत्त्वज्ञान नहीं है।

मूल- जिन आणाए धम्मो, आणा रहिआण फुड अहमुत्ति।
इय मुणि ऊणय तत्तं, जिण आणा कुणहु धम्मं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ९२।।

संनअर्थ- जो जिनदेव की आज्ञा दया क्षमादि रूप धर्म है उस से अन्य सब आज्ञा अधर्म हैं।।९२।।

(समीक्षक) यह कितने बडे़ अन्याय की बात है। क्या जैनमत से भिन्न कोई

भी पुरुष सत्यवादी धर्मात्मा नहीं है? क्या उस धार्मिक जन को न मानना चाहिये। हां! जो जैनमतस्थ मनुष्यों के मुख जिह्वा चमड़े की न होती और अन्य की चमडे़ की होती तो यह बात घट सकती थी। इस से अपने ही मत के ग्रन्थ वचन साधु आदि की ऐसी बड़ाई की है कि जानो भाटों के बड़े भाई ही जैन लोग बन रहे हैं।

मूल- वन्नेमि नारयाउवि, जेसि दुरकाइ सम्भरं ताणम्।
भव्वाण जणइ हरि हरं, रिद्धि समिद्धीवि उद्घोसं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ९५।।

सं० अर्थन- इस का मुख्य तात्पर्य यह है कि जो हरिहरादि देवों की विभूति है वह नरक का हेतु है। उस को देखके जैनियों के रोमाञ्च खड़े हो जाते हैं। जैसे राजाज्ञा भंग करने से मनुष्य मरण तक दुःख पाता है वैसे जिनेन्द्र आज्ञा भंग से क्यों न जन्म मरण दुःख पावेगा? ।।९५।।

(समीक्षक) देखिये! जैनियों के आचार्य्य आदि की मानसी वृत्ति अर्थात् ऊपर के कपट और ढोंग की लीला। अब तो इन के भीतर की भी खुल गई। हरिहरादि और उन के उपासकों के ऐश्वर्य और बढ़ती को देख भी नहीं सकते। उन के रोमाञ्च इसलिये खड़े होते हैं कि दूसरे की बढ़ती क्यों हुई? बहुधा वैसे चाहते होंगे कि इन का सब ऐश्वर्य हम को मिल जाय और ये दरिद्र हो जायें तो अच्छा। और राजाज्ञा का दृष्टान्त इसलिये देते हैं कि ये जैन लोग राज्य के बड़े खुशामदी झूठे और डरपुकने हैं। क्या झूठी बात भी राजा की मान लेनी चाहिये? जो ईर्ष्या-द्वेषी हो तो जैनियों से बढ़ के दूसरा कोई भी न होगा।

मूल- जो देई सुद्ध धम्मं, सो परमप्पा जयम्मि न हु अन्नो ।
कि कप्पद्दुम्म सरिसो, इयर तरू होई कइयावि।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०१।।

संनअर्थ- वे मूर्ख लोग हैं जो जैनधर्म से विरुद्ध हैं। और जो जिनेन्द्रभाषित धर्मोपदेष्टा साधु वा गृहस्थ अथवा ग्रन्थकर्त्ता हैं वे तीर्थंकरों के तुल्य हैं। उन के तुल्य कोई भी नहीं।।१०१।।

(समीक्षक) क्यों न हो! जो जैनी लोग छोकरबुद्धि न होते तो ऐसी बातें क्यों मान बैठते? जैसे वेश्या विना अपने के दूसरी की स्तुति नहीं करती वैसे ही यह बात भी दीखती है।

मूलं- जे अमुणि य गुण दोषा ते कहअ दुहाण हुंति त मझच्छा ।
अह ते विहु मझच्छा ता विस अमिआण तुल्लत्तं ।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०३।।

संनअर्थ- जिनेन्द्र देव तदुक्त सिद्धान्त और जिनमत के उपदेष्टाओं का त्याग करना जैनियों को उचित नहीं है।।१०३।।

(समीक्षक) यह जैनियों का हठ, पक्षपात और अविद्या का फल नहीं तो क्या है? किन्तु जैनियों की थोड़ी सी बात छोड़ के अन्य सब त्यक्तव्य हैं। जिस की कुछ थोड़ी सी भी बुद्धि होगी वह जैनियों के देव, सिद्धान्तग्रन्थ और उपदेष्टाओं को देखे, सुने, विचारे तो उसी समय निःसन्देह छोड़ देगा।

मूल- वयणे वि सुगुरु जिणवल्लहस्स केसि न उल्लसइ सम्मं।
अह कह दिणमणि तेयं, उलुआणं हरइ अन्धत्तं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०८।।

