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एकादश समुल्लास भाग -6

पूतना और अक्रूर जी के विषय में देखो-

रथेन वायुवेगेन जगाम गोकुलं प्रति।।

अक्रूर जी कंस के भेजने से वायु के वेग के समान दौड़ने वाले घोड़ों के रथ पर बैठ कर सूर्योदय से चले और चार मील गोकुल में सूर्यास्त समय पहुंचे। शायद घोड़े भागवत बनाने वाले की परिक्रमा करते रहे होंगे? वा मार्ग भूल कर भागवत बनाने वाले के घर में घोड़े हाँकने वाले और अक्रूर जी आकर सो गये होंगे? पूतना का शरीर छः कोश चौड़ा और बहुत सा लम्बा लिखा है। मथुरा और गोकुल के बीच में उस को मारकर श्रीकृष्ण जी ने डाल दिया। जो ऐसा होता तो मथुरा और गोकुल दोनों दबकर इस पोप जी का घर भी दब गया होता। और अजामेल की कथा ऊटपटांग लिखी है-उसने नारद के कहने से अपने लड़के का नाम ‘नारायण’ रक्खा था। मरते समय अपने पुत्र को पुकारा। बीच में नारायण कूद पड़े। क्या नारायण उस के अन्तःकरण के भाव को नहीं जानते थे कि वह अपने पुत्र को पुकारता है मुझ को नहीं। जो ऐसा ही नाम-माहात्म्य है तो आज कल भी नारायण के स्मरण करने वालों के दुःख छुड़ाने को क्यों नहीं आते। यदि यह बात सच्ची हो तो कैदी लोग नारायण नारायण करके क्यों नहीं छूट जाते? ऐसा ही ज्योतिष शास्त्र से विरुद्ध सुमेरु पर्वत का परिमाण लिखा है । और प्रियव्रत राजा के रथ के चक्र की लीक से समुद्र हुए। उ ञ्चास कोटि योजन पृथिवी है । इत्यादि मिथ्या बातों का गपोड़ा भागवत में लिखा है जिस का कुछ पारावार नहीं। और यह भागवत बोबदेव का बनाया है जिसके भाई जयदेव ने ‘गीतगोविन्द’ बनाया है। देखो! उसने ये श्लोक अपने बनाये ‘हिमाद्रि’ नामक ग्रन्थ में लिखे हैं कि श्रीमद्भागवतपुराण मैंने बनाया है। उस लेख के तीन पत्र हमारे पास थे। उन में से एक पत्र खो गया है। उस पत्र में श्लोकों का जो आशय था उस आशय के हम ने दो श्लोक बना के नीचे लिखे हैं। जिस को देखना हो वह हिमाद्रि ग्रन्थ में देख लेवें-

हिमाद्रे सचिवस्यार्थे सूचना क्रियतेऽधुना।
स्कन्धाऽध्यायकथानां च यत्प्रमाणं समासत ।।१।।
श्रीमद्भागवतं नाम पुराणं च मयेरितम्।
विदुषा बोबदेवेन श्रीकृष्णस्य यशोऽन्वितम्।।२।।

इसी प्रकार के नष्टपत्र में श्लोक थे। अर्थात् राजा के सचिव हिमाद्रि ने बोबदेव पण्डित से कहा कि मुझ को तुम्हारे बनाये श्रीमद्भागवत के सम्पूर्ण सुनने का अवकाश नहीं है इसलिये तुम संक्षेप में श्लोकबद्ध सूचीपत्र बनाओ जिस को देख के मैं श्रीमद्भागवत की कथा को संक्षेप में जान लूं। सो नीचे लिखा हुआ सूचीपत्र उस बोबदेव ने बनाया। उस में से उस नष्टपत्र में दस १० श्लोक खो गये हैं ग्यारहवें श्लोक से लिखते हैं। ये नीचे लिखे श्लोक सब बोबदेव के बनाये हैं। वे-

