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त्रयोदश समुल्लास भाग -5

७१- और देखो एक कोढ़ी ने आ उसको प्रणाम कर कहा हे प्रभु ! जो आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं।। यीशु ने हाथ बढ़ा उसे छूके कहा मैं तो चाहता हूँ शुद्ध हो जा और उसका कोढ़ तुरन्त शुद्ध हो गया।। - इं० म० प० ८। आ० २। ३।।

(समीक्षक) ये सब बातें भोले मनुष्यों के फंसाने की हैं। क्योंकि जब ईसाई लोग इन विद्या सृष्टिक्रमविरुद्ध बातों को सत्य मानते हैं तो शुक्राचार्य्य, धन्वन्तरि, कश्यप आदि की बातें जो पुराण और भारत में अनेक दैत्यों की मरी हुई सेना को जिला दी। बृहस्पति के पुत्र कच को टुकड़ा-टुकड़ा कर जानवर मच्छियों को खिला दिया, फिर भी शुक्राचार्य्य ने जीता कर दिया। पश्चात् कच को मार कर शुक्राचार्य्य को खिला दिया फिर उसको पेट में जीता कर बाहर निकाला। आप मर गया उसको कच ने जीता किया। कश्यप ऋषि ने मनुष्यसहित वृक्ष को तक्षक से भस्म हुए पीछे पुनः वृक्ष और मनुष्य को जिला दिया। धन्वन्तरि ने लाखों मुर्दे जिलाये। लाखों कोढ़ी आदि रोगियों को चंगा किया। लाखों अन्वमे और बहिरों को आंख और कान दिये इत्यादि कथा को मिथ्या क्यों कहते हैं? जो उक्त बातें मिथ्या हैं तो ईसा की बातें मिथ्या क्यों नहीं? जो दूसरे की बातों को मिथ्या और अपनी झूठी को सच्ची कहते हैं तो हठी क्यों नहीं। इसलिये ईसाइयों की बातें केवल हठ और लड़कों के समान हैं।।७१।।

७२- तब दो भूतग्रस्त मनुष्य कबरस्थान में से निकलते हुए उससे आ मिले। जो यहां लों अतिप्रचण्ड थे कि उस मार्ग से कोई नहीं जा सकता था।। और देखो उन्होंने चिल्ला के कहा हे यीशु ईश्वर पुत्र ! आपको हम से क्या काम, क्या आप समय के आगे हमें पीड़ा देने को यहां आये हैं।। सो भूतों ने उससे विनती कर कहा जो आप हमें निकालते हैं तो सूअरों के झुण्ड में पैठने दीजिये।। उसने उनसे कहा जाओ और वे निकल के सूअरों के झुण्ड में पैठे।। और देखो सूअरों का सारा झुण्ड कड़ाड़े पर से समुद्र में दौड़ गया और पानी में डूब मरा।। - इं० म० प० ८। आ० २८। २९। ३१। ३२।।

(समीक्षक) भला! यहां तनिक विचार करें तो ये बातें सब झूठी हैं, क्योंकि मरा हुआ मनुष्य कबरस्थान से कभी नहीं निकल सकता। वे किसी पर न जाते न संवाद करते हैं। ये सब बातें अज्ञानी लोगों की हैं। जो कि महा जंगली हैं वे ऐसी बातों पर विश्वास लाते हैं। और उन सूअरों की हत्या कराई। सूअरवालों की हानि करने का पाप ईसा को हुआ होगा। और ईसाई लोग ईसा को पाप क्षमा और पवित्र करने वाला मानते हैं तो उन भूतों को पवित्र क्यों न कर सका? और सूअर वालों की हानि क्यों न भर दी? क्या आजकल के सुशिक्षित ईसाई अंग्रेज लोग इन गपोड़ों को भी मानते होंगे? यदि मानते हैं तो भ्रमजाल में पड़े हैं।।७२।।

७३- देखो ! लोग एक अर्धांगी को जो खटोले पर पड़ा था उस पास लाये और यीशु ने उनका विश्वास देख के उस अर्धांगी से कहा हे पुत्र ! ढाढस कर, तेरे पाप क्षमा किये गये हैं।। मैं धर्मियों को नहीं परन्तु पापियों को पश्चात्ताप के लिये बुलाने आया हूँ।। - इं० म० प० ९। आ० २। १३।।

