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सप्तम समुल्लास भाग -5

(प्रश्न) जीव शरीर में भिन्न विभु है वा परिच्छिन्न?

(उत्तर) परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है। इसीलिये जीव और परमेश्वर का व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है।

(प्रश्न) जिस जगह में एक वस्तु होती है उस जगह में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती। इसीलिये जीव और ईश्वर का संयोग सम्बन्ध हो सकता है व्याप्य व्यापक नहीं।

(उत्तर) यह नियम समान आकारवाले पदार्थों में घट सकता है असमानाकृति में नहीं। जैसे लोहा स्थूल, अग्नि सूक्ष्म होता है, इस कारण से लोहे में विद्युत्, अग्नि व्यापक होकर एक ही अवकाश में दोनों रहते हैं, वैसे जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है। जैसे यह व्याप्य व्यापक सम्बन्ध जीव ईश्वर का है वैसा ही सेव्य सेवक, आधाराधेय, स्वामी भृत्य, राजा प्रजा और पिता पुत्र आदि भी सम्बन्ध हैं।

(प्रश्न) ब्रह्म और जीव जुदे हैं वा एक?

(उत्तर) अलग-अलग हैं।

(प्रश्न) जो पृथक्-पृथक् हैं तो- प्रज्ञानं ब्रह्म।।१।। अहं ब्रह्मास्मि।।२।। तत्त्वमसि।।३।। अयमात्मा ब्रह्म।।४।।

वेदों के इन महावाक्यों का अर्थ क्या है?

(उत्तर) ये वेदवाक्य ही नहीं हैं किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं और इन का नाम महावाक्य कहीं सत्य शास्त्रें में नहीं लिखा। अर्थात् ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान- स्वरूप है। (अहम्) मैं (ब्रह्म) अर्थात् ब्रह्मस्थ (अस्मि) हूं। यहां तात्स्थ्योपाधि है; जैसे ‘मञ्चाः क्रोशन्ति’ मचान पुकारते हैं। मचान जड़ हैं, उनमें पुकारने का सामर्थ्य नहीं, इसलिये मञ्चस्थ मनुष्य पुकारते हैं। इसी प्रकार यहां भी जानना। कोई कहै कि ब्रह्मस्थ सब पदार्थ हैं; पुनः जीव को ब्रह्मस्थ कहने में क्या विशेष है? इस का उत्तर यह है कि सब पदार्थ ब्रह्मस्थ हैं परन्तु जैसा साधर्म्ययुक्त निकटस्थ जीव है वैसा अन्य नहीं। और जीव को ब्रह्म का ज्ञान और मुक्ति में वह ब्रह्म के साक्षात्सम्बन्ध में रहता है। इसलिये जीव को ब्रह्म के साथ तात्स्थ्य वा तत्सहचरितोपाधि अर्थात् ब्रह्म का सहचारी जीव है। इस से जीव और ब्रह्म एक नहीं। जैसे कोई किसी से कहै कि मैं और यह एक हैं अर्थात् अविरोधी हैं। वैसे जो जीव समाधिस्थ परमेश्वर में प्रेमबद्ध होकर निमग्न होता है वह कह सकता है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी एक अवकाशस्थ हैं। जो जीव परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव करता है वही साधर्म्य से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है।

(प्रश्न) अच्छा तो इस का अर्थ कैसा करोगे? (तत्) ब्रह्म (त्वं) तू जीव (असि) है। हे जीव! (त्वम्) तू (तत्) वह ब्रह्म (असि) है।

(उत्तर) तुम ‘तत्’ शब्द से क्या लेते हो?

‘ब्रह्म’।

ब्रह्मपद की अनुवृत्ति कहां से लाये?

‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।’ इस पूर्व वाक्य से।

तुम ने इस छान्दोग्य उपनिषत् का दर्शन भी नहीं किया। जो वह देखी होती तो वहां ब्रह्म शब्द का पाठ ही नहीं है। ऐसा झूठ क्यों कहते ? किन्तु छान्दोग्य में तो-

‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्।’

ऐसा पाठ है। वहां ब्रह्म शब्द नहीं।

(प्रश्न) तो आप तच्छब्द से क्या लेते हैं?

