विशेष सूचना - Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी रायपुर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित रायपुर में एकमात्र केन्द्र है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी के अतिरिक्त रायपुर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is the only controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Chhattisgarh. We do not have any other branch or Centre in Raipur. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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चतुर्थ समुल्लास भाग - 4

ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।
मनु०।।

रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे। आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। 

कभी अधर्म का आचरण न करे। क्योंकि-

नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावर्त्तमानस्तु कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति।।
मनु०।।

किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता है उसी समय फल भी नहीं होता। इसलिये अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते। तथापि निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे तुम्हारे सुख के मूलों को काटता चला जाता है। 

इस क्रम से-
अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।। मनु०।।

जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बन्ध तोड़ जल चारों ओर फैल जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासघातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है। पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है वैसे अधर्मी नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।

सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत् सदा।
शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः।।
मनु०।।

वेदोक्त सत्य धर्म अर्थात् पक्षपातरहित होकर सत्य के ग्रहण और असत्य के परित्याग न्यायरूप वेदोक्त धर्मादि, आर्य अर्थात् उत्तम पुरुषों के गुण, कर्म, स्वभाव और पवित्रता ही में सदा रमण करे। वाणी, बाहू, उदर आदि अंगों का संयम अर्थात् धर्म में चलाता हुआ धर्म से शिष्यों को शिक्षा किया करे।

ऋत्विक्पुरोहिताचार्य्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः।
बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः।।१।।

मातापितृभ्यां यामिभिर्भ्रात्र पुत्रेण भार्यया।
दुहित्र दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।।२।।
मनु०।।

(ऋत्विक्) यज्ञ का करनेहारा, (पुरोहित) सदा उत्तम चाल चलनकी शिक्षा कारक, (आचार्य) विद्या पढ़ानेहारा, (मातुल) मामा, (अतिथि) अर्थात् जिस की कोई आने जाने की निश्चित तिथि न हो (संश्रित) अपने आश्रित (बाल) बालक (वृद्ध्र) बुड्ढे (आतुर) पीड़ित (वैद्य) आयुर्वेद का ज्ञाता, (ज्ञाति) स्वगोत्र वा वर्णस्थ, (सम्बन्धी) श्वशुर आदि, बान्धव) मित्र ।।१।। (माता) माता, (पिता) पिता, (यामि) बहिन, (भ्राता) भाई, (पुत्र) पुत्र, (भार्या) स्त्री, (दुहिता) पुत्री और सेवक लोगों से विवाद अर्थात् विरुद्ध लड़ाई बखेड़ा कभी न करे ।।२।।

अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्विजः।
अम्भस्यश्मप्लवेनैव सह तैनैव मज्जति।।२।।
मनु०।।

एक (अतपाः) ब्रह्मचर्य्य सत्यभाषणादि तपरहित, दूसरा (अनधीयानः) विना पढ़ा हुआ, तीसरा (प्रतिग्रहरुचिः) अत्यन्त धर्मार्थ दूसरों से दान लेनेवाला, ये तीनों पत्थर की नौका से समुद्र में तरने के समान अपने दुष्ट कर्मों के साथ ही दुःखसागर में डूबते हैं । वे तो डूबते ही हैं परन्तु दाताओं को साथ डुबा लेते हैं।

त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम्।
दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रदातुरेव च।।
मनु०।।

जो धर्म से प्राप्त हुए धन का उक्त तीनों को देना है वह दानदाता का नाश इसी जन्म और लेनेवाले का नाश परजन्म में करता है। जो वे ऐसे हों तो क्या हो- 

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ।।
मनु०।।

जैसे पत्थर की नौका में बैठ के जल में तरने वाला डूब जाता है वैसे अज्ञानी दाता और ग्रहीता दोनों अधोगति अर्थात् दुःख को प्राप्त होते हैं।

पाखण्डियों के लक्षण -

धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिको लोकदम्भकः।
वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिस्रः सर्वाभिसन्धकः।।१।।

अधोदृष्टिर्नैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः ।
शठो मिथ्याविनीतश्च वकव्रतचरो द्विजः।।२।।
मनु०।।

(धर्मध्वजी) धर्म कुछ भी न करे परन्तु धर्म के नाम से लोगों को ठगे (सदा लुब्वमः) सर्वदा लोभ से युक्त (छाद्मिकः) कपटी (लोकदम्भकः) संसारी मनुष्यों के सामने अपनी बड़ाई के गपोड़े मारा करे (हिस्रः) प्राणियों का घातक, अन्य से वैरबुद्धि रखनेवाला (सर्वाभिसन्धकः) सब अच्छेऔर बुरों से भी मेल रक्खे उस को वैडालव्रतिक अर्थात् विडाल के समान धूर्त्त और नीच समझो।।१।। (अधोदृष्टिः) कीर्ति के लिये नीचे दृष्टि रक्खे (नैष्कृतिकः) ईर्ष्यक किसी ने उस का पैसा भर अपराध किया हो तो उसका बदला लेने को प्राण तक तत्पर रहै (स्वार्थसाधनतत्परः) चाहै कपट अधर्म विश्वासघात क्यों न हो; अपना प्रयोजन साधने में चतुर (शठः) चाहै अपनी बातें झूठी क्यों न हों परन्तु हठ कभी न छोड़े (मिथ्याविनीतः) झूठ मूँठ ऊपर से शील सन्तोष और साधुता दिखलावे उस को (वकव्रत) बगुले के समान नीच समझो। ऐसे-ऐसे लक्षणों वाले पाखण्डी होते हैं, उन का विश्वास व सेवा कभी न करें।।२।।

धर्मं शनैः सञ्चिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः।
परलोकसहायार्थं सर्वलोकान्यपीडयन्।।१।।

नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः।
न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः।।२।।

एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एको नु भुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्।।३।।

एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते।।४।।

मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
मनु०।।

स्त्री और पुरुष को चाहिये कि जैसे पुत्तिका अर्थात् दीमक वल्मीक अर्थात् बांबी को बनाती है वैसे सब भूतों को पीड़ा न देकर परलोक अर्थात् परजन्म के सुखार्थ वमीरे-वमीरे धर्म का सञ्चय करे।।१।। क्योंकि परलोक में न माता न पिता न पुत्र न स्त्री न ज्ञाति सहाय कर सकते हैं किन्तु एक धर्म ही सहायक होता है।।२।। देखिये अकेला ही जीव जन्म और मरण को प्राप्त होता, एक ही धर्म का फल सुख और अधर्म का जो दुःख रूप फल उस को भोगता है।।३।। यह भी समझ लो कि कुटुम्ब में एक पुरुष पाप करके पदार्थ लाता है और महाजन अर्थात् कुटुम्ब उस को भोक्ता है। भोगनेवाले दोषभागी नहीं होते किन्तु अधर्म का कर्त्ता ही दोष का भागी होता है।।४।। जब कोई किसी का सम्बन्धी मर जाता है उस को मट्टी के ढेले के समान भूमि में छोड़ कर पीठ दे बन्धुवर्ग विमुख होकर चले जाते हैं। कोई उसके साथ जानेवाला नहीं होता किन्तु एक धर्म ही उस का संगी होता है।।५।।

तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं सञ्चिनुयाच्छनैः।
धर्म्मेण ही सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्।।१।।

धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम्।
परलोकं नयत्याशु भास्वतं खशरीरिणम्।।२।।
मनु०।।

उस हेतु से परलोक अर्थात् परजन्म में सुख और इस जन्म के सहायतार्थ नित्य धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाय क्योंकि धर्म ही के सहाय से बड़े-बड़े दुस्तर दुःखसागर को जीव तर सकता है।।१।। किन्तु जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है जिस का धर्म के अनुष्ठान से कर्त्तव्य पाप दूर हो गया उस को प्रकाशस्वरूप और आकाश जिस का शरीरवत् है उस परलोक अर्थात् परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।।२।। इसलिये-

दृढकारी मृदुर्दान्तः त्रफ़ूराचारैरसंवसन्।
अहिस्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथा व्रतः।।१।।

वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः।
तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।२।।

आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः।
आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्।।३।।
मनु०।।

सदा दृढ़कारी, कोमल स्वभाव, जितेन्द्रिय, हिसक, क्रूर, दुष्टाचारी पुरुषों से पृथक् रहनेहारा धर्मात्मा मन को जीत और विद्यादि दान से सुख को प्राप्त होवे।।१।। परन्तु यह भी ध्यान में रक्खें कि जिस वाणी में सब अर्थ अर्थात् व्यवहार निश्चित होते हैं वह वाणी ही उन का मूल और वाणी ही से सब व्यवहार सिद्ध होते हैं उस वाणी को जो चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है वह सब चोरी आदि पापों का करने वाला है।।२।। इसलिये मिथ्याभाषणादिरूप अधर्म को छोड़ जो धर्माचार अर्थात् ब्रह्मचर्य जितेन्द्रियता से पूर्ण आयु और धर्माचार से उत्तम प्रजा तथा अक्षय धन को प्राप्त होता है तथा जो धर्माचार में वर्त्तकर दुष्ट लक्षणों का नाश करता है; उसके आचरण को सदा किया करे।।३।। क्योंकि- 

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः।
दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।।
मनु०।।

जो दुष्टाचारी पुरुष है वह संसार में सज्जनों के मध्य में निन्दा को प्राप्त दुःखभागी और निरन्तर व्याधियुक्त होकर अल्पायु का भी भोगनेहारा होता है। इसलिये ऐसा प्रयत्न करे-

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।।१।।

सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।२।।
मनु०।।

जो-जो पराधीन कर्म हो उस-उस का प्रयत्न से त्याग और जो जो स्वाधीन कर्म हो उस-उस का प्रयत्न के साथ सेवन करे।।१।। क्योंकि जो-जो पराधीनता है वह-वह सब दुःख और जो-जो स्वाधीनता है वह-वह सब सुख यही संक्षेप से सुख और दुःख के लक्षण जानना चाहिये।।२।। परन्तु जो एक दूसरे के आधीन काम है वह-वह आवमीनता से ही करना चाहिये जैसा कि स्त्री और पुरुष का एक दूसरे के आधीन व्यवहार। अर्थात् स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का परस्पर प्रियाचरण अनुकूल रहना व्यभिचार वा विरोध कभी न करना। पुरुष की आज्ञानुकूल घर के काम स्त्री और बाहर के काम पुरुष के आधीन रहना, दुष्ट व्यसन में फँसने से एक दूसरे को रोकना अर्थात् यही निश्चय जानना। जब विवाह होवे तब स्त्री के हाथ पुरुष और पुरुष के हाथ स्त्री बिक चुकी अर्थात् जो स्त्री और पुरुष के साथ हाव, भाव, नखशिखाग्रपर्यन्त जो कुछ हैं वह वीर्यादि एक दूसरे के आधीन हो जाता है। स्त्री वा पुरुष प्रसन्नता के विना कोई भी व्यवहार न करें। इन में बड़े अप्रियकारक व्यभिचार, वेश्या, परपुरुषगमनादि काम हैं। इन को छोड़ के अपने पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति सदा प्रसन्न रहैं। जो ब्राह्मणवर्णस्थ हों तो पुरुष लड़कों को पढ़ावे तथा सुशिक्षिता स्त्री लड़कियों को पढ़ावे। नानाविध उपदेश और वक्तृत्व करके उन को विद्वान् करें। स्त्री का पूजनीय देव पति और पुरुष की पूजनीय अर्थात् सत्कार करने योग्य देवी स्त्री है। जब तक गुरुकुल में रहैं तब तक माता पिता के समान अध्यापकों को समझें और अध्यापक अपने सन्तानों के समान शिष्यों को समझें। पढ़ानेहारे अध्यापक और अध्यापिका कैसे होने चाहिये -

आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।१।।

निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम्।।२।।

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति, विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासम्पृष्टो ह्युपयुङ्क्ते परार्थे, तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य।।३।।

नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः।।४।।

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते।।५।।

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असम्भिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः।।६।।