(समीक्षक) यह भी बात वैसी ही असम्भव है जैसी पूर्व लिख आये हैं और जो पाप क्षमा करने की बात है वह केवल भोले लोगों को प्रलोभन देकर फंसाना है। जैसे दूसरे के पिये मद्य, भांग अफीम खाये का नशा दूसरे को नहीं प्राप्त हो सकता वैसे ही किसी का किया हुआ पाप किसी के पास नहीं जाता किन्तु जो करता है वही भोगता है, यही ईश्वर का न्याय है। यदि दूसरे का किया पाप-पुण्य दूसरे को प्राप्त होवे अथवा न्यायावमीश स्वयं ले लेवें वा कर्त्ताओं ही को यथायोग्य फल ईश्वर न देवे तो वह अन्यायकारी हो जावे। देखो ! धर्म ही कल्याणकारक है; ईसा वा अन्य कोई नहीं। और धर्मात्माओं के लिये ईसा की कुछ आवश्यकता भी नहीं और न पापियों के लिये क्योंकि पाप किसी का नहीं छूट सकता।।७३।।

७४- यीशु ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुला के उन्हें अशुद्ध भूतों पर अधिकार दिया कि उन्हें निकालें और हर एक रोग और हर एक व्याधि को चंगा करें।। बोलनेहारे तो तुम नहीं हो परन्तु तुम्हारे पिता का आत्मा तुम में बोलता है।। मत समझो कि मैं पृथिवी पर मिलाप करवाने को नहीं परन्तु खड्ग चलवाने आया हूँ।। मैं मनुष्य को उसके पिता से और बेटी को उसकी मां से और पतोहू को उसकी सास से अलग करने आया हूँ।। मनुष्य के घर ही के लोग उसके वैरी होंगे।। - इं० म० प० १०। आ० १। २०। ३४। ३५। ३६।।

(समीक्षक) ये वे ही शिष्य हैं जिन में से एक ३०) रुपये के लोभ पर ईसा को पकड़ावेगा और अन्य बदल कर अलग-अलग भागेंगे। भला ! ये बातें जब विद्या ही से विरुद्ध हैं कि भूतों का आना वा निकालना, विना ओषधि वा पथ्य के व्याधियों का छूटना सृष्टिक्रम से असम्भव है। इसलिए ऐसी-ऐसी बातों का मानना अज्ञानियों का काम है। यदि जीव बोलनेहारे नहीं, ईश्वर बोलनेहारा है तो जीव क्या काम करते हैं? और सत्य वा मिथ्याभाषण का फल सुख वा दुःख को ईश्वर ही भोगता होगा, यह भी एक मिथ्या बात है। और जैसा ईसा फूट कराने और लड़ाने को आया था वही आज कल कलह लोगों में चल रहा है। यह कैसी बड़ी बुरी बात है कि फूट कराने से सर्वथा मनुष्यों को दुःख होता है और ईसाइयों ने इसी को गुरुमन्त्र समझ लिया होगा। क्योंकि एक दूसरे की फूट ईसा ही अच्छी मानता था तो ये क्यों नहीं मानते होंगे? यह ईसा ही का काम होगा कि घर के लोगों के शत्रु घर के लोगों को बनाना, यह श्रेष्ठ पुरुष का काम नहीं।।७४।।

७५- तब यीशु ने उनसे कहा तुम्हारे पास कितनी रोटियां हैं। उन्होंने कहा सात और छोटी मछलियां।। तब उसने लोगों को भूमि पर बैठने की आज्ञा दी।। और उसने उन सात रोटियों को और मछलियों को धन्य मान के तोड़ा और अपने शिष्यों को दिया और शिष्यों ने लोगों को दिया।। सो सब खा के तृप्त हुए और जो टुकड़े बच रहे उनके सात टोकरे भरे उठाये।। जिन्होंने खाया सो स्त्रियों और बालकों को छोड़ चार सहस्र पुरुष थे।। - इं० म० प० १५। आ० ३४। ३५। ३६। ३७। ३८।।

(समीक्षक) अब देखिये ! क्या यह आजकल के झूठे सिद्धों इन्द्रजाली आदि के समान छल की बात नहीं है? उन रोटियों में अन्य रोटियां कहां से आ गईं? यदि ईसा में ऐसी सिद्धियां होतीं तो आप भूखा हुआ गूलर के फल खाने को क्यों भटका करता था? अपने लिये मिट्टी पानी और पत्थर आदि से मोहनभोग, रोटियां क्यों न बना लीं? ये सब बातें लड़कों के खेलपन की हैं। जैसे कितने ही साधु वैरागी ऐसे छल की बातें करके भोले मनुष्यों को ठगते हैं वैसे ही ये भी हैं।।७५।।

७६- और तब वह हर एक मनुष्य को उसके कार्य्य के अनुसार फल देगा।। - इं० म० प० १६। आ० २७।।

(समीक्षक) जब कर्मानुसार फल दिया जायेगा तो ईसाइयों का पाप क्षमा होने का उपदेश करना व्यर्थ है और वह सच्चा हो तो यह झूठा होवे। यदि कोई कहे कि क्षमा करने के योग्य क्षमा किये जाते और क्षमा न करने के योग्य क्षमा नहीं किये जाते हैं यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सब कर्मों के फल यथायोग्य देने ही से न्याय और पूरी दया होती है।।७६।।

