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अथ चतुर्थसमुल्लासारम्भः

चतुर्थ समुल्लास भाग - 1

वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम्।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्।।१। मनु०।।

जब यथावत् ब्रह्मचर्य्य आचार्यानुकूल वर्त्तकर, धर्म से चारों, तीन वा दो, अथवा एक वेद को सांगोपांग पढ़ के जिस का ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो, वह पुरुष वा स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे।।१।।

तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः।
स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं गवा।।२।।
मनु०।।

जो स्वधर्म अर्थात् यथावत् आचार्य और शिष्य का धर्म है उससे युक्त पिता जनक वा अध्यापक से ब्रह्मदाय अर्थात् विद्यारूप भाग का ग्रहण और माला का धारण करने वाला अपने पलंग पर बैठे हुए आचार्य्य का प्रथम गोदान से सत्कार करे। वैसे लक्षणयुक्त विद्यार्थी को भी कन्या का पिता गोदान से सत्कृत करे।।२।।

गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।।३।।
मनु०।।

गुरु की आज्ञा ले स्नान कर गुरुकुल से अनुक्रमपूर्वक आ के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करे।।३।।

असपिण्डा च या मातुरसगोत्र च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।४।।
मनु०।।

जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो तो उस कन्या से विवाह करना उचित है।।४।। इसका यह प्रयोजन है कि-

परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः।। शतपथ०।।

यह निश्चित बात है कि जैसी परोक्ष पदार्थ में प्रीति होती है वैसी प्रत्यक्ष में नहीं। जैसे किसी ने मिश्री के गुण सुने हों और खाई न हो तो उसका मन उसी में लगा रहता है । जैसे किसी परोक्ष वस्तु की प्रशंसा सुनकर मिलने की उत्कट इच्छा होती है, वैसे ही दूरस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो उसी कन्या से वर का विवाह होना चाहिये।

निकट और दूर विवाह करने में गुण ये हैं-

एक- जो बालक बाल्यावस्था से निकट रहते हैं, परस्पर क्रीडा, लड़ाई और प्रेम करते, एक दूसरे के गुण, दोष, स्वभाव, बाल्यावस्था के विपरीत आचरण जानते और नंगे भी एक दूसरे को देखते हैं उनका परस्पर विवाह होने से प्रेम कभी नहीं हो सकता दूसरा-जैसे पानी में पानी मिलने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे एक गोत्र पितृ वा मातृकुल में विवाह होने में धातुओं के अदल-बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती। तीसरा- जैसे दूध् में मिश्री वा शुण्ठयादी औषधियो के योग होने से उत्तमता होती है वैसे ही भिन्न गोत्र मातृ पितृ कुल से पृथक् वर्तमान स्त्री पुरुषों का विवाह होना उत्तम है |

चौथा- जैसे एक देश में रोगी हो वह दूसरे देश में वायु और खान पान के बदलने से रोग रहित होता है वैसे ही दूर देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है | पांचवे- निकट सम्बन्ध् करने में एक दूसरे के निकट होने में सुख दुःख का भान और विरोध् होना भी सम्भव है, दूर देशस्थों में नहीं और दूरस्थों के विवाह में दूर-दूर प्रेम की डोरी लम्बी बढ़ जाती है निकटस्थ विवाह में नहीं | छठे- दूर-दूर देश के वर्तमान और पदार्थों की प्राप्ति भी दूर सम्बन्ध् होने में सहजता से हो सकती है, निकट विवाह होने में नहीं | इसलिये- दुहिता दुर्हिता दूरे हिता भवतीति || निरु०|| कन्या का नाम दुहिता इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है निकट रहने में नहीं | सातवें- कन्या के पितृकुल में दारिद्रय होने का भी सम्भव है क्योंकि जब-जब कन्या पितृकुल में आवेगी तब-तब इस को कुछ न कुछ देना ही होगा | आठवां- कोई निकट होने से एक दूसरे को अपने-अपने पितृकुल के सहाय का घमण्ड और जब कुछ भी दोनों में वैमनस्य होगा तब स्त्री झट ही पिता कुल में चली जायेगी | एक दूसरे की निन्दा अधिक होगी और विरोध् भी, क्योंकि प्रायः स्त्रिायों का स्वभाव तीक्ष्ण और मृदु होता है, इत्यादि कारणों से पिता के एकगोत्रा माता की छः पीढ़ी और समीप देश में विवाह करना अच्छा नहीं।            

महान्त्यपि समृध्दानि गोSजाविध्नधान्यतः |
स्त्री सम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत ||१||
मनु ||

