विशेष सूचना - Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी रायपुर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित रायपुर में एकमात्र केन्द्र है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी के अतिरिक्त रायपुर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is the only controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Chhattisgarh. We do not have any other branch or Centre in Raipur. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
arya samaj marriage indore india legal

एकादश समुल्लास भाग -3

(प्रश्न) मूर्त्तिपूजा कहां से चली?

(उत्तर) जैनियों से

(प्रश्न) जैनियों ने कहां से चलाई?

(उत्तर) अपनी मूर्खता से।

(प्रश्न) जैनी लोग कहते हैं कि शान्त ध्यानावस्थित बैठी हुई मूर्त्ति देख के अपने जीव का भी शुभ परिणाम वैसा ही होता है।

(उत्तर) जीव चेतन और मूर्त्ति जड़। क्या मूर्त्ति के सदृश जीव भी जड़ हो जायगा? यह मूर्त्तिपूजा केवल पाखण्ड मत है; जैनियों ने चलाई है। इसलिये इन का खण्डन १२वें समुल्लास में करेंगे।

(प्रश्न) शाक्त आदि ने मूर्त्तियों में जैनियों का अनुकरण नहीं किया है क्योंकि जैनियों की मूर्त्तियों के सदृश वैष्णवादि की मूर्त्तियां नहीं हैं।

(उत्तर) हां! यह ठीक है। जो जैनियों के तुल्य बनाते तो जैनमत में मिल जाते। इसलिये जैनों की मूर्त्तियों से विरुद्ध बनाईं, क्योंकि जैनों से विरोध करना इन का काम और इन से विरोध करना मुख्य उन का काम था। जैसे जैनों ने मूर्त्तियां नंगी, ध्यानावस्थित और विरक्त मनुष्य के समान बनाई हैं; उन से विरुद्ध वैष्णवादि ने यथेष्ट शृंगारित स्त्री के सहित रंग राग भोग विषयासक्ति सहिताकार खड़ी और बैठी हुई बनाई हैं। जैनी लोग बहुत से शखं घण्टा घरियार आदि बाजे नहीं बजाते। ये लोग बड़ा कोलाहल करते हैं। तब तो ऐसी लीला के रचने से वैष्णवादि सम्प्रदायी पोपों के चेले जैनियों के जाल से बच के इन की लीला में आ फंसे और बहुत से व्यासादि महर्षियों के नाम से मनमानी असम्भव गाथायुक्त ग्रन्थ बनाये। उन का नाम ‘पुराण’ रख कर कथा भी सुनाने लगे। और फिर ऐसी-ऐसी विचित्र माया रचने लगे कि पाषाण की मूर्त्तियां बनाकर गुप्त कहीं पहाड़ वा जंगलादि मेंं धर आये वा भूमि में गाड़ दीं। पश्चात् अपने चेलों में प्रसिद्ध किया कि मुझ को रात्रि को स्वप्न में महादेव, पार्वती, राधा, कृष्ण, सीता, राम वा लक्ष्मी, नारायण और भैरव, हनुमान् आदि ने कहा है कि हम अमुक-अमुक ठिकाने हैं। हम को वहां से ला, मन्दिर में स्थापन कर और तू ही हमारा पुजारी होवे तो हम मनोवाञ्छित फल देवें। जब आंख के अन्धे और गांठ के पूरे लोगों ने पोप जी की लीला सुनी तब तो सच ही मान ली। और उन से पूछा कि ऐसी वह मूर्त्ति कहां पर है? तब तो पोप जी बोले कि अमुक पहाड़ वा जंगल में है चलो मेरे साथ दिखला दूं। तब तो वे अन्धे उस धूर्त्त के साथ चलके वहां पहुंच कर देखा। आश्चर्य होकर उस पोप के पग में गिर कहा कि आपके ऊपर इस देवता की बड़ी ही कृपा है। अब आप ले चलिये और हम मन्दिर बनवा देवेंगे। उस में इस देवता की स्थापना कर आप ही पूजा करना। और हम लोग भी इस प्रतापी देवता के दर्शन पर्सन करके मनोवाञ्छित फल पावेंगे। इसी प्रकार जब एक ने लीला रची तब तो उस को देख सब पोप लोगों ने अपनी जीविकार्थ छल कपट से मूर्त्तियां स्थापन कीं।

(प्रश्न) परमेश्वर निराकार है वह ध्यान में नहीं आ सकता इसलिये अवश्य मूर्त्ति होनी चाहिये। भला जो कुछ भी नहीं करे तो मूर्त्ति के सम्मुख जा, हाथ जोड़ परमेश्वर का स्मरण करते और नाम लेते हैं, इस में क्या हानि है?