बोधयन्तीति हि प्राहु श्रीमद्भागवतं पुन ।
पञ्च प्रश्ना शौनकस्य सूतस्यात्रेत्तरं त्रिषु।।११।।
प्रश्नावतारयोश्चैव व्यासस्य निर्वृति कृतात् ।
नारदस्यात्र हेतूक्ति प्रतीत्यर्थं स्वजन्म च ।।१२।।
सुप्तघ्नं द्रोण्यभिभवस्तदस्त्रत्पाण्डवा वनम् ।
भीष्मस्य स्वपदप्राप्ति कृष्णस्य द्वारिकागम ।।१३।।
श्रोतु परीक्षितो जन्म धृतराष्ट्रस्य निर्गम ।
कृष्णमर्त्यत्यागसूचा तत पार्थमहापथ ।।१४।।
इत्यष्टादशभि पादैरध्यायार्थ क्रमात् स्मृत ।
स्वपरप्रतिबन्धोनं स्फीतं राज्यं जहौ नृप ।।१५।।
इति वै राज्ञो दार्ढ्योक्तौ प्रोक्ता द्रौणिजयादय । इति प्रथमः स्कन्धः।।१।।

इत्यादि बारह स्कन्धों का सूचीपत्र इसी प्रकार बोबदेव पण्डित ने बनाकर हिमाद्रि सचिव को दिया। जो विस्तार देखना चाहै वह बोबदेव के बनाये हिमाद्रि ग्रन्थ में देख लेवे। इसी प्रकार अन्य पुराणों की भी लीला समझनी। परन्तु उन्नीस, बीस, इक्कीस, एक दूसरे से बढ़ कर हैं।

देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उन का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिस में कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्य्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा। और इस भागवत वाले ने अनुचित मनमाने दोष लगाये हैं। दूध, दही, मक्खन आदि की चोरी; और कुब्जादासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल क्रीडा आदि मिथ्या दोष श्रीकृष्ण जी में लगाये हैं। इस को पढ़-पढ़ा सुन-सुना के अन्य मत वाले श्रीकृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्रीकृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होती?

शिवपुराण में बारह ज्योतिर्लिंग लिखे हैं। उसकी कथा सर्वथा असम्भव है। नाम धरा है ज्योतिर्लिंग और जिस में प्रकाश का लेश भी नहीं। रात्रि को विना दीप किये लिंग भी अन्धेरे में नहीं दीखते, ये सब लीला पोप जी की है।

(प्रश्न) जब वेद पढ़ने का सामर्थ्य नहीं रहा तब स्मृति, जब स्मृति के पढ़ने की बुद्धि नहीं रही तब शास्त्र, जब शास्त्र पढ़ने का सामर्थ्य न रहा तब पुराण बनाये, केवल स्त्री और शूद्रों के लिये। क्योंकि इन को वेद पढ़ने सुनने का अधिकार नहीं है।

(उत्तर) यह बात मिथ्या है। क्योंकि सामर्थ्य पढ़ने-पढ़ाने ही से होता है और वेद पढ़ने सुनने का अधिकार सब को है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जानश्रुति शूद्र ने भी वेद ‘रैक्यमुनि’ के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है। पुनः जो ऐसे-ऐसे मिथ्या ग्रन्थ बना लोगों को सत्यग्रन्थों से विमुख कर जाल में फंसा अपने प्रयोजन को साधते हैं वे महापापी क्यों नहीं? देखो! ग्रहों का चक्र कैसा चलाया है कि जिस ने विद्याहीन मनुष्यों को ग्रस लिया है।

आ कृष्णेन रजसा ।।१।। सूर्य का मन्त्र ।
इमं देवाऽअसपत्नँ्सुवध्वम्० ।।२।। चन्द्र ।
अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः० ।।३।। मंगल ।
उद्बुध्यस्वाग्ने० ।।४।। बुध ।
बृहस्पतेऽअति यदर्यो ।।५।। बृहस्पति ।
शुक्रमन्धसः ।।६।। शुक्र ।
शन्नो देवीरभिष्टय० ।।७।। शनि ।
कया नश्चित्र आ भुव० ।।८।। राहु और-
केतुं कृण्वन्नकेतवे ।।९।। इस को केतु की कण्डिका कहते हैं ।