संनअर्थ- जो जिनवचन के अनुकूल चलते हैं वे पूजनीय और जो विरुद्ध चलते हैं वे अपूज्य हैं। जैन गुरुओं को मानना अर्थात् अन्यमार्गियों को न मानना।।१०८।।

(समीक्षक) भला जो जैन लोग अन्य अज्ञानियों को पशुवत् चेले करके न बांधते तो उन के जाल में से छूट कर अपनी मुक्ति के साधन कर जन्म सफल कर लेते। भला जो कोई तुम को कुमार्गी, कुगुरु, मिथ्यात्वी और कूपदेष्टा कहैं तो तुम को कितना दुःख लगे? वैसे ही जो तुम दूसरे को दुःखदायक हो इसीलिये तुम्हारे मत में असार बातें बहुत सी भरी हैं।

मूल- तिहुअण जणं मरंतं, दट्ठूण निअन्ति जे न अप्पाणं ।
विरमंति न पावाउ, विद्धी धिट्ठत्तणं ताणं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०९।।

संनअर्थ- जो मृत्युपर्यन्त दुःख हो तो भी कृषि व्यापारादि कर्म जैनी लोग न करें क्योंकि ये कर्म नरक में ले जाने वाले हैं।।१०९।।

(समीक्षक) अब कोई जैनियों से पूछे कि तुम व्यापारादि कर्म क्यों करते हो? इन कर्मों को क्यों नहीं छोड़ देते? और जो छोड़ देओ तो तुम्हारे शरीर का पालन, पोषण भी न हो सके और जो तुम्हारे कहने से सब लोग छोड़ दें तो तुम क्या वस्तु खाके जीओगे? ऐसा अत्याचार का उपदेश करना सर्वथा व्यर्थ है। क्या करें विचारे। विद्या, सत्संग के विना जो मन में आया सो बक दिया।

मूल- तइया हमाण अहमा, कारणरहिया अनाणगव्वेण ।
जे जंपन्ति उस्सुत्तं, तेसि, दिद्धिच्छ पंडिच्चं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १२१।।

संनअर्थन- जो जैनागम से विरुद्ध शास्त्रें को मानने वाले हैं वे अधमाधम हैं। चाहें कोई प्रयोजन भी सिद्ध होता हो तो भी जैन मत से विरुद्ध न बोले; न माने। चाहें कोई प्रयोजन सिद्ध होता है तो भी अन्य मत का त्याग कर दे।।१२१।।

(समीक्षक) तुम्हारे मूलपुरुषों से ले के आज तक जितने हो गये और होंगे उन्होंने विना दूसरे मत को गालिप्रदान के अन्य कुछ भी दूसरी बात न की और न करेंगे। भला! जहां-जहां जैनी लोग अपना प्रयोजन सिद्ध होता देखते हैं वहां चेलों के भी चेले बन जाते हैं तो ऐसी मिथ्या लम्बी चौड़ी बातों के हांकने में तनिक भी लज्जा नहीं आती यह बडे़ शोक की बात है।

मूल- जं वीरजिणस्स जिओ, मिरई उस्सुत्त लेस देसणओ ।
सागर कोडाकोडि हिडइ अइभीमभवरण्णे।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १२२।।

संनअर्थ- जो कोई ऐसा कहे कि जैन साधुओं में धर्म है; हमारे और अन्य में भी धर्म है तो वह मनुष्य क्रोड़ान क्रोड़ वर्ष तक नरक में रह कर फिर भी नीच जन्म पाता है।।१२२।।

(समीक्षक) वाह रे! वाह!! विद्या के शत्रुओ! तुम ने यही विचारा होगा कि हमारे मिथ्या वचनों को कोई खण्डन न करे इसीलिये यह भयंकर वचन लिखा है सो असम्भव है। अब कहां तक तुम को समझावें। तुम ने तो झूठ निन्दा और अन्य मतों से वैर विरोध करने पर ही कटिबद्ध हो कर अपना प्रयोजन सिद्ध करना मोहनभोग के समान समझ लिया है।

मूल- दूरे करणं दूरम्मि साहणं तह पभावणा दूरे।
जिण धम्म सद्दहाणं पि तिरकदुरकाइ निट्ठवइ।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १२७।।

संनअर्थ- जिस मनुष्य से जैन धर्म का कुछ भी अनुष्ठान न हो सके तो भी जो ‘जैन धर्म सच्चा है अन्य कोई नहीं’ इतनी श्रद्धामात्र ही से दुःखों से तर जाता है।।१२७।।

(समीक्षक) भला! इस से अधिक मूर्खों को अपने मतजाल में फंसाने की दूसरी कौन सी बात होगी? क्योंकि कुछ कर्म करना न पड़े और मुक्ति हो ही जाय ऐसा भूंदू मत कौन सा होगा?