(उत्तर) जब परमेश्वर निराकार, सर्वव्यापक है तब उस की मूर्त्ति ही नहीं बन सकती और जो मूर्त्ति के दर्शनमात्र से परमेश्वर का स्मरण होवे तो परमेश्वर के बनाये पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि अनेक पदार्थ, जिन में ईश्वर ने अद्भुत रचना की है; क्या ऐसी रचनायुक्त पृथिवी पहाड़ आदि परमेश्वर रचित महामूर्त्तियां कि जिन पहाड़ आदि से वे मनुष्यकृत मूर्त्तियाँ बनती हैं उन को देख कर परमेश्वर का स्मरण नहीं हो सकता? जो तुम कहते हो कि मूर्त्ति के देखने से परमेश्वर का स्मरण होता है यह तुम्हारा कथन सर्वथा मिथ्या है। और जब वह मूर्त्ति सामने न होगी तो परमेश्वर के स्मरण न होने से मनुष्य एकान्त पाकर चोरी जारी आदि कुकर्म करने में प्रवृत्त भी हो सकता है। क्योंकि वह जानता है कि इस समय यहाँ मुझे कोई नहीं देखता। इसलिये वह अनर्थ करे विना नहीं चूकता। इत्यादि अनेक दोष पाषाणादि मूर्त्तिपूजा करने से सिद्ध होते हैं। अब देखिये! जो पाषाणादि मूर्त्तियों को न मान कर सर्वदा, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी परमात्मा को सर्वत्र जानता और मानता है वह पुरुष सर्वत्र, सर्वदा परमेश्वर को सब के बुरे भले कर्मों का द्रष्टा जान कर एक क्षणमात्र भी परमात्मा से अपने को पृथक् न जान के कुकर्म करना तो कहां रहा किन्तु मन में कुचेष्टा भी नहीं कर सकता। क्योंकि वह जानता है, जो मैं मन, वचन और कर्म से भी कुछ बुरा काम करूँगा तो इस अन्तर्यामी के न्याय से विना दण्ड पाये कदापि न बचूंगा। और नामस्मरणमात्र से कुछ भी फल नहीं होता। जैसा कि मिशरी-मिशरी कहने से मुंह मीठा और नीम-नीम कहने से कडुवा नहीं होता किन्तु जीभ से चाखने ही से मीठा वा कडुवापन जाना जाता है।

(प्रश्न) क्या नाम लेना सर्वथा मिथ्या है जो सर्वत्र पुराणों में नामस्मरण का बड़ा माहात्म्य लिखा है?

(उत्तर) नाम लेने की तुम्हारी रीति उत्तम नहीं। जिस प्रकार तुम नामस्मरण करते हो वह रीति झूठी है

(प्रश्न) हमारी कैसी रीति है?

(उत्तर) वेदविरुद्ध।

(प्रश्न) भला अब आप हम को वेदोक्त नामस्मरण की रीति बतलायें?

(उत्तर) नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिये- जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इस का अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सब का यथावत् न्याय करता है वैसे उस को ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना; अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है।

(प्रश्न) हम भी जानते हैं कि परमेश्वर निराकार है परन्तु उस ने शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य और देवी आदि के शरीर धारण करके राम, कृष्णादि अवतार लिये। इस से उसकी मूर्त्ति बनती है; क्या यह भी बात झूठी है?