- ये सब महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर के श्लोक हैं।

अर्थ- जिस को आत्मज्ञान सम्यक् आरम्भ अर्थात् जो निकम्मा आलसी कभी न रहै; सुख दुःख, हानि लाभ, मानापमान, निन्दा स्तुति में हर्ष शोक कभी न करे; धर्म ही में नित्य निश्चित रहै; जिस के मन को उत्तम-उत्तम पदार्थ अर्थात् विषय सम्बन्धी वस्तु आकर्षण न कर सकें वही पण्डित कहाता है।।१।। सदा धर्मयुक्त कर्मों का सेवन; अधर्मयुक्त कामों का त्याग; ईश्वर, वेद, सत्याचार की निन्दा न करनेहारा; ईश्वर आदि में अत्यन्त श्रद्धालु हो; वही पण्डित का कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्म है।।२।। जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके; बहुत कालपर्य्यन्त शास्त्रें को पढ़े सुने और विचारे; जो कुछ जाने उस को परोपकार में प्रयुक्त करे; अपने स्वार्थ के लिये कोई काम न करे; विना पूछे वा विना योग्य समय जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे। वही प्रथम प्रज्ञान पण्डित को होना चाहिये।।३।। जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे; नष्ट हुए पदार्थ पर शोक न करे; आपत्काल में मोह को न प्राप्त अर्थात् व्याकुल न हो वही बुद्धिमान् पण्डित है।।४।। जिस की वाणी सब विद्याओं और प्रश्नोत्तरों के करने में अतिनिपुण; विचित्र शास्त्रें के प्रकरणों का वक्ता; यथायोग्य तर्क और स्मृतिमान्; ग्रन्थों के यथार्थ अर्थ का शीघ्र वक्ता हो वही पण्डित कहाता है।।५।। जिस की प्रज्ञा सुने हुए सत्य अर्थ के अनुकूल और जिस का श्रवण बुद्धि के अनुसार हो जो कभी आर्य अर्थात् श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों की मर्यादा का छेदन न करे वही पण्डित संज्ञा को प्राप्त होवे।।६।। जहां ऐसे-ऐसे स्त्री पुरुष पढ़ाने वाले होते हैं वहां विद्या धर्म और उत्तमाचार की वृद्धि होकर प्रतिदिन आनन्द ही बढ़ता रहता है। पढ़ाने में अयोग्य और मूर्ख के लक्षण-

अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः। 
अर्थांश्चाऽकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः।।१।।

अनाहूतः प्रविशति ह्यपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।।२।। 
- ये श्लोक भी महाभारत उद्योग पर्व विदुरप्रजागर के हैं।

अर्थ-जिस ने कोई शास्त्र न पढ़ा न सुना अतीव घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करने हारा, विना कर्म से पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो, उसी को बुद्धिमान् लोग मूढ़ कहते हैं।।१।। जो विना बुलाये सभा वा किसी के घर में प्रविष्ट हो उच्च आसन पर बैठना चाहै; विना पूछे सभा में बहुत सा बके; विश्वास के अयोग्य वस्तु वा मनुष्य में विश्वास करे वही मूढ़ और सब मनुष्यों में नीच मनुष्य कहाता है।।२।। जहां ऐसे पुरुष अध्यापक, उपदेशक, गुरु और माननीय होते हैं वहां अविद्या, अधर्म, असभ्यता, कलह, विरोध और फूट बढ़ के दुःख ही बढ़ता जाता है। अब विद्यार्थियों के लक्षण-

आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च।
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः।।१।।

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम्।।२।।

- ये भी विदुरप्रजागर के श्लोक हैं। (आलस्य) शरीर और बुद्धि में जड़ता, नशा, मोह=किसी वस्तु में फंसावट, चपलता और इधर-उधर की व्यर्थ कथा करना सुनना, पढ़ते पढ़ाते रुक जाना, अभिमानी, अत्यागी होना ये सात दोष विद्यार्थियों में होते हैं।।१।। जो ऐसे होते हैं उन को विद्या कभी नहीं आती। सुख भोगने की इच्छा करने वाले को विद्या कहां?  और विद्या पढ़ने वाले को सुख कहां?  क्योंकि विषयसुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दे।।२।। ऐसे किये विना विद्या कभी नहीं हो सकती। और ऐसे को विद्या होती है-

सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम्।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम्।।१।।

जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिन का वीर्य अध्स्खलित कभी न हो उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा और वे ही विद्वान् होते हैं ||१|| 

इसलिये शुभ लक्षणयुत्तफ अध्यापक और विद्यार्थियों को होना चाहिये | अध्यापक लोग ऐसा यत्न किया करें जिस से विद्यार्थी लोग सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी सभ्यता, जितेन्द्रिय, सुशीलतादि शुभगुण युक्त शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ा के समग्र वेदादि शास्त्रों में विद्वान् हों |सदा उन की कुचेष्टा छुड़ाने में और विद्या पढ़ाने में चेष्टा किया करें और विद्यार्थी लोग सदा जितेन्द्रिय, शान्त, पढ़ानेहारों में प्रेम, विचारशील, परिश्रमी होकर ऐसा पुरुषार्थ करें जिस से पूर्ण विद्या, पूर्ण आयु, परिपूर्ण धर्म और पुरुषार्थ करना आ जाय इत्यादि ब्राह्मण वर्णों के काम हैं |क्षत्रियों का कर्म राजधर्म में कहेंगे | जो वैश्य हों वे ब्रह्मचर्यादि से वेदादि विद्या पढ़ विवाह करने नाना देशों की भाषा, नाना प्रकार के व्यापार की रीति, उन के भाव जानना, बेचना, खरीदना द्वीपद्वीपान्तर में जाना आना, लाभार्थ काम को आरम्भ करना, पशुपालन और खेती की उन्नति चतुराई से करनी करानी, धन को बढ़ाना, विद्या और धर्म की उन्नति में व्यय करना, सत्यवादी निष्कपटी होकर सत्यता से सब व्यापार करना, सब वस्तुओं की रक्षा ऐसी करनी जिस से कोई नष्ट न होने पावे | शूद्र सब सेवाओं में चतुर, पाकविद्या में निपुण, अतिप्रेम से द्विजों की सेवा और उन्हीं से अपनी उपजीविका करे और द्विज लोग इस के खान, पान, वस्त्र, स्थान, विवाहादि में जो कुछ व्यय हो सब कुछ देवें अथवा मासिक कर देवें | चारों वर्ण परस्पर प्रीति, उपकार, सज्जनता, सुख, दुःख, हानि, लाभ में ऐकमत्य रहकर राज्य और प्रजा की उन्नति में तन, मन, धन का व्यय करते रहें | स्त्री और पुरुष का वियोग कभी न होना चाहिए | क्योंकि-

पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोSटनम |
स्वप्नोSन्यगेहवासश्च नारीसन्दूषणानि षट ||
मनु०||

मद्य, भांग आदि मादक द्रव्यों का पीना, दुष्ट पुरुषों का सग्, पतिवियोग, अकेली जहां तहां व्यर्थ पाखण्डी आदि के दर्शन मिस से फीरती रहना और पराये घर में जाके शयन करना वा वास ये छः स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं और ये पुरुषो के भी हैं | पति और स्त्री का वियोग दो प्रकार का होता है | कहीं कार्यार्थ देशान्तर में जाना और दूसरा मृत्यु से वियोग होना इन में से प्रथम का उपाय यही है कि दूर देश में यात्रार्थ जावे तो स्त्री को भी साथ रक्खे | इस का प्रयोजन यह है कि बहुत समय तक वियोग न रहना चाहिये | प्रश्न- स्त्री और पुरुष का बहु विवाह होना योग्य है वा नहीं?

(उत्तर) - युगपत् न अर्थात् एक समय में नहीं |

(प्रश्न) - क्या समयान्तर मे अनेक विवाह होने चाहियें?