चाहे कितने ही धन, धान्य, गाय, अजा, हाथी, घोड़े, राज्य, श्री आदि से समृध्द ये कुल हों तो भी विवाह सम्बन्ध् में निम्नलिखित दश कुलों का त्याग कर दे ||१||

हीनक्रियम निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम
क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिवुफष्ठिवुफलानि च ||२||
मनु ।।

जो कुलल सत्क्रिया से हीन, सत्पुरुषों से रहित, वेदाध्ययन से विमुख, शरीर पर बड़े बड़े लोम, अथवा बवासीर, क्षयी, दमा, खांसी, आमाशय, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलितकुष्ठयुक्त कुलों की कन्या वा वर के साथ विवाह होना न चाहिए, क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिये उत्तम कुल के लड़के और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिये |

नोद्वहेत्कपिलां कन्यां ना{ध्किाग्ीं न रोगिणीम्दृ
नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटान्न पिग्लाम्भ ||३||
मनु।।

न पीले वर्ण वाली, न अधिकंगी अर्थात् पुरुष से लम्बी चौड़ी अधिक बलवाली, न रोगयुक्ता, न लोमरहित, न बहुत लोमवाली, न बकवाद करनेहारी और भूरे नेत्रावाली ||३||

नक्र्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्दृ
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्भ् ||४||
मनु।।                        

न ऋक्ष अर्थात् अश्विनी, भरणी, रोहिणीदेई, रेवतीबाई, चित्तारी आदि नक्षत्रा नाम वाली; तुलसिया, गेंदा, गुलाब, चम्पा, चमेली आदि वृक्ष नामवाली; गंगा, जमुना आदि नदी नामवाली; चाण्डाली आदि अन्त्य नामवाली; विन्ध्या, हिमालया, पार्वती आदि पर्वत नामवाली; कोकिला, मैना आदि पक्षी नामवाली; नागी, भुजंगा आदि सर्प नामवाली; माधोदासी, मीरादासी आदि प्रेष्य नामवाली और भीमकुअरि, चण्डिका, काली आदि भीषण नामवाली कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये | क्योंकि ये नाम कुत्सित और अन्य पदार्थों के भी हैं ||४||

अव्यगग्ीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्दृ
तनुलोमवेफशदशनां मृद्वग्ीमुद्वहेत्स्त्रिायम्भ्||५||
मनु।।

जिस के सरल सूधे अंग हो विरुद्ध न हों, जिस का नाम सुन्दर अर्थात् यशोदा, सुखदा आदि हो, हंस और हथिनी के तुल्य जिस की चाल हो, सूक्ष्म लोम केश और दांत युक्त और जिस के सब अंग कोमल हों वैसी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये ||५||

प्रश्न- विवाह का समय और प्रकार कौन सा अच्छा है?

;उत्तर- सोलहवें वर्ष से लेकर चैबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से ले लेकर ४८ वें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय उत्तम है | इस में जो सोलह और पच्चीस में विवाह करे तो निकृष्ट; अठारह बीस वर्ष की स्त्री तथा तीस पैंतीस वा चालीस वर्ष के पुरुष का मध्यम; चौबीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है | जिस देश में इसी प्रकार विवाह की विधी श्रेष्ठ और ब्रह्मचर्य विद्याभ्यास अधिक होता है वह देश सुखी और जिस देश में ब्रह्मचर्य,विद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था और अयोग्यों का विवाह होता है वह देश दुःख में डूब जाता है |क्योंकि ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार ही से सब बातों का सुधर और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है प्रश्न-

अष्टवर्षा भवेद् गौरी नववर्षा च रोहिणी|
दशवर्षा भवेत्कन्या तत ऊध्र्वं रजस्वलाभ् ||१||

माता चैव पिता तस्या ज्येष्ठो भ्राता तथैव च |
त्रायस्ते नरवंफ यान्ति दृष्ट्वा कन्यां रजस्वलाम्भ्||२||

ये श्लोक पाराशरी और शीघ्रबोध् में लिखे हैं | अर्थ यह है कि कन्या आठवें वर्ष गौरी, नवमे वर्ष रोहिणी, दशवें वर्ष कन्या और उस के आगे रजस्वला संज्ञा हो जाती है ||१|| दसवें वर्ष तक विवाह न करके रजस्वला कन्या को माता पिता और भाई ये तीनों देख के नरक में गिरते हैं ||२||                                  

(उत्तर) ब्रह्मोवाच -

एकक्षणा भवेद् गौरी द्विक्षणेयन्तु रोहिणी |
त्रिक्षणा सा भवेत्कन्या ह्यत ऊध्र्वं रजस्वला ||१||