(उत्तर) हां-हां झूठी। क्योंकि ‘अज एकपात्’ ‘अकायम्’ इत्यादि विशेषणों से परमेश्वर को जन्ममरण और शरीरधारणरहित वेदों में कहा है तथा युक्ति से भी परमेश्वर का अवतार कभी नहीं हो सकता क्योंकि जो आकाशवत् सर्वत्र व्यापक, अनन्त और सुख, दुःख, दृश्यादि गुणरहित है वह एक छोटे से वीर्य्य, गर्भाशय और शरीर में क्योंकर आ सकता है? आता जाता वह है कि जो एकदेशीय हो। और जो अचल, अदृश्य, जिस के विना एक परमाणु भी खाली नहीं है; उस का अवतार कहना जानो वन्ध्या के पुत्र का विवाह कर उस के पौत्र के दर्शन करने की बात कहना है।

(प्रश्न) जब परमेश्वर व्यापक है तो मूर्त्ति में भी है। पुनः चाहें किसी पदार्थ में भावना करके पूजा करना अच्छा क्यों नहीं? देखो-

न काष्ठे विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम्।।

परमेश्वर देव न काष्ठ, न पाषाण, न मृत्तिका से बनाये पदार्थों में है किन्तु परमेश्वर तो भाव में विद्यमान है। जहां भाव करें वहां ही परमेश्वर सिद्ध होता है।

(उत्तर) जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना अन्यत्र न करना यह ऐसी बात है कि जैसी चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटी सी झोंपड़ी का स्वामी मानना। देखो! यह कितना बड़ा अपमान है? वैसा तुम परमेश्वर का भी अपमान करते हो। जब व्यापक मानते हो तो वाटिका में से पुष्पपत्र तोड़ के क्यों चढ़ाते? चन्दन घिस के क्यों लगाते? धूप को जला के क्यों देते ? घण्टा, घरियाल, झांज, पखाजों को लकड़ी से कूटना पीटना क्यों करते हो? तुम्हारे हाथों में है, क्यों जोड़ते? शिर में है, क्यों शिर नमाते? अन्न, जलादि में है, क्यों नैवेद्य धरते? जल में है, स्नान क्यों कराते क्योंकि उन सब पदार्थों में परमात्मा व्यापक है। और तुम व्यापक की पूजा करते हो वा व्याप्य की? जो व्यापक की करते हो तो पाषाण लकड़ी आदि पर चन्दन पुष्पादि क्यों चढ़ाते हो। और जो व्याप्य की करते हो तो हम परमेश्वर की पूजा करते हैं, ऐसा झूठ क्यों बोलते हो? हम पाषाणादि के पुजारी हैं; ऐसा सत्य क्यों नहीं बोलते? अब कहिये ‘भाव’ सच्चा है वा झूठा? जो कहो सच्चा है तो तुम्हारे भाव के आवमीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायगा और तुम मृत्तिका में सुवर्ण, रजतादि; पाषाण में हीरा, पन्ना आदि; समुद्रफेन में मोती, जल में घृत, दुग्ध, दधि आदि और धूलि में मैदा, शक्कर आदि की भावना करके उन को वैसे क्यों नहीं बनाते हो? तुम लोग दुख की भावना कभी नहीं करते; वह क्यों होता? और सुख की भावना सदैव करते हो; वह क्यों नहीं प्राप्त होता? अन्धा पुरुष नेत्र की भावना करके क्यों नहीं देखता? मरने की भावना नहीं करते; क्यों मर जाते हो? इसलिये तुम्हारी भावना सच्ची नहीं। क्योंकि जैसे में वैसी करने का नाम भावना कहते हैं। जैसे अग्नि में अग्नि, जल में जल जानना और जल में अग्नि, अग्नि में जल समझना अभावना है। क्योंकि जैसे को वैसा जानना ज्ञान और अन्यथा जानना अज्ञान है। इसलिये तुम अभावना को भावना और भावना को अभावना कहते हो।

(प्रश्न) अजी! जब तक वेद मन्त्रें से आवाहन नहीं करते तब तक देवता नहीं आता और आवाहन करने से झट आता और विसर्जन करने से चला जाता है।

(उत्तर) जो मन्त्र को पढ़ कर आवाहन करने से तब तक देवता आ जाता है तो मूर्त्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहां से आता और कहां जाता है? सुनो भाई! पूर्ण परमात्मा न आता और न जाता है। जो तुम मन्त्रबल से परमेश्वर को बुला लेते हो तो उन्हीं मन्त्रें से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर में जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? सुनो भाई भोले लोगो! ये पोप जी तुम को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं? वेदों में पाषाणादि मूर्त्तिपूजा और परमेश्वर के आवाहन विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं है।

(प्रश्न) प्राणा इहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
आत्मेहागच्छतु सुखं चिर तिष्ठतु स्वाहा।
इन्द्रियाणीहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।।

इत्यादि वेदमन्त्र हैं क्यों कहते हो नहीं हैं?