(उत्तर) - हां जैसे-

या स्त्री त्वक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागतापि वा |
पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति ||
मनु०||

जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहणमात्रा संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, उनका अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिये | किन्तु ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में क्षतयोनि स्त्री क्षतवीर्य पुरुष का पुनर्विवाह न होना चाहिये |

(प्रश्न) - पुनर्विवाह में क्या दोष है?

(उत्तर) - (पहला) स्त्री पुरुष में प्रेम न्यून होना क्योंकि जब चाहे तब पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़ कर दूसरे के साथ सम्बन्ध् कर ले | (दूसरा) जब स्त्री वा पुरुष पति स्त्री मरने के पश्चात् दूसरा विवाह करना चाहें तब प्रथम स्त्री के वा पूर्व पति के पदार्थों को उड़ा ले जाना और उनके कुटुम्ब वालों का उनसे झगड़ा करना (तीसरा) बहुत से भद्रकुल का नाम वा चिन्ह भी न रह कर उसके पदार्थ छिन्न भिन्न हो जाना (चौथा) पतिव्रत और स्त्राीव्रत धर्म नष्ट होना इत्यादि दोषों के अर्थ द्विजों में पुनर्विवाह वा अनेक विवाह कभी न होने चाहिये |

(प्रश्न) जब वंशच्छेदन हो जाय तब भी उस का कुल नष्ट हो जायगा और स्त्री पुरुष व्यभिचारादि कर्म कर के गर्भपातनादि बहुत दुष्ट कर्म करेंगे इसलिये पुनर्विवाह होना अच्छा है |

(उत्तर) नहीं-नहीं क्योंकि जो स्त्री पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थिर रहना चाहैं तो कोई भी उपद्रव न होगा और जो कुल की परम्परा रखने के लिये किसी अपने स्वजाति का लड़का गोद ले लेंगे उस से कुल चलेगा और व्यभिचार भी न होगा और जो ब्रह्मचर्य न रख सके तो नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लें |

(प्रश्न) पुनर्विवाह और नियोग में क्या भेद है?

(उत्तर) (पहला) जैसे विवाह करने में कन्या अपने पिता का घर छोड़ पति के घर को प्राप्त होती है और पिता से विशेष सम्बन्ध् नहीं रहता और विध्वा स्त्री उसी विवाहित पति के घर में रहती है | (दूसरा) उसी विवाहिता स्त्री के लड़के उसी विवाहित पति के दायभागी होते हैं और विध्वा स्त्री के लड़के वीर्यदाता के न पुत्रा कहलाते न उस का गोत्रा होता और न उस का स्वत्व उन लड़कों पर रहता किन्तु मृतपति के पुत्र बजते, उसी का गोत्रा रहता और उसी के पदार्थों के दायभागी होकर उसी घर में रहते हैं| (तीसरा) विवाहित स्त्री-पुरुष को परस्पर सेवा और पालन करना अवश्य है | और नियुत्तफ स्त्री-पुरुष का कुछ भी सम्बन्ध् नहीं रहता | (चौथा) विवाहित स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध् मरणपर्यन्त रहता और नियुक्त स्त्राी-पुरुष का कार्य के पश्चात् छूट जाता है|(पांचवां) विवाहित स्त्री-पुरुष आपस में गृह के कार्यों की सिद्धि करने में यत्न किया करते और नियुत्तफ स्त्री-पुरुष अपने-अपने घर के काम किया करते हैं |

(प्रश्न) विवाह और नियोग के नियम एक से हैं वा पृथक्-पृथक् ?

(उत्तर) कुछ थोड़ा सा भेद है | जितने पूर्व कह आये और यह कि विवाहित स्त्री-पुरुष एक पति और एक ही स्त्री मिल के दश सन्तान तक उत्पन्न  कर सकते हैं और नियुत्तफ स्त्री वा पुरुष दो वा चार से अधिक सन्तानोत्पत्ति नहीं कर सकते | अर्थात् जैसा कुमार कुमारी ही का विवाह होता है वैसे जिस की स्त्राी वा पुरुष मर जाता है उन्हीं का नियोग होता है | कुमारी का नहीं | जैसे विवाहित स्त्री पुरुष सदा संग में रहते वैसे नियुक्त स्त्री पुरुष का व्यवहार नहीं किन्तु विना ऋतुदान के समय एकत्र  न हों | जो स्त्री अपने लिये नियोग करे तो जब दूसरा गर्भ रहे उसी दिन से स्त्री पुरुष का सम्बन्ध् छूट जाय और जो पुरुष अपने लिये करे तो भी दूसरे गर्भ रहने से सम्बन्ध् छूट जाय | परन्तु वही नियुक्त स्त्री दो तीन वर्ष पर्यन्त उन लड़कों का पालन करके  नियुक्त पुरुष को दे देवे | ऐसे एक विध्वा स्त्री दो अपने लिये और दो-दो अन्य चार नियुत्तफ पुरुषों के लिए दो-दो सन्तान कर सकती और एक मृतस्त्रीपुरुष भी दो अपने लिये और दो-दो अन्य अन्य चार विध्वाओं के लिये पुत्र उत्पन्न कर सकता है| ऐसे मिलकर दस-दस सन्तानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है | जैसे-

इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु ।
दशास्यां पु त्रानाधेहि  पतिमेकाद शं कृधि  ।।
-ऋ० मं० १० | सू ० ८५ | मं ० ४५ ||

हे (मीढ्व इन्द्र) वीर्य सेचन में समर्थ ऐश्वर्ययुत्तफ पुरुष !तू इस विवाहित स्त्री वा विध्वा स्त्रिायों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर | इस विवाहित स्त्री में दश पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान !हे स्त्री !तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ | इस वेद की आज्ञा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्णस्थ स्त्री और पुरुष दश-दश सन्तान से अधिक उत्पन्न न करें |क्योंकि अधिक करने से सन्तान निर्बल, निर्बुद्धि, अल्पायु होते हैं और स्त्री तथा पुरुष भी निर्बल, अल्पायु और रोगी होकर वृद्धावस्था में बहुत से दुःख पाते हैं | 

(प्रश्न) यह नियोग की बात व्यभिचार के समान दीखती है |

(उत्तर) जैसे विना विवाहितों का व्यभिचार होता है वैसे विना नियुत्तकों का व्यभिचार कहाता है | इस से यह सिद्ध हुआ कि जैसा नियम से विवाह होने पर व्यभिचार नहीं कहाता तो नियमपूर्वक नियोग होने से व्यभिचार न कहावेगा | जैसे दूसरे की कन्या का दूसरे के कुमार के साथ शास्त्रोक्त विधिपूर्वक विवाह होने पर समागम में व्यभिचार वा पाप लज्जा नहीं होती, वैसे ही वेदशास्त्रोक्त नियोग में व्यभिचार पाप लज्जा न मानना चाहिये |

(प्रश्न) है तो ठीक, परन्तु यह वेश्या के सदृश कर्म दिखता है |

(उत्तर) नहीं, क्योंकि वेश्या के समागम में किसी निश्चित पुरुष वा कोई नियम नहीं है और नियोग में विवाह के समान नियम हैं | जैसे दूसरे को लड़की देने, दूसरे के साथ समागम करने में विवाहपूर्वक लज्जा नहीं होती, वैसे ही नियोग में भी न होनी चाहिये | क्या जो व्यभिचारी पुरुष वा स्त्री होते हैं वे विवाह होने पर भी कुकर्म से बचते हैं?