(आ कृष्णेन०) यह सूर्य्य और भूमि का आकर्षण।।१।। दूसरा राजगुण विधायक।।२।। तीसरा अग्नि।।३।। और चौथा यजमान।।४।। पांचवां विद्वान्।।५।। छठा वीर्य्य अन्न।।६।। सातवां जल, प्राण और परमेश्वर।।७।। आठवां मित्र।।८।। नववां ज्ञानग्रहण का विवमायक मन्त्र है; ग्रहों के वाचक नहीं।।९।। अर्थ न जानने से भ्रमजाल में पड़े हैं।

(प्रश्न) ग्रहों का फल होता है वा नहीं?

(उत्तर) जैसा पोपलीला का है वैसा नहीं किन्तु जैसा सूर्य्य चन्द्रमा की किरण द्वारा उष्णता शीतलता अथवा ऋतुवत्कालचक्र के सम्बन्धमात्र से अपनी प्रकृति के अनूकुल प्रतिकूल सुख-दुःख के निमित्त होते हैं। परन्तु जो पोपलीला वाले कहते हैं सुनो ‘महाराज’! सेठ जी! यजमानो? तुम्हारे आज आठवां चन्द्र सूर्य्यादि क्रूर घर में आये हैं। अढ़ाई वर्ष का शनैश्चर पग में आया है। तुम को बड़ा विघ्न होगा। 

घर द्वार छुड़ाकर परदेश में घुमावेगा परन्तु जो तुम ग्रहों का दान, जप, पाठ, पूजा कराओगे तो दुःख से बचोगे।’ इन से कहना चाहिये कि सुनो पोप जी! तुम्हारा और ग्रहों का क्या सम्बन्ध है? ग्रह क्या वस्तु हैं?

(पोप जी) दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्रधीनाश्च देवता ।
ते मन्त्र ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्।।

देखो! कैसा प्रमाण है-देवताओं के आधीन सब जगत्, मन्त्रें के आधीन सब देवता और वे मन्त्र ब्राह्मणों के आधीन हैं इसलिये ब्राह्मण देवता कहाते हैं। क्योंकि चाहैं जिस देवता को मन्त्र के बल से बुला, प्रसन्न कर, काम सिद्ध कराने का हमारा ही अधिकार है। जो हम में मन्त्रशक्ति न होती तो तुम्हारे से नास्तिक हम को संसार में रहने ही न देते। (सत्यवादी) जो चोर, डाकू, कुकर्मी लोग हैं वे भी तुम्हारे देवताओं के आधीन होंगे? देवता ही उन से दुष्ट काम कराते होंगे ? जो वैसा है तो तुम्हारे देवता और राक्षसों में कुछ भेद न रहेगा। जो तुम्हारे आधीन मन्त्र हैं उन से तुम चाहो सो करा सकते हो तो उन मन्त्रें से देवताओं को वश कर, राजाओं के कोष उठवा कर अपने घर में भरकर बैठ के आनन्द क्यों नहीं भोगते? घर-घर में शनैश्चरादि के तैल आदि का छायादान लेने को मारे-मारे क्यों फिरते हो? और जिस को तुम कुबेर मानते हो उस को वश करके चाहो जितना धन लिया करो। बिचारे गरीबों को क्यों लूटते हो? तुम को दान देने से ग्रह प्रसन्न और न देने से अप्रसन्न होते हों तो हम को सूर्य्यादि ग्रहों की प्रसन्नता अप्रसन्नता प्रत्यक्ष दिखलाओ। जिस को ८वां सूर्य चन्द्र और दूसरे को तीसरा हो उन दोनों को ज्येष्ठ महीने में बिना जूते पहिने तपी हुई भूमि पर चलाओ। जिस पर प्रसन्न हैं उन के पग, शरीर न जलने और जिस पर क्रोधित हैं उन के जल जाने चाहिये तथा पौष मास में दोनों को नंगे कर पौर्णमासी की रात्रि भर मैदान में रक्खें। एक को शीत लगे दूसरे को नहीं तो जानो कि ग्रह क्रूर और सौम्य दृष्टि वाले होते हैं। और क्या तुम्हारे ग्रह सम्बन्धी हैं? और तुम्हारी डाक वा तार उन के पास आता जाता है? अथवा तुम उन के वा वे तुम्हारे पास आते जाते हैं? जो तुम में मन्त्रशक्ति हो तो तुम स्वयं राजा वा धनाढ्य क्यों नहीं बन जाओ? वा शत्रुओं को अपने वश में क्यों नहीं कर लेते हो? नास्तिक वह होता है जो वेद ईश्वर की आज्ञा वेदविरुद्ध पोपलीला चलावे। जब तुम को ग्रहदान न देवे जिस पर ग्रह है वही ग्रहदान को भोगे तो क्या चिन्ता है? जो तुम कहो कि नहीं हम ही को देने से वे प्रसन्न होते हैं अन्य को देने से नहीं तो क्या तुम ने ग्रहों का ठेका ले लिया है? जो ठेका लिया हो तो सूर्य्यादि को अपने घर में बुला के जल मरो। सच तो यह है कि सूर्य्यादि लोक जड़ हैं। वे न किसी को दुःख और न सुख देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु जितने तुम ग्रहदानोपजीवी हो वे सब तुम ग्रहों की मूर्त्तियां हो क्योंकि ग्रह शब्द का अर्थ भी तुम में ही घटित होता है।