(उत्तर) अरे भाई! बुद्धि को थोड़ी सी तो अपने काम में लाओ! ये सब कपोल-कल्पित वाममार्गियों की वेदविरुद्ध तन्त्रग्रन्थों की पोपरचित पंक्तियां हैं; वेदवचन नहीं।

(प्रश्न) क्या तन्त्र झूठा है?

(उत्तर) हां! सर्वथा झूठा है। जैसे आवाहन, प्राणप्रतिष्ठादि पाषाणादि मूर्त्ति-विषयक वेदों में एक मन्त्र भी नहीं वैसे ‘स्नानं समर्पयामि’ इत्यादि वचन भी नहीं है। अर्थात् इतना भी नहीं है कि ‘पाषाणादिमूर्त्ति रचयित्वा मन्दिरेषु संस्थाप्य गन्धादिभिरर्चयेत् ।’ अर्थात् पाषाण की मूर्त्ति बना, मन्दिरों में स्थापन कर, चन्दन अक्षतादि से पूजे। ऐसा लेशमात्र भी नहीं।

(प्रश्न) जो वेदों में विधि नहीं तो खण्डन भी नहीं है। और जो खण्डन है तो ‘प्राप्तौ सत्यां निषेधः’ मूर्त्ति के होने ही से खण्डन संगत हो सकता है।

(उत्तर) विधि तो नहीं । परन्तु परमेश्वर के स्थान में किसी अन्य पदार्थ को पूजनीय न मानना और सर्वथा निषेध किया है। क्या अपूर्वविधि नहीं होता? सुनो यह है-

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्यारताः ।।१।। -यजुः० अ० ४० । मं० ९ ।।
न तस्य प्रतिमाऽअस्ति ।।२।। -यजुः० अ० ३२ । मं० ३ ।।

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।१।।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।२।।
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।३।।
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राण प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।। केनोपनि०।।

जो असम्भूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागर में डूबते हैं। और सम्भूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथिवी आदि भूत पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं वे उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं।।१।।

जो सब जगत् में व्यापक है उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा परिमाण सादृश्य वा मूर्त्ति नहीं है।।२।।

जो वाणी की ‘इदन्ता’ अर्थात् यह जल है लीजिये, वैसा विषय नहीं। और जिस के धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर। और जो उससे भिन्न है वह उपासनीय नहीं।।१।।

जो मन से ‘इयत्ता’ करके मन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो उस से भिन्न जीव और अन्तःकरण है उस की उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर।।२।।

जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिस से सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और जो उस से भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं उन की उपासना मत कर।।३।।

जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिस से श्रोत्र सुनता है उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और उस से भिन्न शब्दादि की उपासना उस के स्थान में मत कर।।४।।

जो प्राणों से चलायमान नहीं होता जिस से प्राण गमन को प्राप्त होता है उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो यह उस से भिन्न वायु है उस की उपासना मत कर।।५।।

इत्यादि बहुत से निषेध हैं। निषेध प्राप्त और अप्राप्त का भी होता है। ‘प्राप्त’ का जैसे कोई कहीं बैठा हो उस को वहां से उठा देना। ‘अप्राप्त’ का जैसे हे पुत्र! तू चोरी कभी मत करना, कुवे में मत गिरना। दुष्टों का संग मत करना। विद्याहीन मत रहना। इत्यादि अप्राप्त का भी निषेध होता है। सो मनुष्यों के ज्ञान में अप्राप्त, परमेश्वर के ज्ञान में प्राप्त का निषेध किया है। इसलिये पाषाणादि मूर्त्तिपूजा अत्यन्त निषिद्ध है?

(प्रश्न) मूर्त्तिपूजा में पुण्य नहीं तो पाप तो नहीं है?

(उत्तर) कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक विहित-जो कर्त्तव्यता से वेद में सत्यभाषणादि प्रतिपादित हैं। दूसरे निषिद्ध-जो अकर्त्तव्यता से मिथ्याभाषणादि वेद में निषिद्ध हैं। जैसे विहित का अनुष्ठान करना वह धर्म, उस का न करना अधर्म है; वैसे ही निषिद्ध कर्म का करना अधर्म और न करना धर्म है। जब वेदों से निषिद्ध मूर्त्तिपूजादि कर्मों को तुम करते हो तो पापी क्यों नहीं?