७७- हे अविश्वासी और हठीले लोगो।। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ यदि तुमको राई के एक दाने के तुल्य विश्वास होय तो तुम इस पहाड़ से जो कहोगे कि यहाँ से वहां चला जा, वह जायेगा और कोई काम तुम से असाध्य नहीं होगा।। - इं० म० प० १७। आ० १७। २०।।

(समीक्षक) अब जो ईसाई लोग उपदेश करते फिरते हैं कि ‘आओ हमारे मत में क्षमा कराओ मुक्ति पाओ’ आदि, वह सब मिथ्या है। क्योंकि जो ईसा में पाप छुड़ाने विश्वास जमाने और पवित्र करने का सामर्थ्य होता तो अपने शिष्यों के आत्माओं को निष्पाप, विश्वासी, पवित्र क्यों न कर देता? जो ईसा के साथ-साथ घूमते थे जब उन्हीं को शुद्ध, विश्वासी और कल्याण न कर सका तो वह मरे पर न जाने कहां है? इस समय किसी को पवित्र नहीं कर सकेगा। जब ईसा के चेले राई भर विश्वास से रहित थे और उन्हीं ने यह इञ्जील पुस्तक बनाई है तब इसका प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि जो अविश्वासी, अपवित्रत्मा, अधर्मी मनुष्यों का लेख होता है उस पर विश्वास करना कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य का काम नहीं। और इसी से यह भी सिद्ध हो सकता है कि जो ईसा का यह वचन सच्चा है तो किसी ईसाई में एक राई के दाने के समान विश्वास अर्थात् ईमान नहीं है जो कोई कहे कि हम में पूरा वा थोड़ा विश्वास है तो उससे कहना कि आप इस पहाड़ को मार्ग में से हटा देवें। यदि उनके हटाने से हट जाये तो भी पूरा विश्वास नहीं किन्तु एक राई के दाने के बराबर है और जो न हटा सके तो समझो एक छींटा भी विश्वास, ईमान अर्थात् धर्म का ईसाइयों में नहीं है। यदि कोई कहे कि यहां अभिमान आदि दोषों का नाम पहाड़ है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जो ऐसा हो तो मुर्दे, अन्धे, कोढ़ी, भूतग्रस्तों को चंगा करना भी आलसी, अज्ञानी, विषयी और भ्रान्तों को बोध करके सचेत कुशल किया होगा। जो ऐसा मानें तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जो ऐसा होता तो स्वशिष्यों को ऐसा क्यों न कर सकता? इसलिए असम्भव बात कहना ईसा की अज्ञानता का प्रकाश करता है। भला ! जो कुछ भी ईसा में विद्या होती तो ऐसी अटाटूट जंगलीपन की बात क्यों कह देता? तथापि ‘यत्र देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते।’ जिस देश में कोई भी वृक्ष न हो तो उस देश में एरण्ड का वृक्ष ही सब से बड़ा और अच्छा गिना जाता है वैसे महाजंगली देश में ईसा का भी होना ठीक था। पर आजकल ईसा की क्या गणना हो सकती है।।७७।।

७८- मैं तुम्हें सच कहता हूँ जो तुम मन न फिराओ और बालकों के समान न हो जाओ तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने न पाओगे।। - इं० म० प० १८। आ० ३।।

(समीक्षक) जब अपनी ही इच्छा से मन का फिराना स्वर्ग का कारण और न फिराना नरक का कारण है तो कोई किसी का पाप पुण्य कभी नहीं ले सकता ऐसा सिद्ध होता है। और बालक के समान होने के लेख से विदित होता है कि ईसा की बातें विद्या और सृष्टिक्रम से बहुत सी विरुद्ध थीं। और यह भी उसके मन में था कि लोग मेरी बातों को बालक के समान मान लें। पूछें गाछें कुछ भी नहीं, आंख मीच के मान लेवें। बहुत से ईसाइयों की बालबुद्धिवत् चेष्टा है। नहीं तो ऐसी युक्ति, विद्या से विरुद्ध बातें क्यों मानते? और यह भी सिद्ध हुआ जो ईसा आप विद्याहीन बालबुद्धि न होता तो अन्य को बालवत् बनने का उपदेश क्यों करता? क्योंकि जो जैसा होता है वह दूसरे को भी अपने सदृश बनाना चाहता ही है।।७८।।

७९- मैं तुम से सच कहता हूँ, धनवान् को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कठिन होगा।। फिर भी मैं तुम से कहता हूं कि ईश्वर के राज्य में धनवान् के प्रवेश करने से ऊँट का सूई के नाके में से जाना सहज है।। - इं० म० प० १९। आ० २३। २४।।