‘ये गृह्णन्ति ते ग्रहा ’ जो ग्रहण करते हैं उन का नाम ग्रह है। जबतक तुम्हारे चरण राजा, रईस सेठ साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुंचते तबतक किसी को नवग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य शनैश्चरादि मूर्त्तिमान् क्रूर रूप धर उन पर जा चढ़ते हो तब विना ग्रहण किये उन को कभी नहीं छोड़ते और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे उन की निन्दा नास्तिकादि शब्दों से करते फिरते हो।

(पोप जी) देखो! ज्योतिष का प्रत्यक्ष फल। आकाश में रहने वाले सूर्य, चन्द्र और राहु, केतु का संयोग रूप ग्रहण को पहले ही कह देते हैं। जैसा यह प्रत्यक्ष होता है वैसा ग्रहों का भी फल प्रत्यक्ष हो जाता है। देखो! धनाढ्य, दरिद्र, राजा, रंक, सुखी, दुःखी ग्रहों ही से होते हैं।

(सत्यवादी) जो यह ग्रहणरूप प्रत्यक्ष फल है सो गणितविद्या का है; फलित का नहीं। जो गणितविद्या है वह सच्ची और फलितविद्या स्वाभाविक सम्बन्ध जन्य को छोड़ के झूठी है। जैसे अनुलोम प्रतिलोम घूमनेवाले पृथिवी और चन्द्र के गणित से स्पष्ट विदित होता है कि अमुक समय, अमुक देश, अमुक अवयव में सूर्य्य वा चन्द्रग्रहण होगा। जैसे-

छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं भूमिभा । यह सिद्धान्तशिरोमणि का वचन है।

और इसी प्रकार सूर्यसिद्धान्तादि में भी है अर्थात् जब सूर्य और भूमि के मध्य में चन्द्रमा आता है तब सूर्यग्रहण ओैर जब सूर्य और चन्द्र के बीच में भूमि आती है तब चन्द्रग्रहण होता है। अर्थात् 