(प्रश्न) देखो! वेद अनादि हैं। उस समय मूर्त्तिपूजा का क्या काम था? क्योंकि पहले तो देवता प्रत्यक्ष थे। यह रीति तो पीछे से तन्त्र और पुराणों से चली है। जब मनुष्यों का ज्ञान और सामर्थ्य न्यून हो गया तो परमेश्वर को ध्यान में नहीं ला सके और मूर्त्ति का ध्यान तो कर सकते हैं। इस कारण अज्ञानियों के लिये मूर्त्तिपूजा है। क्योंकि सीढ़ी-सीढ़ी से चढ़े तो भवन पर पहुंच जाय। पहली सीढ़ी छोड़ कर ऊपर जाना चाहै तो नहीं जा सकता, इसलिये मूर्त्ति प्रथम सीढ़ी है। इस को पूजते-पूजते जब ज्ञान होगा और अन्तःकरण पवित्र होगा तब परमात्मा का ध्यान कर सकेगा। जैसे लक्ष्य के मारने वाला प्रथम स्थूल लक्ष्य में तीर, गोली वा गोला आदि मारता-मारता पश्चात् सूक्ष्म में भी निशाना मार सकता है। वैसे स्थूल मूर्त्ति की पूजा करता-करता पुनः सूक्ष्म ब्रह्म को भी प्राप्त होता है। जैसे लड़कियाँ गुड़ियों का खेल तब तक करती हैं कि जब तक सच्चे पति को प्राप्त नहीं होतीं। इत्यादि प्रकार से मूर्त्तिपूजा करना दुष्ट काम नहीं।

(उत्तर) जब वेदविहित धर्म और वेदविरुद्धाचरण में अधर्म है तो पुनः तुम्हारे कहने से भी मूर्त्तिपूजा करना अधर्म ठहरा। जो-जो ग्रन्थ वेद से विरुद्ध हैं उन-उन का प्रमाण करना जानो नास्तिक होना है। सुनो-

नास्तिको वेदनिन्दक ।।१।।
या वेदबाह्या स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टय ।
सर्वास्ता निष्फला प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता स्मृता ।।२।।
उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित्।
तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च।।३।। मनु० अ० १२।।

मनु जी कहते हैं कि जो वेदों की निन्दा अर्थात् अपमान, त्याग, विरुद्धाचरण करता है वह नास्तिक कहाता है।।१।।

जो ग्रन्थ वेदबाह्य कुत्सित पुरुषों के बनाये संसार को दुःखसागर में डुबोने वाले हैं वे सब निष्फल, असत्य, अन्धकाररूप, इस लोक और परलोक में दुःखदायक हैं।।२।।

जो इन वेदों से विरुद्ध ग्रन्थ उत्पन्न होते हैं वे आधुनिक होने से शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। उन का मानना निष्फल और झूंठा है।।३।।

इसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर जैमिनि महर्षिपर्यन्त का मत है कि वेदविरुद्ध को न मानना किन्तु वेदानुकूल ही का आचरण करना धर्म है। क्यों? वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है इस से विरुद्ध जितने तन्त्र और पुराण हैं वेदविरुद्ध होने से झूंठे हैं कि जो वेद से विरुद्ध चलते हैं उन में कही हुई मूर्त्तिपूजा भी अधर्मरूप है। मनुष्यों का ज्ञान जड़ की पूजा से नहीं बढ़ सकता किन्तु जो कुछ ज्ञान है वह नष्ट हो जाता है। इसलिये ज्ञानियों की सेवा, संग से ज्ञान बढ़ता है; पाषाणदि से नहीं। क्या पाषाणादि मूर्त्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी ला सकता है? नहीं-नहीं, मूर्त्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिस में गिरकर चकनाचूर हो जाता है। पुनः उस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है। हां! छोटे धार्मिक विद्वानों से लेकर परम विद्वान् योगियों के संग से सद्विद्या और सत्यभाषणादि परमेश्वर की प्राप्ति की सीढ़िया हैं जैसी ऊपर घर में जाने की निःश्रेणी होती है। किन्तु मूर्त्तिपूजा करते-करते ज्ञानी तो कोई न हुआ प्रत्युत सब मूर्त्तिपूजक अज्ञानी रह कर मनुष्यजन्म व्यर्थ खोके बहुत से मर गये और जो अब हैं वा होंगे वे भी मनुष्यजन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्तिरूप फलों से विमुख होकर निरर्थ नष्ट हो जायेंगे। मूर्त्तिपूजा ब्रह्म की प्राप्ति में स्थूल लक्ष्यवत् नहीं किन्तु धार्मिक विद्वान् और सृष्टिविद्या है। इस को बढ़ाता-बढ़ाता ब्रह्म को भी पाता है। और मूर्त्तिपूजा गुड़ियों के खेलवत् नहीं किन्तु प्रथम अक्षराभ्यास सुशिक्षा का होना गुड़ियों के खेलवत् ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है। सुनिये! जब अच्छी शिक्षा और विद्या को प्राप्त होगा तब सच्चे स्वामी परमात्मा को भी प्राप्त हो जायेगा।