माता पिता तथा भ्राता मातुलो भगिनी स्वका |
सर्वे ते नरवंफ यान्ति दृष्ट्वा कन्यां रजस्वलाम्भ ||२||
-यह सद्योनिर्मित ब्रह्मपुराण का वचन है |

अर्थ- जितने समय में परमाणु एक पलटा खावे उतने समय को क्षण कहते हैं | जब कन्या जन्मे तब एक क्षण में गौरी, दूसरे क्षण में रोहिणी, तीसरे में कन्या और चैथे में रजस्वला हो जाती है ||१|| उस रजस्वला को देख के उसकी माता,

पिता, भाई, मामा और बहिन सब नरक को जाते हैं ||२||

(प्रश्न) ये श्लोक प्रमाण नहीं।

(उत्तर) क्यों प्रमाण नहीं? जो ब्रह्मा जी के श्लोक प्रमाण नहीं तो तुम्हारे भी प्रमाण नहीं हो सकते।

(प्रश्न) वाह-वाह! पराशर और काशीनाथ का भी प्रमाण नहीं करते।

(उत्तर) वाह जी वाह ! क्या तुम ब्रह्मा जी का प्रमाण नहीं करते, पराशर काशीनाथ से ब्रह्मा जी बड़े नहीं हैं?  जो तुम ब्रह्मा जी के श्लोकों को नहीं मानते तो हम भी पराशर काशीनाथ के श्लोकों को नहीं मानते।

(प्रश्न) तुम्हारे श्लोक असम्भव होने से प्रमाण नहीं, क्योंकि सहस्रों क्षण जन्म समय ही में बीत जाते हैं तो विवाह कैसे हो सकता है और उस समय विवाह करने का कुछ फल भी नहीं दीखता।

(उत्तर) जो हमारे श्लोक असम्भव हैं तो तुम्हारे भी असम्भव हैं क्योंकि आठ, नौ और दसवें वर्ष भी विवाह करना निष्फल है; क्योंकि सोलहवें वर्ष के पश्चात् चौबीसवें वर्ष पर्यन्त विवाह होने से पुरुष का वीर्य परिपक्व, शरीर बलिष्ठ, स्त्री का गर्भाशय पूरा और शरीर भी बलयुक्त होने से सन्तान उत्तम होते हैं।१ जैसे आठवें वर्ष की कन्या में सन्तानोत्पत्ति का होना असम्भव है वैसे ही गौरी, रोहिणी नाम देना भी अयुक्त है। यदि गोरी कन्या न हो किन्तु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना व्यर्थ है और गौरी महादेव की स्त्री, रोहिणी वसुदेव की स्त्री थी उस को तुम पौराणिक लोग मातृसमान मानते हो। जब कन्यामात्र में गौरी आदि की भावना करते हो तो फिर उन से विवाह करना कैसे सम्भव और धर्मयुक्त हो सकता है? इसलिये तुम्हारे और हमारे दो-दो श्लोक मिथ्या ही हैं क्योंकि जैसे हमने ‘ब्रह्मोवाच’ करके श्लोक बना लिये हैं। वैसे वे भी पराशर आदि के नाम से बना लिये हैं। इसलिये इन सब का प्रमाण छोड़ के वेदों के प्रमाण से सब काम किया करो। देखो मनु में-

त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्।। मनु०।।

कन्या रजस्वला हुए पीछे तीन वर्ष पर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे। तब प्रतिमास रजोदर्शन होता है तो तीन वर्षों में ३६ वार रजस्वला हुए पश्चात् विवाह करना योग्य है, इससे पूर्व नहीं।

काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्।।
मनु०।।

चाहे लड़का लड़की मरणपर्यन्त कुमार रहैं परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर विरुद्ध गुण, कर्म, स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिये। इस से सिद्ध हुआ कि न पूर्वोक्त समय से प्रथम वा असदृशों का विवाह होना योग्य है।

(प्रश्न) विवाह माता पिता के आधीन होना चाहिये वा लड़का लड़की के आधीन रहै ?