चन्द्रमा की छाया भूमि पर और भूमि की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है। सूर्य प्रकाशरूप होने से सम्मुख छाया किसी की नहीं पड़ती किन्तु जैसे प्रकाशमान सूर्य्य वा दीप से देहादि की छाया उल्टी जाती है वैसे ही ग्रहण में समझो। जो धनाढ्य, दरिद्र, प्रजा, राजा, रंक होते हैं वे अपने कर्मों से होते हैं ग्रहों से नहीं। बहुत से ज्योतिषी लोग अपने लड़के, लड़की का विवाह ग्रहों की गणितविद्या के अनुसार करते हैं पुनः उन में विरोध वा विधवा अथवा मृतस्त्रीक पुरुष हो जाता है। जो फल सच्चा होता तो ऐसा क्यों होता? इसलिये कर्म की गति सच्ची और ग्रहों की गति सुख दुःख भोग में कारण नहीं। भला ग्रह आकाश में और पृथिवी भी आकाश में बहुत दूर पर हैं इन का सम्बन्ध कर्त्ता और कर्मों के साथ साक्षात् नहीं। कर्म्म और कर्म्म के फल का कर्त्ता, भोक्ता जीव और कर्मों के फल भोगानेहारा परमात्मा है। 

जो तुम ग्रहों का फल मानो तो इस का उत्तर देओ कि जिस क्षण में एक मनुष्य का जन्म होता है जिस को तुम ध्रुवा त्रुटि मानकर जन्मपत्र बनाते हो उसी समय में भूगोल पर दूसरे का जन्म होता है वा नहीं? जो कहो नहीं तो झूठ, और जो कहो होता है तो एक चक्रवर्ती के सदृश भूगोल में दूसरा चक्रवर्ती राजा क्यों नहीं होता? हां! इतना तुम कह सकते हो कि यह लीला हमारे उदर भरने की है तो कोई मान भी लेवे।

(प्रश्न) क्या गरुड़पुराण भी झूठा है?

(उत्तर) हां असत्य है।

(प्रश्न) फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

(उत्तर) जैसे उस के कर्म हैं।

(प्रश्न) जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उस के बड़े भयंकर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं। पाप, पुण्य के अनुसार नरक, स्वर्ग में डालते हैं। उस के लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि, वैतरणी नदी तरने के लिये करते हैं। ये सब बातें झूठ क्योंकर हो सकती हैं।

(उत्तर) ये बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो अन्यत्र के जीव वहां जाते हैं उन का धर्मराज चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो वे यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहां के न्यायाधीश उन का न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरने वाले जीव को लेने में छोटे द्वार में उन की एक अंगुली भी नहीं जा सकती और सड़क गली में क्यों नहीं रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोप जी विना अपने घर के कहां धरेंगे? जब जंगल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उन को पकड़ने के लिये असंख्य यम के गण आवें तो वहां अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उन के शरीर ठोकर खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूट कर पृथिवी पर गिरते हैं वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बांचने, सुनने वालों के आंगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे?

श्राद्ध, तर्पण, पिण्डप्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुंचता किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोप जी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं वह तो पोप जी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुंचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती पुनः किस की पूंछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जलाया वा गाड़ दिया गया फिर पूंछ को कैसे पकड़ेगा? यहां एक दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है कि-

एक जाट था। उस के घर में एक गाय बहुत अच्छी और बीस सेर दूध देनेवाली थी। दूध उस का बड़ा स्वादिष्ठ होता था। कभी-कभी पोप जी के मुख में भी पड़ता था। उस का पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इसी गाय का संकल्प करा लूंगा। कुछ दिनों में दैवयोग से उस के बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से भूमि पर ले लिया अर्थात् प्राण छोड़ने का समय आ पहुंचा। उस समय जाट के इष्ट मित्र और सम्बन्धी भी उपस्थित हुए थे। तब पोप जी ने पुकारा कि यजमान! अब तू इसके हाथ से गोदान करा। जाट ने १०) रुपया निकाल पिता के हाथ में रख कर बोला पढ़ो संकल्प। पोप जी बोला-वाह-वाह! क्या बाप वारंवार मरता है? इस समय तो साक्षात् गाय को लाओ जो दूध देती हो, बुड्ढी न हो, सब प्रकार उत्तम हो। ऐसी गौ का दान करना चाहिये।