(प्रश्न) साकार में मन स्थिर होता और निराकार में स्थिर होना कठिन है इसलिये मूर्त्तिपूजा रहनी चाहिये।

(उत्तर) साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता क्योंकि उस को मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है। और निराकार अनन्त परमात्मा के ग्रहण में यावत्सामर्थ्य मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चंचल भी नहीं रहता किन्तु उसी के गुण, कर्म, स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है। और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता क्योंकि जगत् में मनुष्य, स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फंसा रहता है परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता; जब तक निराकार में न लगावे। क्योंकि निरवयव होने से उस में मन स्थिर हो जाता है। इसलिये मूर्त्तिपूजा करना अधर्म है।

दूसरा- उस में क्रोड़ों रुपये मन्दिरों में व्यय करके दरिद्र होते हैं और उस में प्रमाद होता है। तीसरा-स्त्री पुरुषों का मन्दिरों में मेला होने से व्यभिचार, लड़ाई बखेड़ा और रोगादि उत्पन्न होते हैं। चौथा-उसी को धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थ रहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाता है। पांचवां-नाना प्रकार की विरुद्धस्वरूप नाम चरित्रयुक्त मूर्त्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चल कर आपस में फूट बढ़ा के देश का नाश करते हैं। छठा-उसी के भरोसे में शत्रु का पराजय और अपना विजय मान बैठे रहते हैं। उन का पराजय हो कर राज्य, स्वातन्त्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं के स्वाधीन होता है और आप पराधीन भठियारे के टट्टू और कुम्हार के गदहे के समान शत्रुओं के वश में होकर अनेकविधि दुख पाते हैं। सातवां-जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के आसन वा नाम पर पत्थर धरें तो जैसे वह उस पर क्रोधित होकर मारता वा गाली प्रदान देता है वैसे ही जो परमेश्वर की उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्त्तियां धरते हैं उन दुष्टबुद्धिवालों का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे? आठवां-भ्रान्त होकर मन्दिर-मन्दिर देशदेशान्तर में घूमते-घूमते दुख पाते, धर्म, संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते, चोर आदि से पीड़ित होते, ठगों से ठगाते रहते हैं। नववां-दुष्ट पूजारियों को धन देते हैं वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मद्य, मांसाहार, लड़ाई बखेडों में व्यय करते हैं जिस से दाता का सुख का मूल नष्ट होकर दुःख होता है। दशवां-माता पिता आदि माननीयों का अपमान कर पाषाणादि मूर्त्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते हैं। ग्यारहवां-उन मूर्त्तियों को कोई तोड़ डालता वा चोर ले जाता है तब हा-हा करके रोते रहते हैं। बारहवां-पूजारी परस्त्रियों के संग और पूजारिन परपुरुषों के संग से प्रायः दूषित होकर स्त्री पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते हैं। तेरहवां-स्वामी सेवक की आज्ञा का पालन यथावत् न होने से परस्पर विरुद्धभाव होकर नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। चौदहवां-जड़ का ध्यान करने वाले का आत्मा भी जड़ बुद्धि हो जाता है क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है। पन्द्रहवां-परमेश्वर ने सुगन्धियुक्त पुष्पादि पदार्थ वायु जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिये बनाये हैं। उन को पुजारी जी तोड़ताड़ कर न जाने उन पुष्पों की कितने दिन तक सुगन्धि आकाश में चढ़ कर वायु जल की शुद्धि करता और पूर्ण सुगन्धि के समय तक उस का सुगन्ध होता है; उस का नाश मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि कीच के साथ मिल सड़ कर उलटा दुर्गन्ध उत्पन्न करते हैं। क्या परमात्मा ने पत्थर पर चढ़ाने के लिये पुष्पादि सुगन्धियुक्त पदार्थ रचे हैं। सोलहवां-पत्थर पर चढ़े हुए पुष्प, चन्दन और अक्षत आदि सब का जल और मृत्तिका के संयोग होने से मोरी वा कुण्ड में आकर सड़ के इतना उस से दुर्गन्ध आकाश में चढ़ता है कि जितना मनुष्य के मल का। और सहस्रों जीव उस में पड़ते उसी में मरते और सड़ते हैं। ऐसे-ऐसे अनेक मूर्त्तिपूजा के करने में दोष आते हैं। इसलिये सर्वथा पाषाणादि मूर्त्तिपूजा सज्जन लोगों को त्यक्तव्य है। और जिन्होंने पाषाणमय मूर्त्ति की पूजा की है, करते हैं और करेंगे। वे पूर्वोक्त दोषों से न बचे; न बचते हैं, और न बचेंगे।