(उत्तर) स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदँ् सर्वं तत्सत्यँ् स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति।। -छान्दोन।।

वह परमात्मा जानने योग्य है जो यह अत्यन्त सूक्ष्म इस सब जगत् और जीव का आत्मा है। वही सत्यस्वरूप और अपना आत्मा आप ही है। हे श्वेतकेतो प्रियपुत्र ! तदात्मकस्तदन्तर्यामी त्वमसि। उस परमात्मा अन्तर्यामी से तू युक्त है। यही अर्थ उपनिषदों से अविरुद्ध है। क्योंकि-

य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्।
आत्मनोऽन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः।
 
-यह बृहदारण्यक का वचन है।

महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी स्त्री मैत्रेयी से कहते हैं कि हे मैत्रेयि! जो परमेश्वर आत्मा अर्थात् जीव में स्थित और जीवात्मा से भिन्न है; जिस को मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मेरे में व्यापक है; जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर अर्थात् जैसे शरीर में जीव रहता है वैसे ही जीव में परमेश्वर व्यापक है । जीवात्मा से भिन्न रहकर जीव के पाप पुण्यों का साक्षी होकर उन के फल जीवों को देकर नियम में रखता है वही अविनाशीस्वरूप तेरा भी अन्तर्यामी आत्मा अर्थात् तेरे भीतर व्यापक है; उस को तू जान। क्या कोई इत्यादि वचनों का अन्यथा अर्थ कर सकता है ?

‘अयमात्मा ब्रह्म’ अर्थात् समाधिदशा में जब योगी को परमेश्वर प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि यह जो मेरे में व्यापक है वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है इसलिये जो आजकल के वेदान्ती जीव ब्रह्म की एकता करते हैं वे वेदान्तशास्त्र को नहीं जानते।

(प्रश्न) अनेन आत्मना जीवेनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि।। -छां०।।
तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।। -तैनिरीय०।।

परमेश्वर कहता है कि मैं जगत् और शरीर को रचकर जगत् में व्यापक और जीवरूप होके शरीर में प्रविष्ट होता हुआ नाम और रूप की व्याख्या करूं।।१।।

परमेश्वर ने उस जगत् और शरीर को बना कर उस में वही प्रविष्ट हुआ। इत्यादि श्रुतियों का अर्थ दूसरा कैसे कर सकोगे? ।।२।।

(उत्तर) जो तुम पद, पदार्थ और वाक्यार्थ जानते तो ऐसा अनर्थ कभी न करते! क्योंकि यहां ऐसा समझो एक प्रवेश और दूसरा अनुप्रवेश अर्थात् पश्चात् प्रवेश कहाता है। परमेश्वर शरीर में प्रविष्ट हुए जीवों के साथ अनुप्रविष्ट के समान होकर वेद द्वारा सब नाम रूप आदि की विद्या को प्रकट करता है। और शरीर में जीव को प्रवेश करा आप जीव के भीतर अनुप्रविष्ट हो रहा है। जो तुम अनु शब्द का अर्थ जानते तो वैसा विपरीत अर्थ कभी न करते।

(प्रश्न) ‘सोऽयं देवदत्तो य उष्णकाले काश्यां दृष्टः स इदानीं प्रावृट्समये मथुरायां दृश्यते ।’ अर्थात् जो देवदत्त मैंने उष्णकाल में काशी में देखा था उसी को वर्षा समय में मथुरा में देखता हूं। यहां वह काशी देश उष्णकाल, यह मथुरा देश और वर्षाकाल को छोड़ कर शरीरमात्र में लक्ष्य करके देवदत्त लक्षित होता है। वैसे इस भागत्यागलक्षणा से ईश्वर का परोक्ष देश, काल, माया, उपाधि और जीव का यह देश, काल, अविद्या और अल्पज्ञता उपाधि छोड़ चेतनमात्र में लक्ष्य देने से एक ही ब्रह्म वस्तु दोनों में लक्षित होता है। इस भागत्यागलक्षणा अर्थात् कुछ ग्रहण करना और कुछ छोड़ देना जैसा सर्वज्ञत्वादि वाच्यार्थ ईश्वर का और अल्पज्ञत्वादि वाच्यार्थ जीव का छोड़ कर चेतनमात्र लक्ष्यार्थ का ग्रहण करने से अद्वैत सिद्ध होता है। यहां क्या कह सकोगे?