(जाट जी) हमारे पास तो एक ही गाय है उस के विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह न हो सकेगा इसलिये उसको न दूंगा। लो २०) रुपये का संकल्प पढ़ देओ और इन रुपयों से दूसरी दुधार गाय ले लेना।

(पोप जी) वाह जी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? क्या अपने बाप को वैतरणी नदी में डुबा कर दुःख देना चाहते हो। तुम अच्छे सुपुत्र हुए? तब तो पोप जी की ओर सब कुटुम्बी हो गये क्योंकि उन सब को पहले ही पोप जी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सब ने मिल कर हठ से उसी गाय का दान उसी पोप को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया और पोप जी बच्छा सहित गाय और दोहने की बटलोही को ले अपने घर में गाय बछड़े को बांध बटलोही धर पुनः जाट के घर आया और मृतक के साथ श्मशानभूमि में जाकर दाहकर्म्म कराया। वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उस को मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा और भुक्खड़ों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोप जी के घर पहुंचा। देखा तो गाय दुह, बटलोई भर, पोप जी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाट जी पहुंचे। उस को देख पोप जी बोला आइये! यजमान बैठिये!

(जाट जी) तुम भी पुरोहित जी इधर आओ।

(पोप जी) अच्छा दूध धर आऊं।

(जाट जी) नहीं-नहीं दूध की बटलोई इधर लाओ। पोप जी विचारे जा बैठे और बटलोई सामने धर दी।

(जाट जी) तुम बड़े झूठे हो।

(पोप जी) क्या झूठ किया?

(जाट जी) कहो! तुमने गाय किसलिये ली थी?

(पोप जी) तुम्हारे पिता के वैतरणी नदी तरने के लिये।

(जाट जी) अच्छा तो वहां वैतरणी के किनारे पर गाय क्यों न पहुंचाई? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम अपने घर बांध बैठे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?

(पोप जी) नहीं-नहीं, वहां इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन कर उतार दिया होगा।

(जाट जी) वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है।

(पोप जी) अनुमान से कोई तीस क्रोड़ कोश दूर है क्योंकि उञ्चास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैऋर्त दिशा में वैतरणी नदी है।

(जाट जी) इतनी दूर तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो उस का उत्तर आया हो कि वहां पुण्य की गाय बन गई। अमुक के पिता को पार उतार दिया; दिखलाओ?

(पोप जी) हमारे पास गरुड़पुराण के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।

(जाट जी) इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?

(पोप जी) जैसे सब मानते हैं।

(जाट जी) यह पुस्तक तुम्हारे पुरुषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिये बनाया है क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रें के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुंचा दूंगा और उन को पार उतार पुनः गाय को घर में ले आ दूध को मैं और मेरे लड़के बाले पिया करेंगे। लाओ! दूध की भरी हुई बटलोही, गाय, बछड़ा लेकर जाट जी अपने घर को चला।

(पोप जी) तुम दान देकर लेते हो तुम्हारा सत्यानाश हो जायगा।

(जाट जी) चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन लों दूध के विना जितना दुःख हम ने पाया है सब कसर निकाल दूंगा। तब पोप जी चुप रहे और जाट जी गाय बछड़ा ले अपने घर पहुंचे। जब ऐसे ही जाट जी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले। जो ये लोग कहते हैं कि दशगात्र के पिण्डों से दश अंग सपिण्डी करने से शरीर के साथ जीव का मेल होके अंगुष्ठमात्र शरीर बन के पश्चात् यमलोक को जाता हैे तो मरती समय यमदूतों का आना व्यर्थ होता है। त्रयोदशाह के पश्चात् आना चाहिये। जो शरीर बन जाता हो तो अपनी स्त्री, सन्तान और इष्ट मित्रें के मोह से क्यों नहीं लौट आता है?

(प्रश्न) स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता जो दान किया जाता है वही वहां मिलता है। इसलिये सब दान करने चाहिये।

(उत्तर) उस तुम्हारे स्वर्ग से यही लोक अच्छा है जिस में धर्मशाला हैं, लोग दान देते हैं, इष्ट मित्र और जाति में खूब निमन्त्रण होते हैं, अच्छे-अच्छे वस्त्र मिलते हैं, तुम्हारे कहने प्रमाणे स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता। ऐसे निर्दय, कृपण, कंगले स्वर्ग में पोप जी जाके खराब होवें, वहाँ भले-भले मनुष्यों का क्या काम?