(प्रश्न) किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा करनी करानी नहीं और जो अपने आर्य्यावर्त्त में पञ्चदेवपूजा शब्द प्राचीन परम्परा से चला आता है उस का यही पञ्चायतनपूजा जो कि शिव, विष्णु, अम्बिका, गणेश और सूर्य्य की मूर्त्ति बनाकर पूजते हैं; यह पञ्चायतनपूजा है वा नहीं?

(उत्तर) किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा न करना किन्तु ‘मूर्त्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे उन की पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिये। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतनपूजा शब्द बहुत अच्छा अर्थ वाला है परन्तु विद्याहीन मूढों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ पकड़ लिया। जो आजकल शिवादि पांचों की मूर्त्तियां बनाकर पूजते हैं उन का खण्डन तो अभी कर चुके हैं। पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूलोक्त देवपूजा और मूर्त्तिपूजा है वह सुनो-

मा नो वधीः पितरं मोत मातरम् ।।१।। यजु०।।
आचार्यऽउपनयमानो ब्रह्मचारिणमिच्छते ।।२।।
अतिथिर्गृहानुपगच्छेत् ।।३।। अथर्व०।।
अचर्त प्रार्चत प्रिय मेधासो अचर्त ।।४।। ऋग्वेदे०।।
त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।।५।। -तैनिरीयोप०।।
कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते।।६।। -शतपथ प्रपाठ० ५। ब्राह्मण ७। कण्डिका १०।।
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव।।७।। -तैनिरीयोप०।।
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैता पतिभिर्देवरैस्तथा ।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभि ।।८।।
पूज्यो देववत्पतिः।।९।। मनुस्मृतौ।।

प्रथम माता मूर्त्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को प्रसन्न रखना, हिसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता सत्कर्त्तव्य देव। उस की भी माता के समान सेवा करनी।।१।। तीसरा आचार्य जो विद्या का देने वाला है उस की तन, मन, धन से सेवा करनी।।२।।

चौथा अतिथि जो विद्वान्, धार्मिक, निष्कपटी, सब की उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सब को सुखी करता है उस की सेवा करें।।३।।

पांचवां स्त्री के लिये पति और पुरुष के लिये स्वपत्नी पूजनीय है।।८।। ये पांच मूर्त्तिमान् देव जिन के संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती हैं ये ही परमेश्वर को प्राप्ति होने की सीढ़ियां हैं। इन की सेवा न करके जो पाषाणादि मूर्त्ति पूजते हैं वे अतीव पामर, नरकगामी तथा वेदविरोधी हैं।

अधिक जानकारी के लिये सम्पर्क करें -

क्षेत्रीय कार्यालय (रायपुर)
आर्य समाज संस्कार केन्द्र
अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट रायपुर शाखा
वण्डरलैण्ड वाटरपार्क के सामने, DW-4, इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी
होण्डा शोरूम के पास, रिंग रोड नं.-1, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
हेल्पलाइन : 9109372521
www.aryasamajonline.co.in 

