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नवम समुल्लास भाग -1

अथ नवमसमुल्लासारम्भः

अथ विद्याऽविद्याबन्धमोक्षविषयान् व्याख्यास्यामः

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ्सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
-यजुः० अ० ४०। मं० १४।।

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है। अविद्या का लक्षण- 

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।।

यह योगसूत्र का वचन है।

जो अनित्य संसार और देहादि में नित्य अर्थात् जो कार्य जगत् देखा, सुना जाता है सदा रहेगा, सदा से है और योगबल से यही देवों का शरीर सदा रहता है वैसी विपरीत बुद्धि होना अविद्या का प्रथम भाग है। अशुचि अर्थात् मलमय स्त्र्यादि के शरीर और मिथ्याभाषण, चोरी आदि अपवित्र में पवित्र बुद्धि। दूसरा अत्यन्त विषयसेवनरूप दुःख में सुखबुद्धि आदि, तीसरा-अनात्मा में आत्मबुद्धि करना अविद्या का चौथा भाग है। यह चार प्रकार का विपरीत ज्ञान अविद्या कहाती है। इस के विपरीत अर्थात् अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुःख में दुःख, सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा और आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना विद्या है। अर्थात् ‘वेत्ति यथावत्तत्त्वं पदार्थस्वरूपं यया सा विद्या। यया तत्त्वस्वरूपं न जानाति भ्रमादन्यस्मिन्नन्यन्नि- श्चिनोति साऽविद्या ।’ 

जिस से पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बोध होवे वह विद्या और जिस से तत्त्वस्वरूप न जान पड़े अन्य में अन्य बुद्धि होवे वह अविद्या कहाती है। अर्थात् कर्म और उपासना अविद्या इसलिये है कि यह बाह्य और अन्तर क्रियाविशेष नाम है; ज्ञानविशेष नहीं। इसी से मन्त्र में कहा है कि विना शुद्ध कर्म और परमेश्वर की उपासना के मृत्यु दुःख से पार कोई नहीं होता। अर्थात् पवित्र कर्म, पवित्रेपासना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म पाषाणमूत्र्त्यादि की उपासना और मिथ्याज्ञान से बन्ध होता है। कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म, उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता। इसलिये धर्मयुक्त सत्यभाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ देना ही मुक्ति का साधन है।

(प्रश्न) मुक्ति किस को प्राप्त नहीं होती?

(उत्तर) जो बद्ध है!

(प्रश्न) बद्ध कौन है?

(उत्तर) जो अधर्म अज्ञान में फंसा हुआ जीव है।

(प्रश्न) बन्ध और मोक्ष स्वभाव से होता है वा निमित्त से?

(उत्तर) निमित्त से। क्योंकि जो स्वभाव से होता तो बन्ध और मुक्ति की निवृत्ति कभी नहीं होती।

(प्रश्न) न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्तिरित्येषा परमार्थता ।।

यह श्लोक माण्डूक्योपनिषत् पर है।

जीव ब्रह्म होने से वस्तुतः जीव का निरोध अर्थात् न कभी आवरण में आया, न जन्म लेता, न बन्ध है और न साधक अर्थात् न कुछ साधना करनेहारा है। न छूटने की इच्छा करता और न इस की कभी मुक्ति है क्योंकि जब परमार्थ से बन्ध ही नहीं हुआ तो मुक्ति क्या?

(उत्तर) यह नवीन वेदान्तियों का कहना सत्य नहीं। क्योंकि जीव का स्वरूप अल्प होने से आवरण में आता, शरीर के साथ प्रकट होने रूप जन्म लेता, पापरूप कर्मों के फल भोगरूप बन्धन में फंसता, उस के छुड़ाने का साधन करता, दुःख से छूटने की इच्छा करता और दुःखों से छूट कर परमानन्द परमेश्वर को प्राप्त होकर मुक्ति को भी भोगता है।

(प्रश्न) ये सब धर्म देह और अन्तःकरण के हैं। जीव के नहीं। क्योंकि जीव तो पाप पुण्य से रहित साक्षीमात्र है। शीतोष्णादि शरीरादि के धर्म्म हैं; आत्मा निर्लेप है।