मूल- कइया होही दिवसो, जइया सुगुरूण पायमूलम्मि।
उस्सुत्त लेस विसलव, रहिओ निसुणेसु जिण धम्मं।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १२८।।

संनअर्थ- जो मनुष्य जिनागम अर्थात् जैनों के शास्त्रें को सुनूंगा, उत्सूत्र अर्थात् अन्य मत के ग्रन्थों को कभी न सुनूंगा। इतनी इच्छा करे वह इतनी इच्छामात्र ही से दुःखसागर से तर जाता है।।१२८।।

(समीक्षक) यह भी बात भोले मनुष्यों को फंसाने के लिए है। क्योंकि इस पूर्वोक्त इच्छा से यहां के दुःखसागर से भी नहीं तरता और पूर्वजन्म के भी संचित पापों के दुःखरूपी फल भोगे विना नहीं छूट सकता। जो ऐसी-ऐसी झूठ अर्थात् विद्याविरुद्ध बातें न लिखते तो इन के अविद्यारूप ग्रन्थों को वेदादि शास्त्र देख सुन सत्याऽसत्य जान कर इनके पोकल ग्रन्थों को छोड़ देते। परन्तु ऐसा जकड़ कर इन अविद्वानों को बांधा है कि इस जाल से कोई एक बुद्धिमान् सत्संगी चाहें छूट सके तो सम्भव है परन्तु अन्य जड़बुद्धियों का छूटना तो अति कठिन है।

मूल- जम्हा जेणहि भणियं, सुय ववहारं विसोहियं तस्स ।
जायइ विसुद्ध बोही, जिण आणाराहगत्ताओ।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १३८।।

संनअर्थ- जो जिनाचार्यों ने कहे सूत्र निरुक्ति वृत्ति भाष्यचूर्णी मानते हैं वे ही शुभ व्यवहार और दुःसह व्यवहार के करने से चारित्रयुक्त होकर सुखों को प्राप्त होते हैं; अन्य मत के ग्रन्थ देखने से नहीं।।१३८।।

(समीक्षक) क्या अत्यन्त भूखे मरने आदि कष्ट सहने को चारित्र कहते हैं? जो भूखा, प्यासा मरना आदि ही चारित्र है तो बहुत से मनुष्य अकाल वा जिन को अन्नादि नहीं मिलते भूखे मरते हैं वे शुद्ध हो कर शुभ फलों को प्राप्त होने चाहिये। सो न ये शुद्ध होवें और न तुम किन्तु पित्तादि के प्रकोप से रोगी होकर सुख के बदले दुःख को प्राप्त होते हैं। धर्म तो न्यायाचरण, ब्रह्मचर्य्य, सत्यभाषणादि है और असत्यभाषण अन्यायाचरणादि पाप है और सब से प्रीतिपूर्वक परोपकारार्थ वर्त्तना शुभ चरित्र कहाता है। जैनमतस्थों का भूखा, प्यासा रहना आदि धर्म नहीं। इन सूत्रदि को मानने से थोड़ा सा सत्य और अधिक झूठ को प्राप्त होकर दुःखसागर में डूबते हैं।

मूल- जइ जाणिसि जिण नाहो, लोयायारा विपरकए भूओ।
ता तं तं मन्नंतो, कह मन्नसि लोअ आयारं।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १४८।।

संनअर्थ- जो उत्तम प्रारब्धवान् मनुष्य होते हैं वे ही जिन धर्म का ग्रहण करते हैं अर्थात् जो जिनधर्म्म का ग्रहण नहीं करते उन का प्रारब्ध नष्ट है।।१४८।।