(प्रश्न) हम को नियोग की बात में पाप मालूम पड़ता है |

(उत्तर) जो नियोग की बात में पाप मानते हो तो विवाह में पाप क्यों नहीं मानते? पाप तो नियोग के रोकने में है? क्योंकि ईश्वर के सृष्टिक्रमानुकूल स्त्री पुरुष का स्वाभाविक व्यवहार रुक ही नहीं सकता, सिवाय वैराग्यवान् पूर्ण विद्वान् योगियों के | क्या गर्भपातनरूप भ्रूणहत्या और विध्वा स्त्री और मृतकस्त्राी पुरुष के महासन्ताप को पाप नहीं गिनते हो? क्योंकि जब तक वे युवावस्था में हैं मन में सन्तानोत्पत्ति और विषय की चाहना होने वालों को किसी राजव्यवहार वा जातिव्यवहार से रुकावट होने से गुप्त-गुप्त कुकर्म बुरी चाल से होते रहते हैं | इस व्यभिचार और कुकर्म के रोकने का एक यही श्रेष्ठ उपाय है कि जो जितेन्द्रिय रह सके विवाह वा नियोग भी न करें तो ठीक है | परन्तु जो ऐसे नहीं हैं उन का विवाह और आपत्काल में नियोग अवश्य होना चाहिये | इस से व्यभिचार का न्यून होना, प्रेम से उत्तम सन्तान होकर मनुष्यों की वृद्धि होना सम्भव है और गर्भहत्या सर्वथा छूट जाती है | नीच पुरुषों से उत्तम स्त्री और वेश्यादि नीच स्त्रिायों से उत्तम पुरुषों का व्यभिचाररूप कुकर्म, उत्तम कुल में कलंक, वंश का उच्छेद, स्त्री और पुरुषों को सन्ताप और गर्भहत्यादि कुकर्म विवाह और नियोग से निवृत्त होते हैं, इसलिये नियोग करना चाहिये |

(प्रश्न) नियोग में क्या-क्या बात होनी चाहिये?

(उत्तर) जैसे प्रसिद्धि से विवाह, वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग | जिस प्रकार विवाह में भद्र पुरुषों की अनुमति और कन्या-वर की प्रसन्नता होती है, वैसे नियोग में भी | अर्थात् जब स्त्राी-पुरुष का नियोग होना हो तब अपने कुटुम्ब में पुरुष स्त्रियों के सामने हम दोनों नियोग सन्तानोत्पत्ति के लिये करते हैं |जब नियोग का नियम पूरा होगा तब हम संयोग न करेंगे | जो अन्यथा करें तो पापी और जाति वा राज्य के दण्डनीय हों | महीने में एकवार गर्भाधन का काम करेंगे, गर्भ रहे पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त पृथक् रहेंगे |

(प्रश्न) नियोग अपने वर्ण में होना चाहिये वा अन्य वर्णों के साथ भी?

(उत्तर) अपने वर्ण में वा अपने से उत्तमवर्णस्थ पुरुष के साथ अर्थात् वैश्या स्त्री वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ; क्षत्रिया क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ; ब्राह्मणी ब्राह्मण के साथ नियोग कर सकती है | इसका तात्पर्य यह है कि वीर्य सम वा उत्तम वर्ण का चाहिये, अपने से नीचे वर्ण का नहीं |स्त्राी और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि धर्म से अर्थात् वेदोक्त रीति से विवाह वा नियोग से सन्तानोत्पत्ति करना |

(प्रश्न) पुरुष को नियोग करने की क्या आवश्यकता है क्योंकि वह दूसरा विवाह करेगा?

(उत्तर) हम लिख आये हैं, द्विजों में स्त्री और पुरुष का एक ही वार विवाह होना वेदादि शास्त्रों में लिखा है, द्वितीय वार नहीं | कुमार और कुमारी का विवाह होने में न्याय और विध्वा स्त्री के साथ कुमार पुरुष और कुमारी स्त्री के साथ मृतस्त्री पुरुष के विवाह होने में अन्याय अर्थात् अधर्म है | जैसे विध्वा स्त्री के साथ कुमार पुरुष विवाह नहीं किया चाहता, वैसे ही विवाहित स्त्री से समागम किये हुए पुरुष के साथ विवाह करने की इच्छा कुमारी भी न करेगी | जब विवाह किये हुए पुरुष को कोई कुमारी कन्या और विध्वा स्त्री का ग्रहण कोई कुमार पुरुष न करेगा तब पुरुष और स्त्राी को नियोग करने की आवश्यकता होगी और यही धर्म है कि जैसे के साथ वैसे ही का सम्बन्ध् होना चाहिये |

(प्रश्न) जैसे विवाह में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण है, वैसे नियोग में प्रमाण है वा नहीं?

(उत्तर) इस विषय में बहुत प्रमाण हैं। देखो और सुनो- 

कुह स्विद्दो षा कुह  वस्तोर श्विना  कुहापिभिपि त्वं करत: कुहोषतुः । 
को वां शयु त्रा विधवेवपिव दे वरं  मर्य्य  न योषा कृणुते स धस्थ आ ||
-ऋ० मं० १० | सू० ४० | मं० २ ||

उदीषर्व नार्य भिजीवलो वंफ ग तासुमे तमुप शेष  एहि ।
हस्त ग्रा भस्य दिधि षोस्तवे दं पत्यु र्जनि त्वम भि सं बभूथ ।।२।।
– ऋ० मं० १० | सू० १८ | मं० ८ ||

हे (अश्विना) स्त्री पुरुषो !जैसे (देवरं विधवेव ) देवर को विधवा और (योषा मर्यन्न) विवाहिता स्त्री अपने पति को (सध्स्थे) समान स्थान शय्या में एकत्रा होकर सन्तानोत्पत्ति को (आ कृणुते) सब प्रकार से उत्पन्न करती है, वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष (कुह स्विद्दोषा) कहां रात्रि और (कुह वस्तः) कहां दिन में वसे थे? (कुहाभिपित्वम) कहां पदार्थों की प्राप्ति (करतः) की? और (कुहोषतुः) किस समय कहां वास करते थे? (को वां शयुत्रा) तुम्हारा शयनस्थान कहां है? तथा कौन वा किस देश के रहने वाले हो? इससे यह सिद्ध हुआ कि देश विदेश में स्त्राी पुरुष संग ही में रहैं और विवाहित पति के समान नियुक्त पति को ग्रहण करके विध्वा स्त्री भी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे|

(प्रश्न) यदि किसी का छोटा भाई ही न हो तो विध्वा नियोग किसके साथ करे?