(उत्तर) लड़का लड़की के आधीन विवाह होना उत्तम है। जो माता पिता विवाह करना कभी विचारें तो भी लड़का लड़की की प्रसन्नता के विना न होना चाहिये। क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम होता है और सन्तान उत्तम होते हैं। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुख्य प्रयोजन वर और कन्या का है माता पिता का नहीं। क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता। और-

सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्र भार्य्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।।
मनु०।।

जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है उसी कुल में आनन्द लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती है और जहाँ विरोध, कलह होता है वहाँ दुःख, दारिद्र्य और निन्दा निवास करती है। इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्य्यावर्त्त में परम्परा से चली आती है वही विवाह उत्तम है। जब स्त्री पुरुष विवाह करना चाहैं तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर, का परिमाणादि यथायोग्य होना चाहिये। जब तक इन का मेल नहीं होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता और न बाल्यावस्था में विवाह करने से सुख होता।

युवा सुवासाः परिवीत आगात्स उ श्रेयान्भवति जायमानः ।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा दवे यन्तः ।।१।।

आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः ।
नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ।।२।।

पूर्वीरहं शरदः शश्रमाणा दोषावस्तो रुषसो  जरयन्तीः ।
मिनाति श्रियं  जरिमा तनूनामप्यू नु पत्नीर्वृषाणो जगम्यु: ।।३।।
-ऋ० मं० १। सू० १७९। मं० १।।

जो पुरुष (परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीत, ब्रह्मचर्य्य सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त (सुवासाः) सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रह्मचर्य्ययुक्त (युवा) पूर्ण ज्वान होके विद्याग्रहण कर गृहाश्रम में (आगात्) आता है ( स उ) वही दूसरे विद्याजन्म में (जायमानः) प्रसिद्ध होकर (श्रेयान्) अतिशय शोभायुक्त मंगलकारी (भवति) होता है (स्वाध्यः) अच्छे प्रकार ध्यानयुक्त (मनसा) विज्ञान से (देवयन्तः) विद्यावृद्धि की कामनायुक्त (धीरासः) धैर्ययुक्त (कवयः) विद्वान् लोग (तम्) उसी पुरुष को (उन्नयन्ति) उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं और जो ब्रह्मचर्य्यधारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये विना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं वे स्त्री पुरुष नष्ट भ्रष्ट होकर विद्वानों में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते।।१।।

जो (अप्रदुग्धाः) किसी से दुही न हो उन (धेनवः) गौओं के समान (अशिश्वीः) बाल्यावस्था से रहित (सबर्दुघाः) सब प्रकार के उत्तम व्यवहारों का पूर्ण करनेहारी (शशयाः) कुमारावस्था को उल्लंघन करने हारी (नव्यानव्याः) नवीन-नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण (भवन्तीः) वर्त्तमान (युवतयः) पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियां (देवानाम्) ब्रह्मचर्य, सुनियमों से पूर्ण विद्वानों के (एकम्) अद्वितीय (महत्) बड़े (असुरत्वम्) प्रज्ञा शास्त्रशिक्षायुक्त प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई तरुण पतियों को प्राप्त होके (आधुनयन्ताम्) गर्भ धारण करें कभी भूल के भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश उस से अधिक स्त्री का नाश होता है।।२।।

जैसे (नु) शीघ्र (शश्रमाणाः) अत्यन्त श्रम करनेहारे (वृषणः) वीर्य सींचने में समर्थ पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष (पत्नीः) युवावस्थास्थ हृदयों को प्रिय स्त्रियों को (जगम्युः) प्राप्त होकर पूर्ण शतवर्ष वा उससे अधिक वर्ष आयु को आनन्द से भोगते और पुत्र पौत्रदि से संयुक्त रहते रहैं वैसे स्त्री पुरुष सदा वर्तें, जैसे (पूर्वीः) पूर्व वर्त्तमान (शरदः) शरद् ऋतुओं और (जरयन्तीः) वृद्धावस्था को प्राप्त कराने वाली (उषसः) प्रातःकाल की वेलाओं को (दोषाः) रात्री और (वस्तोः) दिन (तनूनाम्) शरीरों की (श्रियम्) शोभा को (जरिमा) अतिशय वृद्धपन बल और शोभा को (मिनाति) दूर कर देता है वैसे (अहम्) मैं स्त्री वा पुरुष (उ) अच्छे प्रकार (अपि) निश्चय करके ब्रह्मचर्य्य से विद्या शिक्षा शरीर और आत्मा के बल और युवावस्था को प्राप्त हो ही के विवाह करूँ इस से विरुद्ध करना वेदविरुद्ध होने से सुखदायक विवाह कभी नहीं होता।।३।।

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होण्डा शोरूम के पास, रिंग रोड नं.-1, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
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Being sick in one country is free from disease due to changing of air and food in another country, in the same way, it is good to get married to far-off people. Fifth- It is also possible to be close to each other in close relationship, to be aware of happiness and sorrow, not in far-off places and in distant marriages, the line of love increases far and wide. Sixth- The present and substances of a far-off country can also be easily attained in distant relations, not in close marriages.

 

 

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