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द्वादश समुल्लास भाग -1

अनुभूमिका (२)

जब आर्य्यावर्त्तस्थ मनुष्यों में सत्याऽसत्य का यथावत् निर्णय करानेवाली वेदविद्या छूटकर अविद्या फैल के मतमतान्तर खड़े हुए, यही जैन आदि के विद्याविरुद्ध मतप्रचार का निमित्त हुआ। क्योंकि वाल्मीकीय और महाभारतादि में जैनियों का नाममात्र भी नहीं लिखा और जैनियों के ग्रन्थों में वाल्मीकीय और भारत में ‘राम’, कृष्णादि’ की गाथा बड़े विस्तारपूर्वक लिखी हैं। इस से यह सिद्ध होता है कि यह मत इनके पीछे चला क्योंकि जैसा अपने मत को बहुत प्राचीन जैनी लोग लिखते हैं वैसा होता तो वाल्मीकीय आदि ग्रन्थों में उनकी कथा अवश्य होती इसलिए जैनमत इन ग्रन्थों के पीछे चला है। कोई कहे कि जैनियों के ग्रन्थों में से कथाओं को लेकर वाल्मीकीय आदि ग्रन्थ बने होंगे तो उन से पूछना चाहिए कि वाल्मीकीय आदि में तुम्हारे ग्रन्थों का नाम लेख भी क्यों नहीं? और तुम्हारे ग्रन्थों में क्यों है? क्या पिता के जन्म का दर्शन पुत्र कर सकता है? कभी नहीं। इस से यही सिद्ध होता है कि जैन बौद्ध मत; शैव शाक्तादि मतों के पीछे चला है। अब इस १२ बारहवें समुल्लास में जो-जो जैनियों के मतविषयक में लिखा गया है सो-सो उनके ग्रन्थों के पते पूवक लिखा है। इस में जैनी लोगों को बुरा न मानना चाहिये क्योंकि जो-जो हम ने इन के मत विषय में लिखा है वह केवल सत्याऽसत्य के निर्णयार्थ है न कि विरोध वा हानि करने के अर्थ। इस लेख को जब जैनी बौद्ध वा अन्य लोग देखेंगे तब सब को सत्याऽसत्य के निर्णय में विचार और लेख करने का समय मिलेगा और बोध भी होगा। जब तक वादी प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेख न किया जाय तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्याऽसत्य का निश्चय नहीं होता तभी अविद्वानों को महा- अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्यजाति का मुख्य काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो। और यह बौद्ध जैन मत का विषय विना इन के अन्य मत वालों को अपूर्व लाभ और बोध कराने वाला होगा क्योंकि ये लोग अपने पुस्तकों को किसी अन्य मत वाले को देखने, पढ़ने वा लिखने को भी नहीं देते। बड़े परिश्रम से मेरे और विशेष आर्य्यसमाज मुम्बई के मन्त्री ‘सेठ सेवकलाल कृष्णदास’ के पुरुषार्थ से ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं। तथा काशीस्थ ‘जैनप्रभाकर’ यन्त्रलय में छपने और मुम्बई में ‘प्रकरणरत्नाकर’ ग्रन्थ के छपने से भी सब लोगों को जैनियों का मत देखना सहज हुआ है। भला यह किन विद्वानों की बात है कि अपने मत के पुस्तक आप ही देखना और दूसरों को न दिखलाना। इसी से विदित होता है कि इन ग्रन्थों के बनाने वालों को प्रथम ही शंका थी कि इन ग्रन्थों में असम्भव बातें हैं। जो दूसरे मत वाले देखेंगे तो खण्डन करेंगे और हमारे मत वाले दूसरों का ग्रन्थ देखेंगे तो इस मत में श्रद्धा न रहेगी। अस्तु जो हो परन्तु बहुत मनुष्य ऐसे हैं जिन को अपने दोष तो नहीं दीखते किन्तु दूसरों के दोष देखने में अति उद्युक्त रहते हैं। यह न्याय की बात नहीं क्योंकि प्रथम अपने दोष देख निकाल के पश्चात् दूसरे के दोषों में दृष्टि देके निकालें। अब इन बौद्ध, जैनियों के मत का विषय सब सज्जनों के सम्मुख धरता हूं। जैसा है वैसा विचारें।

किमधिकलेखेन बुद्धिमद्वर्य्येषु ।

अथ द्वादशसमुल्लासारम्भः

अथ नास्तिकमतान्तर्गतचारवाकबौद्धजैनमतखण्डनमण्डनविषयान् व्याख्यास्यामः

कोई एक बृहस्पति नामा पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को भी नहीं मानता था। उन का मत-

यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचर ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत ।।

कोई मनुष्यादि प्राणी मृत्यु के अगोचर नहीं है अर्थात् सब को मरना है इसलिये जब तक शरीर में जीव रहै तब तक सुख से रहै। जो कोई कहे कि धर्माचरण से कष्ट होता है जो धर्म को छोड़े तो पुनर्जन्म में बड़ा दुःख पावें। उस को ‘चारवाक’ उत्तर देता है कि अरे भोले भाई! जो मरे के पश्चात् शरीर भस्म हो जाता है कि जिस ने खाया पिया है वह पुनः संसार में न आवेगा। इसलिये जैसे हो सके वैसे आनन्द में रहो। लोक में नीति से चलो, ऐश्वर्य्य को बढ़ाओ और उस से इच्छित भोग करो। यही लोक समझो; परलोक कुछ नहीं। देखो! पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इन चार भूतों के परिणाम से यह शरीर बना है। इस में इन के योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने पीने से मद (नशा) उत्पन्न होता है इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ आप ही नष्ट हो जाता है। फिर किस को पाप पुण्य का फल होगा?

तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्।।

इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है क्योंकि मरे पीछे कोई भी जीव प्रत्यक्ष नहीं होता। हम एक प्रत्यक्ष ही को मानते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना अनुमानादि होते ही नहीं। इसलिये मुख्य प्रत्यक्ष के सामने अनुमानादि गौण होने से उस का ग्रहण नहीं करते। सुन्दर स्त्री के आलिंगन से आनन्द का करना पुरुषार्थ का फल है।

(उत्तर) ये पृथिव्यादि भूत जड़ हैं। उन से चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। जैसे अब माता-पिता के संयोग से देह की उत्पत्ति होती है वैसे ही आदि सृष्टि में मनुष्यादि शरीरों की आकृति परमेश्वर कर्त्ता के विना कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है जड़ को नहीं। पदार्थ नष्ट अर्थात् अदृष्ट होते हैं परन्तु अभाव किसी का नहीं होता। इसी प्रकार अदृश्य होने से जीव का भी अभाव न मानना चाहिये। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उस की प्रकटता होती है। जब शरीर को छोड़ देता है तब यह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व था वैसा नहीं हो सकता। यही बात बृहदारण्यक में कही है-

नाहं मोहं ब्रवीमि अनुच्छित्तिधर्मायमात्मेति।।

याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे मैत्रेयि! मैं मोह से बात नहीं करता किन्तु आत्मा अविनाशी है जिस के योग से शरीर चेष्टा करता है। जब जीव शरीर से पृथक् हो जाता है तब शरीर में ज्ञान कुछ भी नहीं रहता। जो देह से पृथक् आत्मा न हो तो जिस के संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है, वह देह से पृथक् है। जैसे आँख सब को देखती है परन्तु अपने को नहीं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष का करने वाला अपने को ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। जैसे अपनी आँख से सब घट पटादि पदार्थ देखता है वैसे आँख को अपने ज्ञान से देखता है। जो द्रष्टा है वह द्रष्टा ही रहता है दृश्य कभी नहीं होता। जैसे विना आधार आधेय, कारण के विना कार्य्य, अवयवी के विना अवयव और कर्त्ता के विना कर्म नहीं रह सकते वैसे कर्त्ता के विना प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? जो सुन्दर स्त्री के साथ समागम करने ही को पुरुषार्थ का फल मानो तो क्षणिक सुख और उस से दुःख भी होता है वह भी पुरुषार्थ ही का फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। जो कहो दुःख के छुड़ाने और सुख के बढ़ाने में यत्न करना चाहिये तो मुक्ति सुख की हानि हो जाती है इसलिए वह पुरुषार्थ का फल नहीं।

(चारवाक) जो दुःख संयुक्त सुख का त्याग करते हैं वे मूर्ख्र हैं। जैसे धान्यार्थी धान्य का ग्रहण और बुस का त्याग करता है वैसे इस संसार में बुद्धिमान् सुख का ग्रहण और दुःख का त्याग करें। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़ के अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर धूर्त कथित वेदोक्त अग्निहोत्रदि कर्म उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिये करते हैं वे अज्ञानी हैं। जो परलोक है ही नहीं तो उसकी आशा करना मूर्खता का काम है। क्योंकि-

अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पति ।।

चारवाकमतप्रचारक ‘बृहस्पति’ कहता है कि अग्निहोत्र, तीन वेद, तीन दण्ड और भस्म का लगाना बुद्धि और पुरुषार्थ रहित पुरुषों ने जीविका बना ली है। किन्तु कांटे लगने आदि से उत्पन्न हुए दुःख का नाम नरक; लोकसिद्ध राजा परमेश्वर और देह का नाश होना मोक्ष अन्य कुछ भी नहीं है।