(समीक्षक) इससे यह सिद्ध होता है कि ईसा दरिद्र था। धनवान् लोग उस की प्रतिष्ठा नहीं करते होंगे, इसलिये यह लिखा होगा। परन्तु यह बात सच नहीं क्योंकि धनाढ्यों और दरिद्रों में अच्छे बुरे होते हैं। जो कोई अच्छा काम करे वह अच्छा और बुरा करे वह बुरा फल पाता है। और इससे यह भी सिद्ध होता है कि ईसा ईश्वर का राज्य किसी एक देश में मानता था; सर्वत्र नहीं। जब ऐसा हो तो वह ईश्वर ही नहीं, जो ईश्वर है उसका राज्य सर्वत्र है। पुनः उसमें प्रवेश करेगा वा न करेगा यह कहना केवल अविद्या की बात है। और इससे यह भी आया कि जितने ईसाई धनाढ्य हैं क्या वे सब नरक ही में जायेंगे? और दरिद्र सब स्वर्ग में जायेंगे? भला तनिक सा विचार तो ईसामसीह करते कि जितनी सामग्री धनाढ्यों के पास होती है उतनी दरिद्रों के पास नहीं। यदि धनाढ्य लोग विवेक से धर्ममार्ग में व्यय करें तो दरिद्र नीच गति में पड़े रहें और धनाढ्य उत्तम गति को प्राप्त हो सकते हैं।।७९।।

८०- यीशु ने उनसे कहा मैं तुम से सच कहता हूँ कि नई सृष्टि में जब मनुष्य का पुत्र अपने ऐश्वर्य के सिहासन पर बैठेगा तब तुम भी जो मेरे पीछे हो लिये हो; बारह सिहासनों पर बैठ के इस्राएल के बारह कुलों का न्याय करोगे।। जिस किसी ने मेरे नाम के लिये घरों वा भाइयों वा बहिनों वा पिता वा माता वा स्त्री वा लड़कों वा भूमि को त्यागा है सो सौ गुणा पावेगा और अनन्त जीवन का अधिकारी होगा।। - इं० म० प० १९। आ० २८। २९।।

(समीक्षक) अब देखिये ईसा के भीतर की लीला! मेरे जाल से मरे पीछे भी लोग न निकल जायें और जिसने ३०) रुपये के लोभ से अपने गुरु को पकड़ा, मरवाया वैसे पापी भी इसके पास सिहासन पर बैठेंगे और इस्राएल के कुल का पक्षपात से न्याय ही न किया जायेगा किन्तु उनके सब गुनाह माफ और अन्य कुलों का न्याय करेंगे। अनुमान होता है इसी से ईसाई लोग ईसाइयों का बहुत पक्षपात कर किसी गोरे ने काले को मार दिया हो तो भी बहुधा पक्षपात से निरपराधी कर छोड़ देते हैं। ऐसा ही ईसा के स्वर्ग का भी न्याय होगा और इससे बड़ा दोष आता है क्योंकि एक सृष्टि की आदि में मरा और एक ‘कयामत’ की रात के निकट मरा। एक तो आदि से अन्त तक आशा ही में पड़ा रहा कि कब न्याय होगा ? और दूसरे का उसी समय न्याय हो गया। यह कितना बड़ा अन्याय है और जो नरक में जायगा सो अनन्त काल तक नरक भोगे और जो स्वर्ग में जायेगा वह सदा स्वर्ग भोगेगा यह भी बड़ा अन्याय है। क्योंकि अन्त वाले साधन और कर्मों का फल भी अन्त वाला होना चाहिये। और तुल्य पाप व पुण्य दो जीवों का भी नहीं हो सकता। इसीलिये तारतम्य से अधिक न्यून सुख दुःख वाले अनेक स्वर्ग और नरक हों तभी सुख दुःख भोग सकते हैं। सो ईसाइयों के पुस्तक में कहीं व्यवस्था नहीं। इसलिये यह पुस्तक ईश्वरकृत वा ईसा ईश्वर का बेटा कभी नहीं हो सकता। यह बड़े अनर्थ की बात है कि कदापि किसी के मां बाप सौ सौ नहीं हो सकते किन्तु एक की एक मां और एक ही बाप होता है। अनुमान है कि मुसलमानों ने एक को ७२ स्त्रियाँ बहिश्त में मिलती हैं; लिखा है।।८०।।

८१- भोर को जब वह नगर को फिर जाता था तब उसको भूख लगी।। और मार्ग में एक गूलर का वृक्ष देख के वह उस के पास आया परन्तु उस में और कुछ न पाया केवल पत्ते। और उसको कहा तुझ में फिर कभी फल न लगेंगे। इस पर गूलर का पेड़ तुरन्त सूख गया।। - इं० म० प० २१। आ० १८। १९।।