(प्रश्न) जब तुम्हारे कहने से यमलोक और यम नहीं हैं तो मर कर जीव कहां जाता और इन का न्याय कौन करता है?

(उत्तर) तुम्हारे गरुड़पुराण का कहा हुआ तो अप्रमाण है परन्तु जो वेदोक्त है कि-

यमेन । वायुना । सत्यराजन् ।।

इत्यादि वेदवचनों से निश्चय है कि ‘यम’ नाम वायु का है। शरीर छोड़ के साथ अन्तरिक्ष में जीव रहते हैं और जो सत्यकर्त्ता पक्षपातरहित परमात्मा ‘धर्म्मराज’ है वही सब का न्यायकर्त्ता है।

(प्रश्न) तुम्हारे कहने से गोदानादि दान किसी को न देना और न कुछ दान पुण्य करना, ऐसा सिद्ध होता है।

(उत्तर) यह तुम्हारा कहना सर्वथा व्यर्थ है क्योंकि सुपात्रें को, परोपकारियों को परोपकारर्थ सोना, चांदी, हीरा, मोती, माणिक, अन्न, जल, स्थान, वस्त्र, गाय आदि दान अवश्य करना उचित है किन्तु कुपात्रें को कभी न देना चाहिये।

(प्रश्न) कुपात्र और सुपात्र का लक्षण क्या है?

(उत्तर) जो छली, कपटी, स्वार्थी, विषयी, काम, क्रोध, लोभ, मोह से युक्त, परहानि करने वाले लम्पटी, मिथ्यावादी, अविद्वान्, कुसंगी, आलसी; जो कोई दाता हो उसके पास बारम्बार मांगना, धरना देना, ना किये पश्चात् भी हठता से मांगते ही जाना, सन्तोष न होना, जो न दे उस की निन्दा करना, शाप और गालिप्रदानादि देना। अनेक वार जो सेवा करे और एक वार न करे तो उस का शत्रु बन जाना, ऊपर से साधु का वेश बना लोगों को बहकाकर ठगना और अपने पास पदार्थ हो तो भी मेरे पास कुछ भी नहीं है कहना, सब को फुसला फुसलू कर स्वार्थ सिद्ध करना, रात दिन भीख मांगने ही में प्रवृत्त रहना, निमन्त्रण दिये पर यथेष्ट भंगादि मादक द्रव्य खा पीकर बहुत सा पराया पदार्थ खाना, पुनः उन्मत्त होकर प्रमादी होना, सत्य-मार्ग का विरोध और झूठ-मार्ग में अपने प्रयोजनार्थ चलना, वैसे ही अपने चेलों को केवल अपनी ही सेवा करने का उपदेश करना, अन्य योग्य पुरुषों की सेवा करने का नहीं, सद्विद्यादि प्रवृत्ति के विरोधी, जगत् के व्यवहार अर्थात् स्त्री, पुरुष, माता, पिता, सन्तान, राजा, प्रजा इष्टमित्रें में अप्रीति कराना कि ये सब असत्य हैं और जगत् भी मिथ्या है। इत्यादि दुष्ट उपदेश करना आदि कुपात्रें के लक्षण हैं। और जो ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय, वेदादि विद्या के पढ़ने पढ़ाने हारे, सुशील, सत्यवादी, परोपकारप्रिय, पुरुषार्थी, उदार, विद्या धर्म की निरन्तर उन्नति करनेहारे, धर्मात्मा, शान्त, निन्दा स्तुति में हर्ष शोकरहित, निर्भय, उत्साही, योगी, ज्ञानी, सृष्टिक्रम, वेदाज्ञा, ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावानुकूल वर्त्तमान करनेहारे, न्याय की रीति युक्त, पक्षपातरहित, सत्योपदेश और सत्यशास्त्रें के पढ़ने पढ़ानेहारे के परीक्षक, किसी की लल्लो पत्तो न करें, प्रश्नों के यथार्थ समाधानकर्त्ता, अपने आत्मा के तुल्य अन्य का भी सुख, दुःख, हानि, लाभ समझने वाले, अविद्यादि क्लेश, हठ, दुराग्रहाऽभिमानरहित, अमृत के समान अपमान और विष के समान मान को समझने वाले, सन्तोषी, जो कोई प्रीति से जितना देवे उतने ही से प्रसन्न, एक वार आपत्काल में मांगे भी न देने वा वर्जने पर भी दुःख वा बुरी चेष्टा न करना, वहां से झट लौट जाना, उस की निन्दा न करना, सुखी पुरुषों के साथ मित्रता, दुखियों पर करुणा, पुण्यात्माओं से आनन्द और पापियों से उपेक्षा अर्थात् रागद्वेषरहित रहना, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, निष्कपट, ईर्ष्याद्वेषरहित, गम्भीराशय, सत्पुरुष, धर्म से युक्त और सर्वथा दुष्टाचार से रहित अपने तन मन धन को परोपकार करने में लगाने वाले, पराये सुख के लिये अपने प्राणों को भी समिर्पतकर्त्ता इत्यादि शुभलक्षणयुक्त सुपात्र होते हैं। परन्तु दुिर्भक्षादि आपत्काल में अन्न, जल, वस्त्र और औषधि पथ्य स्थान के अधिकारी सब प्राणीमात्र हो सकते हैं।