(उत्तर) विषयरूपी सुखमात्र को पुरुषार्थ का फल मानकर विषय दुःख- निवारणमात्र में कृतकृत्यता और स्वर्ग मानना मूर्खता है। अग्निहोत्रदि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना उस से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है उस को न जानकर वेद ईश्वर और वेदोक्त धर्म की निन्दा करना धूर्तों का काम है। जो त्रिदण्ड और भस्मधारण का खण्डन है सो ठीक है। यदि कण्टकादि से उत्पन्न ही दुःख का नाम नरक हो तो उस से अधिक महारोगादि नरक क्यों नहीं? यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो उस को भी परमेश्वरवत् मानते हो तो तुम्हारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं। शरीर का विच्छेद होना मात्र मोक्ष है तो गदहे, कुत्ते आदि और तुम में क्या भेद रहा। किन्तु आकृति ही मात्र भिन्न रही। 

चारवाक -

अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिल ।
केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात्तदव्यवस्थिति ।।१।।
न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिक ।
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिका ।।२।।
पशुश्चेन्निहत स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति ।
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिस्यते।।३।।
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् ।
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्।।४।।
स्वर्गस्थिता यदा तृपिंत गच्छेयुस्तत्र दानत ।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।।५।।
यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत ।।६।।
यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गत ।
कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुल ।।७।।
ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह ।
मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।।८।।
त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्तनिशाचरा ।
जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वच स्मृतम्।।९।।
अश्वस्यात्र हि शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्त्तितम् ।
भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्यजातं प्रकीर्त्तितम्।।१०।।
मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्।।११।।

चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैन भी जगत् की उत्पत्ति स्वभाव से मानते हैं। जो-जो स्वाभाविक गुण हैं उस-उस से द्रव्य संयुक्त होकर सब पदार्थ बनते हैं। कोई जगत् का कर्त्ता नहीं।।१।।

परन्तु इन में से चारवाक ऐसा मानता है किन्तु परलोक और जीवात्मा बौद्ध, जैन मानते हैं; चारवाक नहीं। शेष इन तीनों का मत कोई-कोई बात छोड़ के एक सा है। न कोई स्वर्ग, न कोई नरक और न कोई परलोक में जाने वाला आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है।।२।।

जो यज्ञ में पशु को मार होम करने से वह स्वर्ग को जाता हो तो यजमान अपने पितादि को मार होम करके स्वर्ग को क्यों नहीं भेजता? ।।३।।

जो मरे हुए जीवों को श्राद्ध और तर्पण तृप्तिकारक होता है तो परदेश में जाने वाले मार्ग में निर्वाहार्थ अन्न, वस्त्र और धनादि को क्यों ले जाते हैं? क्योंकि जैसे मृतक के नाम से अर्पण किया हुआ पदार्थ स्वर्ग में पहुंचता है तो परदेश में जाने वालों के लिये उनके सम्बन्धी भी घर में उन के नाम से अर्पण करके देशान्तर में पहुंचा देवें। जो यह नहीं पहुंचता तो स्वर्ग में वह क्योंकर पहुँच सकता है? ।।४।।

जो मर्त्यलोक में दान करने से स्वर्गवासी तृप्त होते हैं तो नीचे देने से घर के ऊपर स्थित पुरुष तृप्त क्यों नहीं होता? ।।५।।

इसलिये जब तक जीवे तब तक सुख से जीवे। जो घर में पदार्थ न हों तो ऋण लेके आनन्द करे। ऋण देना नहीं पड़ेगा क्योंकि जिस शरीर में जीव ने खाया पिया है उन दोनों का पुनरागमन न होगा फिर किस से कौन मांगेगा और कौन देवेगा।।६।।

जो लोग कहते हैं कि मृत्युसमय जीव शरीर से निकल के परलोक को जाता है; यह बात मिथ्या है क्योंकि जो ऐसा होता तो कुटुम्ब के मोह से बद्ध होकर पुनः घर में क्यों नहीं आ जाता? ।।७।।

इसलिये यह सब ब्राह्मणों ने अपनी जीविका का उपाय किया है। जो दशगात्रदि मृतकक्रिया करते हैं यह सब उनकी जीविका की लीला है।।८।।

वेद के बनानेहारे भांड, धूर्त्त और निशाचर अर्थात् राक्षस ये तीन हैं। ‘जर्फरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।।९।।