(उत्तर) प्रथम तुम जीव और ईश्वर को नित्य मानते हो वा अनित्य?

(प्रश्न) इन दोनों को उपाधिजन्य कल्पित होने से अनित्य मानते हैं।

(उत्तर) उस उपाधि को नित्य मानते हो वा अनित्य?

(प्रश्न) हमारे मत में-

जीवेशौ च विशुद्धाचिद्विभेदस्तु तयोर्द्वयोः।
अविद्या तच्चितोर्योगः षडस्माकमनादयः।।१।।

कार्य्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः।
कार्य्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते।।२।।

ये ‘संक्षेपशारीरक’ और ‘शारीरकभाष्य’ में कारिका हैं।

हम वेदान्ती छः पदार्थों अर्थात् एक जीव, दूसरा ईश्वर, तीसरा ब्रह्म, चौथा जीव और ईश्वर का विशेष भेद, पांचवां अविद्या अज्ञान और छठा अविद्या और चेतन का योग इन को अनादि मानते हैं।।१।। परन्तु एक ब्रह्म अनादि, अनन्त और अन्य पांच अनादि सान्त हैं जैसा कि प्रागभाव होता है। जब तक अज्ञान रहता है तब तक ये पांच रहते हैं और इन पांच की आदि विदित नहीं होती। इसलिये अनादि और ज्ञान होने के पश्चात् नष्ट हो जाते हैं इसलिये सान्त अर्थात् नाशवाले कहाते हैं।।२।।

(उत्तर) ये तुम्हारे दोनों श्लोक अशुद्ध हैं क्योंकि अविद्या के योग के विना जीव और माया के योग के विना ईश्वर तुम्हारे मत में सिद्ध नहीं हो सकता। इससे ‘तच्चितोर्योगः’ जो छठा पदार्थ तुमने गिना है वह नहीं रहा। क्योंकि वह अविद्या माया जीव ईश्वर में चरितार्थ हो गया और ब्रह्म तथा माया और अविद्या के योग के विना ईश्वर नहीं बनता फिर ईश्वर को अविद्या और ब्रह्म से पृथक् गिनना व्यर्थ है। इसलिये दो ही पदार्थ अर्थात् ब्रह्म और अविद्या तुम्हारे मत में सिद्ध हो सकते हैं, छः नहीं। तथा आपका प्रथम कार्योपाधि और कारणोपाधि से जीव और ईश्वर का सिद्ध करना तब हो सकता कि जब अनन्त, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, सर्वव्यापक ब्रह्म में अज्ञान सिद्ध करें। जो उसके एक देश में स्वाश्रय और स्वविषयक अज्ञान अनादि सर्वत्र मानोगे तो सब ब्रह्म शुद्ध नहीं हो सकता। और जब एक देश में अज्ञान मानोगे तो वह परिच्छिन्न होने से इधर-उधर आता जाता रहेगा। जहां-जहां जायगा वहां-वहां का ब्रह्म अज्ञानी और जिस-जिस देश को छोड़ता जायगा उस-उस देश का ब्रह्म ज्ञानी होता रहेगा तो किसी देश के ब्रह्म को अनादि शुद्ध ज्ञानयुक्त न कह सकोगे और जो अज्ञान की सीमा में ब्रह्म है वह अज्ञान को जानेगा। बाहर और भीतर के ब्रह्म के टुकड़े हो जायेंगे। जो कहो कि टुकड़ा हो जाओ, ब्रह्म की क्या हानि? तो अखण्ड नहीं। जो अखण्ड है तो अज्ञानी नहीं। तथा ज्ञान के अभाव वा विपरीत ज्ञान भी गुण होने से किसी द्रव्य के साथ नित्य सम्बन्ध से रहेगा। यदि ऐसा है तो समवाय सम्बन्ध होने से अनित्य कभी नहीं हो सकता। जैसे शरीर के एक देश में फोड़ा होने से सर्वत्र दुःख फैल जाता है वैसे ही एक देश में अज्ञान सुख दुःख क्लेशों की उपलब्धि होने से सब ब्रह्म दुःखादि के अनुभव से युक्त होगा और सब ब्रह्म को शुद्ध न कह सकोगे। वैसे ही कार्योपाधि अर्थात् अन्तःकरण की उपाधि के योग से ब्रह्म को जीव मानोगे तो हम पूछते हैं कि ब्रह्म व्यापक है वा परिच्छिन्न? जो कहो व्यापक उपाधि परिच्छिन्न है अर्थात् एकदेशी और पृथक्-पृथक् है तो अन्तःकरण चलता फिरता है वा नहीं ?