(प्रश्न) दाता कितने प्रकार के होते हैं?

(उत्तर) तीन प्रकार के-उनम, मध्यम और निकृष्ट। उत्तम दाता उस को कहते हैं जो देश काल और पात्र को जानकर सत्यविद्या, धर्म की उन्नतिरूप परोपकारार्थ देवे। मध्यम वह है जो कीर्ति वा स्वार्थ के लिए दान करे। नीच वह है कि अपना वा पराया कुछ उपकार न कर सके किन्तु वेश्यागमनादि वा भांड भाटों आदि को देवे, देते समय तिरस्कार अपमानादि कुचेष्टा भी करे, पात्र कुपात्र का कुछ भी भेद न जाने किन्तु ‘सब अन्न बारह पसेरी’ बेचने वालों के समान विवाद लड़ाई, दूसरे धर्मात्मा को दुःख देकर सुखी होने के लिये दिया करे, वह अधम दाता है। अर्थात् जो परीक्षापूर्वक विद्वान् धर्मात्माओं का सत्कार करे वह उत्तम और जो कुछ परीक्षा करे वा न करे परन्तु जिस में अपनी प्रशंसा हो उस को मध्यम और जो अन्धाधुन्ध परीक्षारहित निष्फल दान दिया करे वह नीच दाता कहाता है।

(प्रश्न) दान के फल यहां होते हैं वा परलोक में?

(उत्तर) सर्वत्र होते हैं।

(प्रश्न) स्वयं होते हैं वा कोई फल देने वाला है?

(उत्तर) फल देने वाला ईश्वर है। जैसे कोई चोर डाकू स्वयं बन्दीघर में जाना नहीं चाहता, राजा उस को अवश्य भेजता है, धर्मात्माओं के सुख की रक्षा करता, भुगाता, डाकू आदि से बचाकर उन को सुख में रखता है वैसे ही परमात्मा सब को पाप पुण्य के दुःख और सुखरूप फलों को यथावत् भुगाता है।

 

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If the creatures of Yamalok commit sin, then the second Yamalok should believe that the judges there should judge them and if the bodies of Yamuns are like the mountain, then why not look? And in taking the dead organism, not even one finger of them can go in the small gate and the road does not stop in the street. If you say that they also wear a subtle body, then where will the first mountainous body, the great bones, the Pope, keep it in his house? When the forest starts coming, then only the bodies of the Peplikadi creatures are left.

 

 

 

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