देखो धूर्त्तों की रचना! घोड़े के लिंग को स्त्री ग्रहण करे; उस के साथ समागम यजमान की स्त्री से कराना; कन्या से ठट्ठा आदि लिखना धूर्त्तों के विना नहीं हो सकता।।१०।।

और जो मांस का खाना लिखा है वह वेदभाग राक्षस का बनाया है।।११।।

(उत्तर) विना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ स्वयम् आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्त्ता अवश्य होना चाहिए। जो स्वभाव से ही होते हों तो द्वितीय सूर्य, चन्द्र, पृथिवी और नक्षत्रदि लोक आप से आप क्यों नहीं बन जाते हैं।।१।।

स्वर्ग सुख भोग और नरक दुःख भोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता तो सुख दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्यभाषण और परोपकारादि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होंगी? कभी नहीं।।२।।

पशु मार के होम करना वेदादि सत्यशास्त्रें में कहीं नहीं लिखा और मृतकों का श्राद्ध, तर्पण करना कपोलकल्पित है क्योंकि यह वेदादि सत्यशास्त्रें के विरुद्ध होने से भागवतादि पुराणमतवालों का मत है इसलिये इस बात का खण्डन अखण्डनीय है।।३-५।।

जो वस्तु है उस का अभाव कभी नहीं होता। विद्यमान जीव का अभाव नहीं हो सकता। देह भस्म हो जाता है; जीव नहीं। जीव तो दूसरे शरीर में जाता है इसलिये जो कोई ऋणादि कर विराने पदार्थों से इस लोक में भोग कर नहीं देते हैं। वे निश्चय पापी होकर दूसरे जन्म में दुःखरूपी नरक भोगते हैं, इस में कुछ भी सन्देह नहीं।।६।।

देह से निकल कर जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है और उस को पूर्वजन्म तथा कुटुम्बादि का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता इसलिये पुनः कुटुम्ब में नहीं आ सकता।।७।।

हां! ब्राह्मणों ने प्रेतकर्म अपनी जीविकार्थ बना लिया है परन्तु वेदोक्त न होने से खण्डनीय है।।८।।

अब कहिये! जो चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे सुने वा पढे़ होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि वेद भांड धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुषों ने बनाये हैं ऐसा वचन कभी न निकालते। हां! भांड धूर्त्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं। उन की धूर्त्तत्ता है; वेदों की नहीं। परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना, न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा, इसीलिये नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटांग वेदों की निन्दा करने लगे। दुष्ट वाममार्गियों की प्रमाणशून्य कपोलकल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देख कर वेदों से विरोधी हो कर अविद्यारूपी अगाध समुद्र में जा गिरे।।९।।

भला! विचारना चाहिये कि स्त्री से अश्व के लिंग का ग्रहण कराके उस से समागम कराना और यजमान की कन्या से हाँसी ठट्ठा आदि करना सिवाय वाममार्गी लोगों से अन्य मनुष्यों का काम नहीं है। विना इन महापापी वाममार्गियों के भ्रष्ट, वेदार्थ से विपरीत, अशुद्ध व्याख्यान कौन करता? अत्यन्त शोक तो इन चारवाक आदि पर है जो कि विना विचारे वेदों की निन्दा करने पर तत्पर हुए। तनिक तो अपनी बुद्धि से काम लेते। क्या करें विचारे उन में विद्या ही नहीं थी जो सत्यासत्य का विचार कर सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन करते।।१०।।

और जो मांस खाना है यह भी उन्हीं वाममार्गी टीकाकारों की लीला है। इसलिये उन को राक्षस कहना उचित है परन्तु वेदों में कहीं मांस का खाना नहीं लिखा। इसलिये मिथ्या बातों का पाप उन टीकाकारों को और जिन्होंने वेदों के जाने सुने विना मनमानी निन्दा की है; निःसन्देह उन को लगेगा। सच तो यह है कि जिन्होंने वेदों का विरोध किया और करते हैं और करेंगे वे अवश्य अविद्यारूपी अन्धकार में पड़ के सुख के बदले दारुण दुःख जितना पावें उतना ही न्यून है। इसलिये मनुष्यमात्र को वेदानुकूल चलना समुचित है।।११।।

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It should be considered that it is not the work of other human beings than the left-handed people except to get the sex of the horse from the woman, to make her intercourse with him and to make a mockery of the woman of the husband. Without the corrupt, vedartha of these monopoly left-wingers, who would make impure lectures? Much mourning is on these Charvakas etc. who were quick to condemn the Vedic Vichars. Would have worked with your intellect. What to do, there was no knowledge in those who would consider the truth and disprove the truth and disprove the untruth.

 

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