(समीक्षक) सब पादरी लोग ईसाई कहते हैं कि वह बड़ा शान्त क्षमान्वित और क्रोधादि दोषरहित था। परन्तु इस बात को देख क्रोधी, ऋतु का ज्ञानरहित ईसा था और वह जंगली मनुष्यपन के स्वभावयुक्त वर्त्तता था। भला ! जो वृक्ष जड़ पदार्थ है। उसका क्या अपराध था कि उसको शाप दिया और वह सूख गया। उसके शाप से तो न सूखा होगा किन्तु कोई ऐसी औषधि डालने से सूख गया हो तो आश्चर्य नहीं।।८१।।

८२- उन दिनों के क्लेश के पीछे तुरन्त सूर्य अन्धियारा हो जायगा और चांद अपनी ज्योति न देगा! तारे आकाश से गिर पङेंगे और आकाश की सेना डिग जायेगी।। - इं० म० प० २४। आ० २९।।

(समीक्षक) वाह जी ईसा! तारों को किस विद्या से गिर पड़ना आपने जाना और आकाश की सेना कौन सी है जो डिग जायेगी? जो कभी ईसा थोड़ी भी विद्या पढ़ता तो अवश्य जान लेता कि ये तारे सब भूगोल हैं क्योंकर गिरेंगे। इससे विदित होता है कि ईसा बढ़ई के कुल में उत्पन्न हुआ था। सदा लकड़े चीरना, छीलना, काटना और जोड़ना करता रहा होगा। जब तरंग उठी कि मैं भी इस जंगली देश में पैगम्बर हो सकूंगा; बातें करने लगा। कितनी बातें उस के मुख से अच्छी भी निकलीं और बहुत सी बुरी। वहां के लोग जंगली थे; मान बैठे। जैसा आज कल यूरोप देश उन्नति युक्त है वैसा पूर्व होता तो ईसा की सिद्धाई कुछ भी न चलती। अब कुछ विद्या हुए पश्चात् भी व्यवहार के पेच और हठ से इस पोल मत को न छोड़ कर सर्वथा सत्य वेदमार्ग की ओर नहीं झुकते; यही इनमें न्यूनता है।।८२।।

८३- आकाश और पृथिवी टल जायेंगे परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।। - इं० म० प० २४। आ० ३५।।

(समीक्षक) यह भी बात अविद्या और मूर्खता की है। भला ! आकाश हिल कर कहाँ जायगा? जब आकाश अति सूक्ष्म होने से नेत्र से दीखता ही नहीं तो इसका हिलना कौन देख सकता है? और अपने मुख से अपनी बड़ाई करना अच्छे मनुष्यों का काम नहीं।।८३।।

८४- तब वह उनसे जो बाईं ओर हैं कहेगा हे स्रापित लोगो ! मेरे पास से उस अनन्त आग में जाओ जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है।। - इं० म० प० २५। आ० ४१।।

(समीक्षक) भला यह कितनी बड़ी पक्षपात की बात है! जो अपने शिष्य हैं उनको स्वर्ग और जो दूसरे हैं उनको अनन्त आग में गिराना। परन्तु जब आकाश ही न रहेगा लिखा तो अनन्त आग नरक बहिश्त कहाँ रहेगी? जो शैतान और उसके दूतों को ईश्वर न बनाता तो इतनी नरक की तैयारी क्यों करनी पड़ती? और एक शैतान ही ईश्वर के भय से न डरा तो वह ईश्वर ही क्या है? क्योंकि उसी का दूत होकर बागी हो गया और ईश्वर उसको प्रथम ही पकड़ कर बन्दीगृह में न डाल सका, न मार सका, पुनः उसकी ईश्वरता क्या? जिसने ईसा को भी चालीस दिन दुःख दिया। ईसा भी उसका कुछ न कर सका तो ईश्वर का बेटा होना व्यर्थ हुआ। इसलिये ईसा ईश्वर का न बेटा और न बाइबल का ईश्वर, ईश्वर हो सकता है।।८४।।

८५- तब बारह शिष्यों में से एक यिहूदा इस्करियोती नाम एक शिष्य प्रधान याजकों के पास गया।। और कहा जो मैं यीशु को आप लोगों के हाथ पकड़वाऊं तो आप लोग मुझे क्या देंगे ? उन्होंने उसे तीस रुपये देने को ठहराया।। - इं० म० प० २६।। आ० १४। १५।।