(समीक्षक) क्या यह बात भूल की और झूठ नहीं? क्या अन्य मत में श्रेष्ठ प्रारब्धी और जैन मत में नष्ट प्रारब्धी कोई भी नहीं है? और जो यह कहा कि सधर्मी अर्थात् जैन धर्म वाले आपस में क्लेश न करें किन्तु प्रीतिपूर्वक वर्त्तें। इस से यह बात सिद्ध होती है कि दूसरे के साथ कलह करने में बुराई जैन लोग नहीं मानते होंगे। यह भी इन की बात अयुक्त है क्योंकि सज्जन पुरुष सज्जनों के साथ प्रेम और दुष्टों को शिक्षा देकर सुशिक्षित करते हैं। और जो यह लिखा कि ब्राह्मण, त्रिदण्डी, परिव्राजकाचार्य अर्थात् संन्यासी और तापसादि अर्थात् वैरागी आदि सब जैनमत के शत्रु हैं। अब देखिये कि सब को शत्रुभाव से देखते और निन्दा करते हैं तो जैनियों की दया और क्षमारूप धर्म कहां रहा? क्योंकि जब दूसरे पर द्वेष रखना दया, क्षमा का नाश और इस के समान कोई दूसरा हिसारूप दोष नहीं। जैसे द्वेषमूर्त्तियां जैनी लोग हैं वैसे दूसरे थोड़े ही होंगे। ऋषभदेव से लेके महावीरपर्यन्त २४ तीर्थंकरों को रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी कहें और जैनमत मानने वालों को सन्निपातज्वर में फंसे हुए मानें और उन का धर्म नरक और विष के समान समझें तो जैनियों को कितना बुरा लगेगा? इसलिये जैनी लोग निन्दा और परमतद्वेषरूप नरक में डूब कर महाक्लेश भोग रहे हैं। इस बात को छोड़ दें तो बहुत अच्छा होवे।

मूल- एगो अ गुरु एगो वि सावगो चेइआणि विवहाणि।
तच्छय जं जिणदव्वं, परुप्परं तं न विच्चन्ति।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १५०।।

संनअर्थ- सब श्रावकों का देव गुरु धर्म एक है, चैत्यवन्दन अर्थात् जिन प्रतिबिम्ब मूर्त्तिदेवल और जिन द्रव्य की रक्षा और मूर्त्ति की पूजा करना धर्म है।।१५०।।

(समीक्षक) अब देखो! जितना मूर्त्तिपूजा का झगड़ा चला है वह सब जैनियों के घर से! और पाखण्डों का मूल भी जैनमत है। श्राद्धदिनकृत्य पृष्ठ १ में मूर्त्तिपूजा के प्रमाण-

नवकारेण विवोहो।।१।। अणुसरणं सावउ।।२।। वयाइं इमे।।३।।
जोगो।।४।। चिय वन्दणगो।।५।। पच्चरकाणं तु विहि पुच्छम्।।६।।

इत्यादि श्रावकों को पहले द्वार में नवकार का जप कर जाना।।१।। दूसरा नवकार जपे पीछे मैं श्रावक हूं स्मरण करना।।२।। तीसरे अणुव्रतादिक हमारे कितने हैं।।३।। चौथे द्वारे चार वर्ग में अग्रगामी मोक्ष है उस का कारण ज्ञानादिक है सो योग, उस का सब अतीचार निर्मल करने से छः आवश्यक कारण सो भी उपचार से योग कहाता है सो योग कहेंगे।।४।। पांचवें चैत्यवन्दन अर्थात् मूर्त्ति को नमस्कार द्रव्यभाव पूजा कहेंगे।।५।। छठा प्रत्याख्यान द्वार नवकारसीप्रमुख विधिपूर्वक कहूंगा इत्यादि।।६।। और इसी ग्रन्थ में आगे-आगे बहुत सी विधि लिखी हैं अर्थात् सन्ध्या के भोजन समय में जिनबिम्ब अर्थात् तीर्थंकरों की मूर्त्ति पूजना और द्वार पूजना और द्वार पूजना में बड़े-बड़े बखेड़े हैं। मन्दिर बनाने के नियम, पुराने मन्दिरों को बनवाने और सुधारने से मुक्ति हो जाती है। मन्दिर में इस प्रकार जाकर बैठे। बड़े भाव प्रीति से पूजा करें। “नमो जिनेन्द्रेभ्य:” इत्यादि मन्त्रें से स्नानादि कराना। और “जलचन्दनपुष्पधूपदीपनै” इत्यादि से गन्धादि चढ़ावें। रत्नसार भाग के १२वें पृष्ठ में मूर्त्तिपूजा का फल यह लिखा है कि पुजारी को राजा वा प्रजा कोई भी न रोक सके।