(उत्तर) चलता फिरता है।

(प्रश्न) अन्तःकरण के साथ ब्रह्म भी चलता फिरता है वा स्थिर रहता है?

(उत्तर) स्थिर रहता है।

(प्रश्न) जब अन्तःकरण जिस-जिस देश को छोड़ता है उस-उस देश का ब्रह्म अज्ञानरहित और जिस-जिस देश को प्राप्त होता है उस-उस देश का शुद्ध ब्रह्म अज्ञानी होता होगा। वैसे क्षण में ज्ञानी और अज्ञानी ब्रह्म होता रहेगा। इससे मोक्ष और बन्ध भी क्षणभंग होगा और जैसे अन्य के देखे का अन्य स्मरण नहीं कर सकता वैसे कल की देखी सुनी हुई वस्तु वा बात का ज्ञान नहीं रह सकता। क्योंकि जिस समय देखा सुना था वह दूसरा देश और दूसरा काल; जिस समय स्मरण करता वह दूसरा देश और काल है।

जो कहो कि ब्रह्म एक है तो सर्वज्ञ क्यों नहीं? जो कहो कि अन्तःकरण भिन्न-भिन्न हैं, इस से वह भी भिन्न-भिन्न हो जाता होगा तो वह जड़ है। उस में ज्ञान नहीं हो सकता। जो कहो कि न केवल ब्रह्म और न केवल अन्तःकरण को ज्ञान होता है किन्तु अन्तःकरणस्थ चिदाभास को ज्ञान होता है तो भी चेतन ही को अन्तःकरण द्वारा ज्ञान हुआ तो वह नेत्र द्वारा अल्प अल्पज्ञ क्यों है? इसलिये कारणोपाधि और कार्योपाधि के योग से ब्रह्म जीव और ईश्वर नहीं बना सकोगे। किन्तु ईश्वर नाम ब्रह्म का है और ब्रह्म से भिन्न अनादि, अनुत्पन्न और अमृतस्वरूप जीव का नाम जीव है। जो तुम कहो कि जीव चिदाभास का नाम है तो वह क्षणभंग होने से नष्ट हो जायगा तो मोक्ष का सुख कौन भोगेगा? इसलिये ब्रह्म जीव और जीव ब्रह्म कभी न हुआ, न है और न होगा।

(प्रश्न) तो ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’।। -छान्दोग्य०।।

अद्वैतसिद्धि कैसे होगी? हमारे मत में तो ब्रह्म से पृथक् कोई सजातीय, विजातीय और स्वगत अवयवों के भेद न होने से एक ब्रह्म ही सिद्ध होता है। जब जीव दूसरा है तो अद्वैतसिद्धि कैसे हो सकती है?