(उत्तर) देह और अन्तःकरण जड़ हैं उन को शीतोष्ण प्राप्ति और भोग नहीं है। जैसे पत्थर को शीत और उष्ण का भान वा भोग नहीं है। जो चेतन मनुष्यादि प्राणी उसका स्पर्श करता है उसी को शीत उष्ण का भान और भोग होता है। वैसे प्राण भी जड़ हैं। न उन को भूख न पिपासा किन्तु प्राण वाले जीव को क्षुधा, तृषा लगती है। वैसे ही मन भी जड़ है। न उस को हर्ष, न शोक हो सकता है किन्तु मन से हर्ष, शोक, दुःख, सुख का भोग जीव करता है। जैसे बहिष्करण श्रोत्रदि इन्द्रियों से अच्छे बुरे शब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी दुःखी होता है वैसे ही अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से संकल्प, विकल्प, निश्चय, स्मरण और अभिमान का करने वाला दण्ड और मान्य का भागी होता है। जैसे तलवार से मारने वाला दण्डनीय होता है तलवार नहीं होती वैसे ही देहेन्द्रिय अन्तःकरण और प्राणरूप साधनों से अच्छे बुरे कर्मों का कर्त्ता जीव सुख दुःख का भोक्ता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं, किन्तु कर्त्ता भोक्ता है। कर्मों का साक्षी तो एक अद्वितीय परमात्मा है। जो कर्म करने वाला जीव है वही कर्मों में लिप्त होता है; वह ईश्वर साक्षी नहीं।

(प्रश्न) जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। जैसे दर्प्पण के टूटने फूटने से बिम्ब की कुछ हानि नहीं होती, इसी प्रकार अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जीव तब तक है कि जब तक वह अन्तःकरणोपाधि है। जब अन्तःकरण नष्ट हो गया तब जीव मुक्त है।

(उत्तर) यह बालकपन की बात है। क्योंकि प्रतिबिम्ब साकार का साकार में होता है। जैसे मुख और दर्पण आकार वाले हैं और पृथक् भी हैं; जो पृथक् न हो तो भी प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। ब्रह्म निराकार, सर्वव्यापक होने से उस का प्रतिबिम्ब ही नहीं हो सकता।

(प्रश्न) देखो! गम्भीर स्वच्छ जल में निराकार और व्यापक आकाश का आभास पड़ता है। इसी प्रकार स्वच्छ अन्तःकरण में परमात्मा का आभास है। इसलिये इस को चिदाभास कहते हैं।

(उत्तर) यह बालबुद्धि का मिथ्या प्रलाप है। क्योंकि आकाश दृश्य नहीं तो उस को आंख से कोई भी क्योंकर देख सकता है।

(प्रश्न) यह जो ऊपर को नीला और धूंधलापन दीखता है वह आकाश नीला दीखता है वा नहीं?

(उत्तर) नहीं।

(प्रश्न) तो वह क्या है?

(उत्तर) अलग-अलग पृथिवी, जल और अग्नि के त्रसरेणु दीखते हैं। उस में जो नीलता दीखती है वह अधिक जल जो कि वर्षता है सो वही नील; जो धूंधलापन दीखता है वह पृथिवी से धूली उड़कर वायु में घूमती है वह दीखती और उसी का प्रतिबिम्ब जल वा दर्प्पण में दीखता है; आकाश का कभी नहीं।

(प्रश्न) जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और महदाकाश के भेद व्यवहार में होते हैं वैसे ही ब्रह्म के ब्रह्माण्ड और अन्तःकरण उपाधि के भेद से ईश्वर और जीव नाम होता है। जब घटादि नष्ट हो जाते हैं तब महाकाश ही कहाता है।

(उत्तर) यह भी बात अविद्वानों की है। क्योंकि आकाश कभी छिन्न-भिन्न नहीं होता। व्यवहार में भी ‘घड़ा लाओ’ इत्यादि व्यवहार होते हैं। कोई नहीं कहता कि घड़े का आकाश लाओ। इसलिये यह बात ठीक नहीं।

(प्रश्न) जैसे समुद्र के बीच में मच्छी, कीड़े और आकाश के बीच में पक्षी आदि घूमते हैं वैसे ही चिदाकाश ब्रह्म में सब अन्तःकरण घूमते हैं। वे स्वयं तो जड़ हैं परन्तु सर्वव्यापक परमात्मा की सत्ता से जैसा कि अग्नि से लोहा; वैसे चेतन हो रहे हैं। जैसे वे चलते फिरते और आकाश तथा ब्रह्म निश्चल है वैसे जीव को ब्रह्म मानने में कोई दोष नहीं आता।