(उत्तर) देवर के साथ, परन्तु देवर शब्द का अर्थ जैसा तुम समझे हो वैसा नहीं | देखो निरुक्त में- देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते |-निरू० अ० ३ | खण्ड १५ || देवर उस को कहते हैं कि जो विध्वा का दूसरा पति होता है, चाहे छोटा भाई वा बड़ा भाई, अथवा अपने वर्ण वा अपने से उत्तम वर्ण वाला हो, जिस से नियोग करे उसी का नाम देवर है | (नारि) विध्वे तू (एतं गतासुम) इस मरे हुए पति की आशा छोड़ के (शेषे) बाकी पुरुषों में से (अभि जीवलोकम) जीते हुए दूसरे पति को (उपैहि) प्राप्त हो और (उदीष्र्व) इस बात का विचार और निश्चय रख कि जो (हस्तग्राभस्य दिधिषो:) तुम विध्वा के पुनः पाणिग्रहण करने वाले नियुक्त पति के सम्बन्ध् के लिये नियोग होगा तो (इदम्) यह (जनित्वम्) जना हुआ बालक उसी नियुक्त (पत्युः) पति का होगा और जो तू अपने लिये नियोग करेगी तो यह सन्तान (तव) तेरा होगा | ऐसे निश्चययुक्त (अभि सम् बभूथ) हो और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का पालन करे |

अदेवृघ्न्यपतिघ्नी है धिशिवा पशुभ्य: सुयमा सुवर्चा ।
प्रजावती वीरसूर्दे वृकामा स्यो नेमगनिम गार्हपत्यं सपर्य ।।
-अथर्व० का० १४ |अनु० २ | मं० १८ ||

हे (अपतिघ्न्यदेवृघ्नि) पति और देवर को दुःख न देने वली स्त्री तू (इह) इस गृहाश्रम में (पशुभ्यः) पशुओं के लिये (शिवा) कल्याण करनेहारी (सुयमा) अच्छे प्रकार धर्म-नियम में चलने (सुवर्चाः) रूप और सर्वशास्त्रा विद्यायुक्त (प्रजावती) उत्तम पुत्र पौत्रादि से सहित (वीरसूः) शूरवीर पुत्रों को जनने (देवृकामा) देवर की कामना करने वाली (स्योना) और सुख देनेहारी पति वा देवर को (एधि) प्राप्त होके (इमम्) इस (गार्हपत्यम्) गृहस्थ सम्बंधी (अग्निम्) अग्निहोत्रा का (सपर्य) सेवन किया कर | तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः || मनु || जो अक्षतयोनि स्त्री विध्वा हो जाय तो पति का निज छोटा भाई उस से विवाह कर सकता है |

(प्रश्न) एक स्त्री वा पुरुष कितने नियोग कर सकते हैं और विवाहित नियुक्त पतियों का नाम क्या होता है?

(उत्तर) सोम: प्रथमो विविदे गन्ध्र्वो विविद  उत्तरः ।
तृतीयो अग्निष्टे  पतिस्तु रीयस्ते मनुष्य जाः ।। -ऋ०  मं० १० |  सू० ८५ | मं० ४० || 

हे स्त्रिा!जो (ते) तेरा (प्रथमः) पहला विवाहित (पतिः) पति तुझ को (विविदे) प्राप्त होता है उस का नाम (सोमः) सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से सोम, जो दूसरा नियोग होने से (विविदे) प्राप्त होता वह (गन्धर्व:) एक स्त्री से संभोग करने से गन्धर्व, जो (तृतीय उत्तरः) दो के पश्चात् तीसरा पति होता है वह (अग्निः) अत्युष्णतायुक्त होने से अग्निसंज्ञक और जो (ते) तेरे (तुरीयः) चौथे से लेके ग्यारहवें तक नियोग से पति होते हैं वे (मनुष्यजाः) मनुष्य नाम से कहाते हैं | जैसा (इमां त्वमिन्द्र)  इस मन्त्रा में ग्यारहवें पुरुष तक स्त्राी नियोग कर सकती है, वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री तक नियोग कर सकता है |

(प्रश्न) एकादश शब्द से दश पुत्र और ग्यारहवें पति को क्यों गिने? 

(उत्तर) जो ऐसा अर्थ करोगे तो ‘विध्वेव देवरम्’ ‘देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते’ ‘अदेवृघ्नि’और ‘गन्ध्र्वो विविद उत्तरः’इत्यादि वेदप्रमाणों से विरुध्दार्थ होगा क्योंकि तुम्हारे अर्थ से दूसरा भी पति प्राप्त नहीं हो सकता |

देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिाया सम्यघ् नियुक्तया |
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये ||१||
ज्येष्ठो यवीयसो भार्य्या यवीयान्वाग्रजस्त्रिायम् |
पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि || २ ||
औरसः क्षेत्राजश्चै ० ||३|| मनु०|| इत्यादि मनु जी ने लिखा है कि (सपिण्ड) अर्थात् पति की छः पीढि़यों में पति का छोटा वा बड़ा भाई अथवा स्वजातीय तथा अपने से उत्तम जातिस्थ पुरुष से विध्वा स्त्री का नियोग होना चाहिये | परन्तु जो वह मृतस्त्रीपुरुष वा विध्वा स्त्री सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करती हो तो नियोग होना उचित है | और जब सन्तान का सर्वथा क्षय हो तब नियोग होवे | जो आपत्काल अर्थात् सन्तानों के  होने की इच्छा न होने में बड़े भाई की स्त्री से छोटे का और छोटे की स्त्री से बड़े भाई का नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति हो जाने पर भी पुनः वे नियुक्त आपस में समागम करें तो पतित हो जायें |अर्थात् एक नियोग में दूसरे पुत्र के गर्भ रहने तक नियोग की अवधि है | इसके  पश्चात् समागम न करें और जो दोनों के लिये नियोग हुआ हो तो चौथे गर्भ तक अर्थात् पूर्वोक्त रीति से दस सन्तान तक हो सकते हैं | पश्चात् विषयासक्ति गिनी जाती है, इस से वे पतित गिने जाते हैं और जो विवाहित स्त्री पुरुष भी दशवें गर्भ से अधिक समागम करें तो कामी और निन्दित होते हैं? अर्थात् विवाह वा नियोग सन्तानों ही के अर्थ किये जाते हैं पशुवत् कामक्रीडा के लिये नहीं |

(प्रश्न) नियोग मरे पीछे ही होता है वा जीते पति के भी?