(उत्तर) इस भ्रम में पड़ क्यों डरते हो? विशेष्य विशेषण विद्या का ज्ञान करो कि उस का क्या फल है। जो कहो कि ‘व्यावर्त्तकं विशेषणं भवतीति ।’ विशेषण भेदकारक होता है तो इतना और भी मानो कि ‘प्रवर्त्तकं प्रकाशकमपि विशेषणं भवतीति ।’ विशेषण प्रवर्त्तक और प्रकाशक भी होता है तो समझो कि अद्वैत विशेषण ब्रह्म का है। इस में व्यावर्त्तक धर्म यह है कि अद्वैत वस्तु अर्थात् जो अनेक जीव और तत्त्व हैं उन से ब्रह्म को पृथक् करता है और विशेषण का प्रकाशक धर्म यह है कि ब्रह्म के एक होने की प्रवृत्ति करता है। जैसे-‘अस्मिन्नगरेऽद्वितीयो धनाढ्यो देवदत्तः। अस्यां सेनायामद्वितीयः शूरवीरो विक्रमसिहः।’ किसी ने किसी से कहा कि इस नगर में अद्वितीय धनाढ्य देवदत्त और इस सेना में अद्वितीय शूरवीर विक्रमसिह है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि देवदत्त के सदृश इस नगर में दूसरा धनाढ्य और इस सेना में विक्रमसिह के समान दूसरा शूरवीर नहीं है। न्यून तो हैं और पृथिवी आदि जड़ पदार्थ, पश्वादि प्राणी और वृक्षादि भी हैं, उन का निषेध नहीं हो सकता। वैसे ही ब्रह्म के सदृश जीव वा प्रकृति नहीं है, किन्तु न्यून तो हैं। इस से यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्म सदा एक है और जीव तथा प्रकृतिस्थ तत्त्व अनेक हैं। उन से भिन्न कर ब्रह्म के एकत्व को सिद्ध करने हारा अद्वैत वा अद्वितीय विशेषण है। इस से जीव वा प्रकृति का और कार्यरूप जगत् का अभाव और निषेध नहीं हो सकता। किन्तु ये सब हैं, परन्तु ब्रह्म के तुल्य नहीं। इस से न अद्वैतसिद्धि और न द्वैतसिद्धि की हानि होती है। घबराहट में मत पड़ो; सोचो और समझो।

(प्रश्न) ब्रह्म के सत्, चित्, आनन्द और जीव के अस्ति, भाति, प्रियरूप से एकता होती है। फिर क्यों खण्डन करते हो?

(उत्तर) किञ्चित् साधर्म्य मिलने से एकता नहीं हो सकती। जैसे पृथिवी जड़, दृश्य है वैसे जल और अग्नि आदि भी जड़ और दृश्य हैं; इतने से एकता नहीं होती। इनमें वैधर्म्य भेदकारक अर्थात् विरुद्ध धर्म जैसे गन्ध, रूक्षता, काठिन्य आदि गुण पृथिवी और रस द्रवत्व कोमलत्वादि धर्म जल और रूप दाहकत्वादि धर्म अग्नि के होने से एकता नहीं। जैसे मनुष्य और कीड़ी आंख से देखते, मुख से खाते, पग से चलते हैं तथापि मनुष्य की आकृति दो पग और कीड़ी की आकृति अनेक पग आदि भिन्न होने से एकता नहीं होती। वैसे परमेश्वर के अनन्त ज्ञान, आनन्द, बल, क्रिया, निर्भ्रान्तित्व और व्यापकता जीव से और जीव के अल्पज्ञान, अल्पबल, अल्पस्वरूप, सब भ्रान्तित्व और परिच्छिन्नतादि गुण ब्रह्म से भिन्न होने से जीव और परमेश्वर एक नहीं। क्योंकि इनका स्वरूप भी (परमेश्वर अतिसूक्ष्म और जीव उस से कुछ स्थूल होने से) भिन्न है।