(उत्तर) यह भी तुम्हारा दृष्टान्त सत्य नहीं क्योंकि जो सर्वव्यापी ब्रह्म अन्तःकरणों में प्रकाशमान होकर जीव होता है तो सर्वज्ञादि गुण उस में होते हैं वा नहीं? जो कहो कि आवरण होने से सर्वज्ञता नहीं होती तो कहो कि ब्रह्म आवृत्त और खण्डित है वा अखण्डित? जो कहो कि अखण्डित है तो बीच में कोई पड़दा नहीं डाल सकता। जब पड़दा नहीं तो सर्वज्ञता क्यों नहीं? जो कहो कि अपने स्वरूप को भूलकर अन्तःकरण के साथ चलता सा है स्वरूप से नहीं? जब स्वयं नहीं चलता तो अन्तःकरण जितना-जितना पूर्व प्राप्त देश छोड़ता और आगे-आगे जहां-जहां सरकता जायेगा वहां-वहां का ब्रह्म भ्रान्त; अज्ञानी होता जायेगा और जितना-जितना छूटता जायेगा वहां-वहां ज्ञानी, पवित्र और मुक्त होता जायेगा। इसी प्रकार सर्वत्र सृष्टि के ब्रह्म को अन्तःकरण बिगाड़ा करेंगे और बन्ध मुक्ति भी क्षण-क्षण में हुआ करेगी। तुम्हारे कहे प्रमाणे जो वैसा होता तो किसी जीव को पूर्व देखे सुने का स्मरण न होता क्योंकि जिस ब्रह्म ने देखा वह नहीं रहा इसलिये ब्रह्म जीव, जीव ब्रह्म एक कभी नहीं होता; सदा पृथक्-पृथक् हैं।

(प्रश्न) यह सब अध्यारोपमात्र है अर्थात् अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का स्थापन करना अध्यारोप कहाता है। वैसे ही ब्रह्म वस्तु में सब जगत् और इस के व्यवहार का अध्यारोप करने से जिज्ञासु को बोध कराना होता है वास्तव में सब ब्रह्म ही है।

(प्रश्न) अध्यारोप का करने वाला कौन है?

(उत्तर) जीव।

(प्रश्न) जीव किस को कहते हो?

(उत्तर) अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन को।

(प्रश्न) अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन दूसरा है वा वही ब्रह्म?

(उत्तर) वही ब्रह्म है।

(प्रश्न) तो क्या ब्रह्म ही ने अपने में जगत् की झूठी कल्पना कर ली?

(उत्तर) हो, ब्रह्म की इससे क्या हानि?

(प्रश्न) जो मिथ्या कल्पना करता है क्या वह झूँठा नहीं होता?

(उत्तर) नहीं। क्योंकि जो मन, वाणी से कल्पित वा कथित है वह सब झूंठा है।

(प्रश्न) फिर मन वाणी से झूठी कल्पना करने और मिथ्या बोलने वाला ब्रह्म कल्पित और मिथ्यावादी हुआ वा नहीं?

(उत्तर) हो, हम को इष्टापत्ति है।

वाह रे झूठे वेदान्तियो! तुम ने सत्यस्वरूप, सत्यकाम, सत्यसंकल्प परमात्मा को मिथ्याचारी कर दिया। क्या यह तुम्हारी दुर्गति का कारण नहीं है? किस उपनिषत्, सूत्र वा वेद में लिखा है कि परमेश्वर मिथ्यासंकल्प और मिथ्यावादी है? क्योंकि जैसे किसी चोर ने कोतवाल को दण्ड दिया अर्थात् ‘उलटि चोर कोतवाल को दण्डे’ इस कहानी के सदृश तुम्हारी बात हुई। यह तो बात उचित है कि कोतवाल चोर को दण्डे परन्तु यह बात विपरीत है कि चोर कोतवाल को दण्ड देवे। वैसे ही तुम मिथ्या संकल्प और मिथ्यावादी होकर वही अपना दोष ब्रह्म में व्यर्थ लगाते हो। जो ब्रह्म मिथ्याज्ञानी, मिथ्यावादी, मिथ्याकारी होवे तो सब अनन्त ब्रह्म वैसा ही हो जाय क्योंकि वह एकरस है; सत्यस्वरूप, सत्यमानी, सत्यवादी और सत्यकारी है। ये सब दोष तुम्हारे हैं; ब्रह्म के नहीं। जिस को तुम विद्या कहते हो वह अविद्या है और तुम्हारा अध्यारोप भी मिथ्या है क्योंकि आप ब्रह्म न होकर अपने को ब्रह्म और ब्रह्म को जीव मानना यह मिथ्या ज्ञान नहीं तो क्या है? जो सर्वव्यापक है वह परिच्छिन्न न होने से अज्ञान और बन्ध में कभी नहीं गिरता क्योंकि अज्ञान परिच्छिन्न एकदेशी अल्प अल्पज्ञ जीव में होता है; सर्वज्ञ सर्वव्यापी ब्रह्म में नहीं।

अब मुक्ति बन्ध का वर्णन करते हैं

(प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं?

(उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है।

(प्रश्न) किस से छूट जाना?

(उत्तर) जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं?

(प्रश्न) किस से छूटने की इच्छा करते हैं?

(उत्तर) जिस से छूटना चाहते हैं?

(प्रश्न) किस से छूटना चाहते हैं।

(उत्तर) दुःख से।

(प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?

(उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।

(प्रश्न) मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?

(उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने; पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने; विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने; सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से बन्ध होता है।

(प्रश्न) मुक्ति में जीव का लय होता है वा विद्यमान रहता है।

(उत्तर) विद्यमान रहता है।

(प्रश्न) कहां रहता है?

(उत्तर) ब्रह्म में।

(प्रश्न) ब्रह्म कहां है और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता है वा स्वेच्छाचारी होकर सर्वत्र विचरता है?

(उत्तर) जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है उसी में मुक्त जीव अव्याहतगति अर्थात् उस को कहीं रुकावट नहीं; विज्ञान, आनन्दपूर्वक स्वतन्त्र विचरता है।

(प्रश्न) मुक्त जीव का स्थूल शरीर रहता है वा नहीं?

(उत्तर) नहीं रहता।

(प्रश्न) फिर वह सुख और आनन्द भोग कैसे करता है?

(उत्तर) उस के सत्यसंकल्पादि स्वाभाविक गुण सामर्थ्य सब रहते हैं; भौतिक संग नहीं रहता। जैसे-

शृण्वन् श्रोत्रं भवति, स्पर्शयन् त्वग्भवति, पश्यन् चक्षुर्भवति, रसयन् रसना भवति, जिघ्रन् घ्राणं भवति, मन्वानो मनो भवति, बोधयन् बुद्धिर्भवति, चेतयंश्चित्तम्भवत्यहङ् कुर्वाणोऽहंक्यनरो भवति।। -शतपथ कां० १४।।

मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध के लिये घ्राण, संकल्प विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि, स्मरण करने के लिए चित्त और अहंकार के अर्थ अहंकाररूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और संकल्पमात्र शरीर होता है जैसे शरीर के आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है।

(प्रश्न) उस की शक्ति कै प्रकार की और कितनी है?

(उत्तर) मुख्य एक प्रकार की शक्ति है परन्तु बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गन्धग्रहण तथा ज्ञान इन २४ चौबीस प्रकार के सामर्थ्ययुक्त जीव हैं। इस से मुक्ति में भी आनन्द की प्राप्तिरूप भोग करता है। जो मुक्ति में जीव का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और जो जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं वे तो महामूढ़ हैं क्योंकि मुक्ति जीव की यह है कि दुःखों से छूट कर आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनन्त, परमेश्वर में जीवों का आनन्द में रहना। 

देखो वेदान्त शारीरक सूत्रें में- अभावं बादरिराह ह्येवम्।

जो बादरि व्यास जी का पिता है वह मुक्ति में जीव का और उस के साथ मन का भाव मानता है अर्थात् जीव और मन का लय पराशर जी नहीं मानते। वैसे ही- भावं जैमिनिर्विकल्पामननात्।

और जैमिनि आचार्य्य मुक्त पुरुष का मन के समान सूक्ष्म शरीर, इन्द्रियां, प्राण आदि को भी विद्यमान मानते हैं। अभाव नहीं।

द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः।

व्यास मुनि मुक्ति में भाव और अभाव इन दोनों को मानते हैं। अर्थात् शुद्ध सामर्थ्ययुक्त जीव मुक्ति में बना रहता है। अपवित्रता, पापाचरण, दुःख, अज्ञानादि का अभाव मानते हैं।

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्।।
यह उपनिषत् का वचन है।

जब शुद्ध मनयुक्त पांच ज्ञानेन्द्रिय जीव के साथ रहती हैं और बुद्धि का निश्चय स्थिर होता है। उस को परमगति अर्थात् मोक्ष कहते हैं।