(उत्तर) जीते भी होता है | अ न्यमिपिच्छस्व सुभगे  पतिं  मत् ।। – ऋ  मं० ११ | सू० १० || जब पति सन्तानोत्पति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा करने हारी स्त्री तू (मत्) मुझ से (अन्यम्) दूसरे पति की (इच्छस्व) इच्छा कर क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति की आशा मत कर | तब स्त्री दूसरे से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करे परन्तु उस विवाहित महाशय पति की सेवा में तत्पर रहै | वैसे हीे स्त्री भी जब रोगादि दोषों से ग्रस्त होकर सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपने पति को आज्ञा देवे कि हे स्वामी आप सन्तानोत्पत्ति की इच्छा मुझ से छोड़ के किसी दूसरी विध्वा स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कीजिये | जैसा कि पाण्डु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने किया और जैसा व्यास जी ने चित्राग्द और विचित्रवीर्य के मर जाने पश्चात् उन अपने भाइयों की स्त्रिायों से नियोग करके अम्बिका में धृतराष्ट्र और अम्बालिका में पाण्डु और दासी में विदुर की उत्पत्ति की | इत्यादि इतिहास भी इस बात में प्रमाण है |

प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योsष्टौ नरः समाः |
विद्यार्थं षड् यशोsर्थं वा कामार्थं त्रीस्तु वत्सरान् ||१||

वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजाः |
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी || २ ||
मनु० || विवाहित स्त्री जो विवाहित पति धर्म के अर्थ परदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या और कीर्ति के लिये गया हो तो छः और धनादि कामना के लिये गया हो तो तीन वर्ष तक बाट देख के, पश्चात् नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर ले | जब विवाहित पति आवे तब नियुक्त पति छूट जावे ||१|| वैसे ही पुरुष के लिये भी नियम है कि वन्ध्या हो तो आठवें (विवाह से आठ वर्ष तक स्त्री को गर्भ न रहै), सन्तान होकर मर जायें तो दशवें, जब-जब हो तब-तब कन्या ही होवे पुत्रा न हों तो ग्यारहवें वर्ष तक और जो अप्रिय बोलने वाली हो तो सद्यः उस स्त्राी को छोड़ के दूसरी स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लेवे ||२|| वैसे ही जो पुरुष अत्यन्त दुःखदायक हो तो स्त्री को उचित है कि उस को छोड़ के दूसरे पुरुष से नियोग कर सन्तानोत्पत्ति करके उसी विवाहित पति के दायभागी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे | इत्यादि प्रमाण और युयों से स्वयंवर विवाह और नियोग से अपने-अपने कुफल की उन्नति करे |जैसा ‘औरस’ अर्थात् विवाहित पति से उत्पन्न हुआ पुत्र पिता के पदार्थों का स्वामी होता है वैसे ही ‘क्षेत्रज’ अर्थात् नियोग से उत्पन्न हुए पुत्र भी पिता के दायभागी होते हैं | अब इस पर स्त्री और पुरुष को ध्यान रखना चाहिये कि वीर्य और रज को मूल्य समझें । जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं वे महामूर्ख होते हैं। क्योंकि किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के विना अन्यत्र बीज नहीं बोते । जो कि साधरण बीज और मूर्ख का ऐसा वर्तमान है तो जो सर्वोत्तम मनुष्यशरीर रूप वृक्ष के बीज को कुक्षेत्र में खोता है वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उस का फल उस को नही मिलता और ‘आत्मा वै जायते पुत्राः’ यह ब्राह्मण ग्रन्थों का वचन है।

अंगादंगात सम्भवसि  हृदया दधि जायसे ।
आत्मासि पुत्रामा  मृथाः सजीव शरदः शतम् ।।

यह सामवेद वेफ ब्राह्मण का वचन है। हे पुत्रा!तू अंग-अंग से  उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है, इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरे किन्तु सौ वर्ष तक जी | जिससे ऐसे-ऐसे महात्मा और महाशयों के शरीर उत्पन्न होते हैं उस को वेश्यादि दुष्ट क्षेत्रा में बोना वा दुष्टबीज अच्छे क्षेत्र में बुवाना महापाप का काम है |

(प्रश्न) विवाह क्यों करना? क्योंकि इस से स्त्राी पुरुष को बन्ध्न में पड़के बहुत संकोच करना और दुःख भोगना पड़ता है इसलिये जिस के साथ जिस की प्रीति हो तब तक वे मिले रहें, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें |

(उत्तर) यह पशु पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं | जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहै तो गृहाश्रम के अच्छे-अच्छे व्यवहार सब नष्ट भ्रष्ट हो जायें | कोई किसी की सेवा भी न करे और महाव्यभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्र-शीघ्र मर जायें | कोई किसी से भय वा लज्जा न करे | वृध्दावस्था में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्यभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर कुलों के कुल नष्ट हो जायें | कोई किसी के पदार्थों का स्वामी वा दायभागी भी न हो सके और न किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकालपर्यन्त स्वत्व रहै | इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है |

(प्रश्न) जब एक विवाह होगा एक पुरुष को एक स्त्री और एक स्त्री को एक पुरुष रहेगा जब स्त्री गर्भवती स्थिररोगिणी अथवा पुरुष दीर्घरोगी हो और दोनों की युवावस्था हो, रहा न जाय तो फिर क्या करे?