(समीक्षक) ये बातें सब कपोलकल्पित हैं क्योंकि बहुत से जैन पूजारियों को राजादि रोकते हैं। रत्नसार० पृष्ठ १३ में लिखा है- मूर्त्तिपूजा से रोग, पीड़ा और महादोष छूट जाते हैं। एक किसी ने ५ कौड़ी का फूल चढ़ाया। उसने १८ देश का राज पाया। उसका नाम कुमारपाल हुआ था इत्यादि सब बातें झूठी और मूर्खों को लुभाने की हैं क्योंकि अनेक जैनी लोग पूजा करते-करते रोगी रहते हैं और एक बीघे का भी राज्य पाषाणादि मूर्त्तिपूजा से नहीं मिलता! और जो पांच कौड़ी के फूल चढ़ाने से राज मिले तो पांच-पांच कौड़ी के फूल चढ़ा के सब भूगोल का राज क्यों नहीं कर लेते? और राजदण्ड क्यों भोगते हैं? और जो मूर्त्तिपूजा करके भवसागर से तर जाते हो तो ज्ञान सम्यग्दर्शन और चारित्र क्यों करते हो? रत्नसार भाग पृष्ठ १३ में लिखा है कि गोतम के अंगूठे में अमृत और उस के स्मरण से मनोवांछित फल पाता है।

(समीक्षक) जो ऐसा हो तो सब जैनी लोग अमर हो जाने चाहियें सो नहीं होते। इस से यह इन की केवल मूर्खों के बहकाने की बात है, दूसरा इस में कुछ भी तत्त्व नहीं। इन की पूजा करने का श्लोक विवेकसार पृष्ठ ५२ में-

जलचन्दनधूपनैरथदीपाक्षतकैर्निवेद्यवस्त्रै ।
उपचारवरैर्जिनेन्द्रान् रुचिरैरद्य यजामहे।।

हम जल, चन्दन चावल, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र और अतिश्रेष्ठ उपचारों से जिनेन्द्र अर्थात् तीर्थंकरों की पूजा करें।

(समीक्षक) इसी से हम कहते हैं कि मूर्त्तिपूजा जैनियों से चली है। विवेकसार पृष्ठ २१ -जिनमन्दिर में मोह नहीं आता और भवसागर के पार उतारने वाला है। विवेकसार पृष्ठ ५१-५२- मूर्त्तिपूजा से मुक्ति होती है और जिनमन्दिर में जाने से सद्गुण आते हैं। जो जल चन्दनादि से तीर्थंकरों की पूजा करे वह नरक से छूट स्वर्ग को जाय। विवेकसार पृष्ठ ५५-जिनमन्दिर में ऋषभदेवादि की मूर्त्तियों के पूजने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है। विवेकसार पृष्ठ ६१-जिनमूर्नियों की पूजा करें तो सब जगत् के क्लेश छूट जायें।

(समीक्षक) अब देखो इन की अविद्यायुक्त असम्भव बातें! जो इस प्रकार से पापादि बुरे कर्म छूट जायें; मोह न आवे, भवसागर से पार उतर जायें; सद्गुण आ जायें; नरक को छोड़ स्वर्ग में जायें; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होवें और सब क्लेश छूट जायें तो सब जैनी लोग सुखी और सब पदार्थों की सिद्धि को प्राप्त क्यों नहीं होते? इसी विवेकसार के ३ पृष्ठ में लिखा है कि जिन्होंने जिन मूर्त्ति का स्थापन किया है उन्होंने अपनी और अपने कुटुम्ब की जीविका खड़ी की है। विवेकसार पृष्ठ २२५-शिव, विष्णु आदि की मूर्त्तियों की पूजा करनी बहुत बुरी है अर्थात् नरक का साधन है।

(समीक्षक) भला जब शिवादि की मूर्त्तियां नरक के साधन हैं तो जैनियों की मूर्त्तियां क्या वैसी नहीं? जो कहें कि हमारी मूर्त्तियां त्यागी, शान्त और शुभमुद्रायुक्त हैं इसलिये अच्छी और शिवादि की मूर्त्ति वैसी नहीं इसलिये बुरी हैं तो इन से कहना चाहिए कि तुम्हारी मूर्त्तियां तो लाखों रुपयों के मन्दिर में रहती हैं और चन्दन केशरादि चढ़ता है पुनः त्यागी कैसी? और शिवादि की मूर्त्तियां तो विना छाया के भी रहती हैं वे त्यागी क्यों नहीं? और जो शान्त कहो तो जड़ पदार्थ सब निश्चल होने से शान्त हैं। सब मतों की मूर्त्तिपूजा व्यर्थ है।

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Well, when statues of Shivadi are instruments of hell, are statues of Jains not like that? Those who say that our idols are renunciate, peaceful and auspicious, so good and Shivaadi idols are not like that, so they should say that your idols remain in the temple of lakhs of rupees and the sandalwood crown rises again. And the idols of Shivadi remain without even shadow, why are they not abandoned?

 

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