(समीक्षक) अब देखिये! ईसा की सब करामात और ईश्वरता यहां खुल गई। क्योंकि जो उसका प्रधान शिष्य था वह भी उसके साक्षात् संग से पवित्रत्मा न हुआ तो औरों को वह मरे पीछे पवित्रत्मा क्या कर सकेगा ? और उसके विश्वासी लोग उसके भरोसे में कितने ठगाये जाते हैं क्योंकि जिसने साक्षात् सम्बन्ध में शिष्य का कुछ कल्याण न किया वह मरे पीछे किसी का कल्याण क्या कर सकेगा।।८५।।

८६- जब वे खाते थे तब यीशु ने रोटी लेके धन्यवाद किया और उसे तोड़ के शिष्यों को दिया और कहा लेओ खाओ यह मेरा देह है।। और उसने कटोरा ले के धन्य माना और उनको देके कहा तुम इससे पीओ।। क्योंकि यह मेरा लोहू अर्थात् नये नियम का लोहू है।। - इं० म० प० २६। आ० २६। २७। २८।।

(समीक्षक) भला यह ऐसी बात कोई भी सभ्य करेगा? विना अविद्वान् जंगली मनुष्य के, शिष्यों से खाने की चीज को अपने मांस और पीने की चीजों को लोहू नहीं कह सकता। और इसी बात को आजकल के ईसाई लोग प्रभु-भोजन कहते हैं अर्थात् खाने पीने की चीजों में ईसा के मांस और लोहू की भावना कर खाते पीते हैं; यह कितनी बुरी बात है? जिन्होंने अपने गुरु के मांस लोहू को भी खाने पीने की भावना से न छोड़ा तो और को कैसे छोड़ सकते हैं? ।।८६।।

८७- और वह पितर को और जबदी के दोनों पुत्रें को अपने संग ले गया और शोक करने और बहुत उदास होने लगा।। तब उसने उनसे कहा, मेरा मन यहां लों अति उदास है कि मैं मरने पर हूँ।। और थोड़ा आगे बढ़ के वह मुंह के बल गिरा और प्रार्थना की, हे मेरे पिता ! जो हो सके तो यह कटोरा मेरे पास से टल जाय।। - इं० म० प० २६। आ० ३७। ३८। ३९।।

(समीक्षक) देखो ! जो वह केवल मनुष्य न होता, ईश्वर का बेटा और त्रिकालदर्शी और विद्वान् होता तो ऐसी अयोग्य चेष्टा न करता। इससे स्पष्ट विदित होता है कि यह प्रपञ्च ईसा ने अथवा उसके चेलों ने झूठमूठ बनाया है कि ईश्वर का बेटा भूत भविष्यत् का वेत्ता और पाप क्षमा का कर्त्ता है। इससे समझना चाहिये यह केवल साधारण सूधा सच्चा अविद्वान् था, न विद्वान्, न योगी, न सिद्ध था।।८७।।

८८- वह बोलता ही था कि देखो यिहूदा जो बाहर शिष्यों में से एक था; आ पहुंचा। और लोगों के प्रधान याजकों और प्राचीनों की ओर से बहुत लोग खड्ग और लाठियां लिये उसके संग।। यीशु के पकड़वानेहारे ने उन्हें यह पता दिया था जिसको मैं चूमूं उसको पकड़ो।। और वह तुरन्त यीशु पास आ बोला, हे गुरु ! प्रणाम और उसको चूमा।। तब उन्होंने यीशु पर हाथ डाल के उसे पकड़ा।। तब सब शिष्य उसे छोड़ के भागे।। अन्त में दो झूठ साक्षी आके बोले, इसने कहा कि मैं ईश्वर का मन्दिर ढहा सकता हूँ और तीन दिन में फिर बना सकता हूं।। तब महायाजक ने खड़ा हो यीशु से कहा तू कुछ उत्तर नहीं देता है ये लोग तेरे विरुद्ध क्या साक्षी देते हैं।। परन्तु यीशु चुप रहा इस पर महायाजक ने उससे कहा मैं तुझे जीवते ईश्वर की क्रिया देता हूँ। हम से कह तू ईश्वर का पुत्र ख्रीष्ट है कि नहीं।। यीशु उससे बोला तू तो कह चुका।। तब महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़ के कहा यह ईश्वर की निन्दा कर चुका है अब हमें साक्षियों का और क्या प्रयोजन? देखो तुमने अभी उसके मुख से ईश्वर की निन्दा सुनी है।। तुम क्या विचार करते हो? तब उन्होंने उत्तर दिया वह वध के योग्य है।। तब उन्होंने उसके मुंह पर थूंका और उसे घूंसे मारे। औरों ने थपेड़े मार के कहा-हे ख्रीष्ट ! हमसे भविष्यद्वाणी बोल किसने तुझे मारा।। पितर बाहर अंगने में बैठा था और एक दासी उसके पास आके बोली तू भी यीशु गालीली के संग था।। उसने सबों के सामने मुकर के कहा मैं नहीं जानता तू क्या कहती है।। जब वह बाहर डेवढ़ी में गया तो दूसरी दासी ने उसे देख के जो लोग वहां थे उनसे कहा यह भी यीशु नासरी के संग था।। उसने क्रिया खाके फिर मुकरा कि मैं उस मनुष्य को नहीं जानता हूँ।। तब वह धिक्कार देने और क्रिया खाने लगा कि मैं उस मनुष्य को नहीं जानता हूँ।। - इं० म० प० २६। आ० ४७। ४८। ४९। ५०। ६१। ६२। ६३। ६४। ६५। ६६। ६७। ६८। ६९। ७०। ७१। ७२। ७४।।