(प्रश्न) अथोदरमन्तरं कुरुते, अथ तस्य भयं भवति। द्वितीयाद्वै भयं भवति।। यह बृहदारण्यक का वचन है। जो ब्रह्म और जीव में थोड़ा भी भेद करता है। उसको भय प्राप्त होता है, क्योंकि दूसरे ही से भय होता है।

(उत्तर) इस का अर्थ यह नहीं है किन्तु जो जीव परमेश्वर का निषेध वा किसी एक देश, काल में परिच्छिन्न परमात्मा को माने वा उस की आज्ञा और गुण, कर्म, स्वभाव से विरुद्ध होवे अथवा किसी दूसरे मनुष्य से वैर करे उस को भय प्राप्त होता है। क्योंकि द्वितीय बुद्धि अर्थात् ईश्वर का मुझ से कुछ सम्बन्ध नहीं तथा किसी मनुष्य से कहै कि तुझ को मैं कुछ नहीं समझता, तू मेरा कुछ भी नहीं कर सकता वा किसी की हानि करता और दुःख देता जाय तो उस को उन से भय होता है। और सब प्रकार का अविरोध हो तो वे एक कहाते हैं। जैसे संसार में कहते हैं कि देवदत्त, यज्ञदत्त और विष्णुमित्र एक हैं अर्थात् अविरुद्ध हैं। विरोध न रहने से सुख और विरोध से दुःख प्राप्त होता है।

(प्रश्न) ब्रह्म और जीव की सदा एकता अनेकता रहती है वा कभी दोनों मिल के एक भी होते हैं वा नहीं?

(उत्तर) अभी इस के पूर्व कुछ उत्तर दे दिया है परन्तु साधर्म्य अन्वयभाव से एकता होती है। जैसे आकाश से मूर्त्त द्रव्य जड़त्व होने से और कभी पृथक् न रहने से एकता और आकाश के विभु, सूक्ष्म, अरूप, अनन्त आदि गुण और मूर्त्त के परिच्छिन्न दृश्यत्व आदि वैधर्म्य से भेद होता है। अर्थात् जैसे पृथिव्यादि द्रव्य आकाश से भिन्न कभी नहीं रहते क्योंकि अन्वय अर्थात् अवकाश के विना मूर्त्त द्रव्य कभी नहीं रह सकता और व्यतिरेक अर्थात् स्वरूप से भिन्न होने से पृथक्ता है। वैसे ब्रह्म के व्यापक होने से जीव और पृथिवी आदि द्रव्य उस से अलग नहीं रहते और स्वरूप से एक भी नहीं होते। जैसे घर के बनाने के पूर्व भिन्न-भिन्न देश में मट्टी, लकड़ी और लोहा आदि पदार्थ आकाश में ही रहते हैं। जब घर बन गया तब भी आकाश में हैं और जब वह नष्ट हो गया अर्थात् उस घर के सब अवयव भिन्न-भिन्न देश में प्राप्त हो गये; तब भी आकाश में हैं। अर्थात् तीन काल में आकाश से भिन्न नहीं हो सकते औेर स्वरूप से भिन्न होने से न कभी एक थे; हैं और होंगे। इसी प्रकार जीव तथा सब संसार के पदार्थ परमेश्वर में व्याप्य होने से परमात्मा से तीनों कालों में भिन्न और स्वरूप भिन्न होने से एक कभी नहीं होते। आजकल के वेदान्तियों की दृष्टि काणे पुरुष के समान अन्वय की ओर पड़ के व्यतिरेकभाव से छूट विरुद्ध हो गई है। कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं है कि जिस में सगुण-निर्गुणता, अन्वय-व्यतिरेक, साधर्म्य-वैधर्म्य और विशेष्य-विशेषण भाव न हो।

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If Brahma is one, why not be omniscient? If you say that the conscience is different, it would have also become different from it, then it is the root. He cannot have knowledge. Which is to say that not only Brahm and not only the conscience has knowledge, but the embodied mind has knowledge, but even if the conscious has knowledge through the conscience, then why is he a little ignorant by the eye? Therefore, due to the combination of reason and action, Brahm will not be able to create Jiva and God.

 

 

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