(उत्तर) इस का प्रत्युत्तर नियोग विषय में दे चुके हैं | और गर्भवती स्त्री से एक वर्ष समागम न करने के समय में दीर्घरोगी पुरुष की स्त्राी से न रहा जाय तो किसी से नियोग करके उस के लिए पुत्रोत्पत्ति कर दे, परन्तु वेश्यागमन वा व्यभिचार कभी न करे | जहां तक हो वहां तक अप्राप्त वस्तु की इच्छा, प्राप्त का रक्षण और रक्षित की वृद्धि, बढ़े हुए धन का व्यय देशोपकार करने में किया करें। सब प्रकार के अर्थात् पूर्वोक्त रीति से अपने-अपने वर्णाश्रम के व्यवहारों को अत्युत्साहपूर्वक प्रयत्न से तन, मन, धन से सर्वदा परमार्थ किया करें। अपने माता, पिता, शाशु श्वशुर की अत्यन्त शुश्रूषा करें। मित्र और अड़ोसी पड़ोसी, राजा, विद्वान्, वैद्य और सत्पुरुषों से प्रीति रख के और जो दुष्ट अधर्मी हों उनसे उपेक्षा अर्थात् द्रोह छोड़ कर उनके सुधरने का प्रयत्न किया करेें। जहाँ तक बने वहां तक प्रेम से अपने सन्तानों के विद्वान् और सुशिक्षा करने कराने में धनादि पदार्थों का व्यय करके उनको पूर्ण विद्वान् सुशिक्षायुक्त कर दें और धर्मयुक्त व्यवहार करके मोक्ष का भी साधन किया करें कि जिसकी प्राप्ति से परमानन्द भोगें। और ऐसे-ऐसे श्लोकों को न मानें। जैसे-
पतितोsपि द्विजः श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रियः |
निर्दुग्धा चापि गौः पूज्या न च दुग्धवती खरी ||१||

अश्वालम्भं गवालम्भं संन्यासं पलपैत्रिकम् |
देवराच्च सुतोत्पति कलौ पञ्च विवर्जयेत ||२||
नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ |
पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ||३||
ये कपोलकल्पित पाराशरी के  श्लोक हैं | जो दुष्ट कर्मकारी द्विज को श्रेष्ठ और श्रेष्ठ कर्मकारी शूद्र को नीच मानैं तो इस से परे पक्षपात, अन्याय, अधर्म दूसरा अधिक क्या होगा? क्या दूध् देने वाली वा न देने वाली गाय गोपालों को पालनीय होती है, वैसे कुम्हार आदि को गधहि पलनीय नहीं होती? और यह दृष्टान्त भी विषम है, क्योंकि द्विज और शूद्र मनुष्य जाति गाय और गधहि भिन्न जाति हैं। कथंचित पशु जाति से दृष्टान्त का एकदेश दृष्टांत में मिल भी जावे तो भी इसका आशय अयुक्त होने से ये श्लोक विद्वानों के माननीय कभी नहीं हो सकते।। १।। जब अश्वालम्भ अर्थात् घोड़े को मार के अथवा गाय को मार के होम करना ही वेदविहित नहीं है तो उसका कलियुग में निषेध् करना वेदविरुध्द क्यों नहीं? जो कलियुग में इस नीच कर्म का निषेध् माना जाय तो त्रेता आदि में विधी आ जाय तो इस में ऐसे दुष्ट काम का श्रेष्ठ युग में होना सर्वथा असम्भव है | और संन्यास की वेदादि शास्त्रों में विधि है उस का निषेध् करना निर्मूल है | जब मांस का निषेध् है तो सर्वदा ही निषेध् है | जब देवर से पुत्रोत्पत्ति करनी वेदों में लिखी है तो यह श्लोककर्ता क्यों भूंलता है? ||२|| यदि (नष्टे) अर्थात् पति किसी देश देशान्तर को चला गया हो घर में स्त्री नियोग कर लेवे उसी समय विवाहित पति आ जाय तो वह किस की स्त्री हो? कोई कहे कि विवाहित पति की | हम ने माना; परन्तु ऐसी व्यवस्था पाराशरी में नहीं लिखी | क्या स्त्री के पांच ही आपत्काल हैं? जो रोगी पड़ा हो वा लड़ाई हो गई हो इत्यादि आपत्काल पांच से भी अधिक हैं | इसलिये ऐसे-ऐसे श्लोकों को कभी न मानना चाहिये ||३||

(प्रश्न) क्यों जी तुम पराशर मुनि के वचन को भी नहीं मानते?

(उत्तर) चाहे किसी का वचन हो परन्तु वेदविरुध्द होने से नहीं मानते | और यह तो पराशर का वचन भी नहीं है क्योंकि जैसे ‘ब्रह्मोवाच, वसिष्ठ उवाच, राम उवाच, शिव उवाच, विष्णुरुवाच, देव्युवाच’इत्यादि श्रेष्ठों का नाम लिख के ग्रन्थरचना इसलिये करते हैं कि सर्वमान्य के नाम से इन ग्रन्थों को सब संसार मान लेवे और हमारी पुष्कल जीविका भी हो |इसलिये अनर्थ गाथायुक्त ग्रन्थ बनाते हैं | कुछ-कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों को छोड़ के मनुस्मृति हीे वेदानुकुल है, अन्य स्मृति नहीं | ऐसे ही अन्य जाल ग्रन्थों की भी व्यवस्था समझ लो |

(प्रश्न) गृहाश्रम सब से छोटा वा बड़ा है?

(उत्तर) अपने-अपने कर्त्तव्यकर्मों में सब बड़े हैं | परन्तु- 
यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् |
तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ||१||

यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः |
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः ||२||

यस्मात्त्रायोsप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम् |
गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमो गृही ||३||

स संधार्य्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता |
सुखं चेहेच्छता नित्यं योsधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः ||४||
मनु० |
जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं ||१|| विना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिध्द नहीं होता ||२||  जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धरण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरंधर कहाता है ||३|| इसलिये जो (अक्षय) मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धरण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने के अयोग्य है उसको अच्छे प्रकार धारण करे ||४|| इसलिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधर गृहाश्रम है | जो यह गृहाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है | परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों | इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है | यह संक्षेप से समावर्तन विवाह और गृहाश्रम के विषय में शिक्षा लिख दी | इसके आगे वानप्रस्थ और संन्यास के विषय में लिखा जायेगा | इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे सुभाषाविभूषिते समावर्त्तनविवाह गृहाश्रमविषये चतुर्थः समुल्लासः सम्पूर्णः।।४।।

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अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
दूरभाष : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
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Regional Office (Raipur)
Arya Samaj Sanskar Kendra
Akhil Bharat Arya Samaj Trust Raipur Branch
Opposite Wondland Water Park
DW-4, Indraprastha Colony, Ring Road No.-1
Raipur (Chhattisgarh) 492010
Helpline No.: 9109372521
www.aryasamajonline.co.in 

 

National Administrative Office
Akhil Bharat Arya Samaj Trust
Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
Narendra Tiwari Marg, Near Bank of India
Opp. Dussehra Maidan, Annapurna
Indore (M.P.) 452009
Tel. : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com 

 

This animal is the behavior of birds, not of humans. If there is no rule of marriage in human beings, then all good practices of the home should be destroyed. No one should serve anyone and by increasing adultery, all patients become weak and young and die soon. No one should fear or shame anyone. In old age, no one should serve anyone and by increasing adultery, all the clans of the clans become weak and young and be destroyed.

 

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