(समीक्षक) अब देख लीजिये कि जिसका इतना भी सामर्थ्य वा प्रताप नहीं था कि अपने चेले का भी दृढ़ विश्वास करा सके। और वे चेले चाहे प्राण भी क्यों न जाते तो भी अपने गुरु को लोभ से न पकड़ाते, न मुकरते, न मिथ्याभाषण करते, न झूठी क्रिया खाते। और ईसा भी कुछ करामाती नहीं था, जैसा तौरेत में लिखा है कि-लूत के घर पर पाहुनों को बहुत से मारने को चढ़ आये थे। वहां ईश्वर के दो दूत थे उन्होंने उन्हीं को अन्धा कर दिया। यद्यपि वह भी बात असम्भव है तथापि ईसा में तो इतना भी सामर्थ्य न था और आज कल कितना भड़वा उसके नाम पर ईसाइयों ने बढ़ा रक्खा है। भला ! ऐसी दुर्दशा से मरने से आप स्वयं जूझ वा समाधि चढ़ा अथवा किसी प्रकार से प्राण छोड़ता तो अच्छा था परन्तु वह बुद्धि विना विद्या के कहां से उपस्थित हो? वह ईसा यह भी कहता है कि-।।८८।।

८९- मैं अभी अपने पिता से विनती नहीं करता हूँ और वह मेरे पास स्वर्गदूतों की बारह सेनाओं से अधिक पहुँचा न देगा? - इं० म० प० २६। आ० ५३।।

(समीक्षक) धमकाता जाता, अपनी और अपने पिता की बड़ाई भी करता जाता पर कुछ भी नहीं कर सकता। देखो आश्चर्य की बात ! जब महायाजक ने पूछा था कि ये लोग तेरे विरुद्ध साक्षी देते हैं इसका उत्तर दे तो ईसा चुप रहा। यह भी ईसा ने अच्छा न किया क्योंकि जो सच था वह वहां अवश्य कह देता तो भी अच्छा होता। ऐसी बहुत सी अपने घमण्ड की बातें करनी उचित न थीं और जिन्होंने ईसा पर झूठा दोष लगाकर मारा उनको भी उचित न था। क्योंकि ईसा का उस प्रकार का अपराध नहीं था जैसा उसके विषय में उन्होंने किया। परन्तु वे भी तो जंगली थे। न्याय की बातों को क्या समझें? यदि ईसा झूठ-मूठ ईश्वर का बेटा न बनता और वे उसके साथ ऐसी बुराई न वर्त्तते तो दोनों के लिये उत्तम काम था। परन्तु इतनी विद्या, धर्म्मात्मता और न्यायशीलता कहां से लावें? ।।८९।।