य आत्मा अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोऽविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः सर्वांश्च लोकानाप्नोति सर्वांश्च कामान् यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति।।

स वा एष एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते।

य एते ब्रह्मलोके तं वा एतं देवा आत्मानमुपासते तस्मात्तेषां सर्वे च लोका आत्ता सर्वे च कामाः स सर्वा श्च लोकानाप्नोति सर्वा श्च कामान्यस्तमा- त्मानमनुविद्य विजानातीति।।

मघवन्मर्त्यं वा इदँ्शरीरमात्तं मृत्युना तदस्याऽमृतस्याऽशरीरस्यात्मनो- ऽधिष्ठानमात्तो वै सशरीरः प्रियाप्रियाभ्यां न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययो- रपहतिस्त्यशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः।। -छान्दोग्य।।

जो परमात्मा अपहतपाप्मा सर्व पाप, जरा, मृत्यु, शोक, क्षुधा, पिपासा से रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प है उस की खोज और उसी की जानने की इच्छा करनी चाहिए। जिस परमात्मा के सम्बन्ध से मुक्त जीव सब लोकों और सब कामों को प्राप्त होता है; जो परमात्मा को जान के मोक्ष के साधन और अपने को शुद्ध करना जानता है सो यह मुक्ति को प्राप्त जीव शुद्ध दिव्य नेत्र और शुद्ध मन से कामों को देखता, प्राप्त होता हुआ रमण करता है।

जो ये ब्रह्मलोक अर्थात् दर्शनीय परमात्मा में स्थित होके मोक्ष सुख को भोगते हैं और इसी परमात्मा का जो कि सब का अन्तर्यामी आत्मा है उस की उपासना मुक्ति की प्राप्ति करने वाले विद्वान् लोग करते हैं। उस से उन को सब लोक और सब काम प्राप्त होते हैं अर्थात् जो-जो संकल्प करते हैं वह-वह लोक और वह-वह काम प्राप्त होता है और वे मुक्त जीव स्थूल शरीर छोड़कर संकल्पमय शरीर से आकाश में परमेश्वर में विचरते हैं। क्योंकि जो शरीर वाले होते हैं वे सांसारिक दुःख से रहित नहीं हो सकते।

जैसे इन्द्र से प्रजापति ने कहा है कि हे परमपूजित धनयुक्त पुरुष! यह स्थूल शरीर मरणधर्मा है और जैसे सिह के मुख में बकरी होवे वैसे यह शरीर मृत्यु के मुख के बीच है सो शरीर इस मरण और शरीर रहित जीवात्मा का निवास स्थान है। इसीलिये यह जीव सुख और दुःख से सदा ग्रस्त रहता है क्योंकि शरीर सहित जीव की सांसारिक प्रसन्नता की निवृत्ति होती ही है और जो शरीर रहित मुक्त जीवात्मा ब्रह्म में रहता है उस को सांसारिक सुख दुःख का स्पर्श भी नहीं होता किन्तु सदा आनन्द में रहता है।

(प्रश्न) जीव मुक्ति को प्राप्त होकर पुनः जन्म मरणरूप दुःख में कभी आते हैं वा नहीं? क्योंकि-

न च पुनरावर्त्तते न च पुनरावर्त्तत्त इति।। उपनिषद्वचनम्।।
अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्।। शारीरक सूत्र।।
यद् गत्वा न निवर्त्तन्ते तद्धाम परमं मम।। भगवद्गीता।।

इत्यादि वचनों से विदित होता है कि मुक्ति वही है कि जिससे निवृत्त होकर पुनः संसार में कभी नहीं आता।

(उत्तर) यह बात ठीक नहीं; क्योंकि वेद में इस बात का निषेध किया है-

कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
को नो मह्या अदितये पनु दार्त् पितरं च दृशेयं मातरं च ।।१।।

अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च ।।२।।
– ऋ० मं० १ । सू० २४ । मं० १ । २ ।।

इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः।। -सांख्यसूत्र।।

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होण्डा शोरूम के पास, रिंग रोड नं.-1, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
हेल्पलाइन : 9109372521
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Those who are situated in the Brahmalok i.e. the visible God, enjoy Moksha pleasures and this God who is the inner soul of all, is worshiped by the scholars who attain liberation. From that they receive all the world and all the work, that is, whatever they resolve, that world and that work, and they leave the free living physical body and move from the thoughtful body to God in the sky. Because those who are bodily cannot be devoid of worldly sorrow.

 

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