९०- यीशु अध्यक्ष के आगे खड़ा हुआ और अध्यक्ष ने उससे पूछा क्या तू यहूदियों का राजा है? यीशु ने उनसे कहा आप ही तो कहते हैं।। जब प्रधान याजक और प्राचीन लोग उस पर दोष लगाते थे तब उसने कुछ उत्तर नहीं दिया।। तब पिलात ने उससे कहा क्या तू नहीं सुनता कि ये लोग तेरे विरुद्ध कितनी साक्षी देते हैं।। परन्तु उसने एक बात का भी उसको उत्तर न दिया। यहां लों कि अध्यक्ष ने बहुत अचम्भा किया।। पिलात ने उनसे कहा तो मैं यीशु से जो ख्रीष्ट कहावता है क्या करूं।। सभों ने उससे कहा वह क्रूश पर चढ़ाया जावे।। और यीशु को कोड़े मार के क्रूश पर चढ़ाया जाने को सौंप दिया।। तब अध्यक्ष के योद्धाओं ने यीशु को भवन में ले जा के सारी पलटन उस पास इकट्ठी की।। और उन्होंने उसका वस्त्र उतार के उसे लाल बाना पहिराया।। और कांटों का मुकुट गूँथ के उसके शिर पर रक्खा और उसके दाहिने हाथ में नर्कट दिया।। और उसके आगे घुटने टेक के यह कह के उससे ठट्ठा किया हे यहूदियों के राजा प्रणाम।। और उन्होंने उस पर थूका और उस नर्कट को ले उसके शिर पर मारा।। जब वे उससे ठट्ठा कर चुके तब उससे वह बागा उतार के उसी का वस्त्र पहिरा के उसे क्रूश पर चढ़ाने को ले गये।। जब वे एक स्थान पर जो गलगथा था अर्थात् खोपड़ी का स्थान कहाता है; पहुँचे।। तब उन्होंने सिरके में पित्त मिला के उसे पीने को दिया परन्तु उसने चीख के पीना न चाहा।। तब उन्होंने उसको क्रूश पर चढ़ाया।। और उन्होंने उसका दोषपत्र उसके शिर के ऊपर लगाया।। तब दो डाकू एक दाहिनी ओर और दूसरा बाईं ओर उसके संग क्रूशों पर चढ़ाये गये।। जो लोग उधर से आते जाते थे उन्होंने अपने शिर हिला के और यह कह के उसकी निन्दा की।। हे मन्दिर के ढहानेहारे अपने को बचा, जो तू ईश्वर का पुत्र है तो क्रूश पर से उतर आ।। इसी रीति से प्रधान याजकों ने भी अध्यापकों और प्राचीनों के संगियों ने ठट्ठा कर कहा।। उसने औरों को बचाया अपने को बचा नहीं सकता है, जो वह इस्राएल का राजा है तो क्रूश पर से अब उतर आवे और हम उसका विश्वास करेंगे।। वह ईश्वर पर भरोसा रखता है, यदि ईश्वर उसे चाहता है तो उसको बचावे क्योंकि उसने कहा मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।। जो डाकू उसके संग चढ़ाये गये उन्होंने भी इसी रीति से उसकी निन्दा की।। दो प्रहर से तीसरे प्रहर लों सारे देश में अन्धकार हो गया।। तीसरे प्रहर के निकट यीशु ने बड़े शब्द से पुकार के कहा ‘एली एली लामा सबक्तनी’ अर्थात् हे मेरे ईश्वर! हे मेरे ईश्वर! तूने क्यों मुझे त्यागा है।। जो लोग वहां खडे़ थे उनमें से कितनों ने यह सुनके कहा, वह एलीयाह को बुलाता है।। उनमें से एक ने तुरन्त दौड़ के इस्पंज लेके सिरके में भिगोया और नल पर रख के उसे पीने को दिया।। तब यीशु ने फिर बडे़ शब्द से पुकार के प्राण त्यागा।। - इं० म० प० २७। आ० ११। १२। १३। १४। २२। २३। २४। २६। २७। २८।२९। ३०। ३१। ३३। ३४। ३५। ३७। ३८। ३८। ३९। ४०। ४१। ४२। ४३। ४४। ४५। ४६। ४७। ४८। ५०।।

(समीक्षक) सर्वथा यीशु के साथ उन दुष्टों ने बुरा काम किया। परन्तु यीशु का भी दोष है। क्योंकि ईश्वर का न कोई पुत्र न वह किसी का बाप है। क्योंकि वह किसी का बाप होवे तो किसी का श्वसुर, श्याला सम्बन्धी आदि भी होवे। और जब अध्यक्ष ने पूछा था तब जैसा सच था; उत्तर देना था। और यह ठीक है कि जो-जो आश्चर्य-कर्म्म प्रथम किये हुए सच्चे होते तो अब भी क्रूश पर से उतर कर सब को अपने शिष्य बना लेता। और जो वह ईश्वर का पुत्र होता तो ईश्वर भी उसको बचा लेता। जो वह त्रिकालदर्शी होता तो सिर्के में पित्त मिले हुए को चीख के क्यों छोड़ता। वह पहले ही से जानता होता। और जो वह करामाती होता तो पुकार-पुकार के प्राण क्यों त्यागता? इससे जानना चाहिये कि चाहे कोई कितनी भी चतुराई करे परन्तु अन्त में सच-सच और झूठ-झूठ हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि यीशु एक उस समय के जंगली मनुष्यों में से कुछ अच्छा था। न वह करामाती, न वह ईश्वर का पुत्र और न विद्वान् था। क्योंकि जो ऐसा होता तो ऐसा वह दुःख क्यों भोगता? ।।९०।।

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With which knowledge have you seen the stars fall, and what is the army of the sky that will fall? If Jesus ever read a little bit of knowledge, then surely he would know that all these stars are geography. It is known that Jesus was born in the carpenter's family. Always have been ripping wood, peeling, cutting and joining. When the wave arose that I too would be a prophet in this wild country; Started talking How many things came out of his mouth and many were bad. The people there were wild; Say it.

 

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