 

राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
नरेन्द्र तिवारी मार्ग, बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास, दशहरा मैदान के सामने
अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
दूरभाष : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com 

---------------------------------------

Regional Office (Raipur)
Arya Samaj Sanskar Kendra
Akhil Bharat Arya Samaj Trust Raipur Branch
Opposite Wondland Water Park
DW-4, Indraprastha Colony, Ring Road No.-1
Raipur (Chhattisgarh) 492010
Helpline No.: 9109372521
www.aryasamajonline.co.in 

 

National Administrative Office
Akhil Bharat Arya Samaj Trust
Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
Narendra Tiwari Marg, Near Bank of India
Opp. Dussehra Maidan, Annapurna
Indore (M.P.) 452009
Tel. : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com 

 

In the same way, why should God not destroy those wicked people who put stone idols in the heart and name in the place of worship of God? After getting confused, temple-temple traverses in the country and abroad, getting misery, destroying the work of religion, world and charitable, suffering from thieves etc., cheating them with thugs The wicked give money to the priests. They spend that money in prostitutes, adultery, alcohol, non-vegetarians, war-goats, by which the giver's happiness origin is destroyed.

 

 

Eleventh Chapter Part - 3 of Satyarth Prakash (the Light of Truth) | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | Arya Samaj Mandir Marriage Helpline Raipur | Aryasamaj Mandir Helpline Raipur | inter caste marriage Helpline Raipur | inter caste marriage promotion for prevent of untouchability in Raipur | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | arya samaj marriage Raipur | arya samaj marriage rules Raipur | inter caste marriage promotion for national unity by Arya Samaj Raipur | human rights in Raipur | human rights to marriage in Raipur | Arya Samaj Marriage Guidelines Raipur | inter caste marriage consultants in Raipur | court marriage consultants in Raipur | Arya Samaj Mandir marriage consultants in Raipur | arya samaj marriage certificate Raipur | Procedure of Arya Samaj Marriage Raipur | arya samaj marriage registration Raipur | arya samaj marriage documents Raipur | Procedure of Arya Samaj Wedding Raipur | arya samaj intercaste marriage Raipur | arya samaj wedding Raipur | arya samaj wedding rituals Raipur | arya samaj wedding legal Raipur | arya samaj shaadi Raipur | arya samaj mandir shaadi Raipur | arya samaj shadi procedure Raipur | arya samaj mandir shadi valid Raipur | arya samaj mandir shadi Raipur | inter caste marriage Raipur | validity of arya samaj marriage certificate Raipur | validity of arya samaj marriage Raipur | Arya Samaj Marriage Ceremony Raipur | Arya Samaj Wedding Ceremony Raipur | Documents required for Arya Samaj marriage Raipur | Arya Samaj Legal marriage service Raipur | Arya Samaj Pandits Helpline Raipur | Arya Samaj Pandits Raipur | Arya Samaj Pandits for marriage Raipur | Arya Samaj Temple Raipur | Arya Samaj Pandits for Havan Raipur | Arya Samaj Pandits for Pooja Raipur | Pandits for marriage Raipur | Pandits for Pooja Raipur | Arya Samaj Pandits for vastu shanti havan | Vastu Correction without Demolition Raipur | Arya Samaj Pandits for Gayatri Havan Raipur | Vedic Pandits Helpline Raipur | Hindu Pandits Helpline Raipur | Pandit Ji Raipur, Arya Samaj Intercast Matrimony Raipur | Arya Samaj Hindu Temple Raipur | Hindu Matrimony Raipur | सत्यार्थप्रकाश | वेद | महर्षि दयानन्द सरस्वती | विवाह समारोह, हवन | आर्य समाज पंडित | आर्य समाजी पंडित | अस्पृश्यता निवारणार्थ अन्तरजातीय विवाह | आर्य समाज मन्दिर | आर्य समाज मन्दिर विवाह | वास्तु शान्ति हवन | आर्य समाज मन्दिर आर्य समाज विवाह भारत | Arya Samaj Mandir Marriage Raipur Chhattisgarh India

all india arya samaj marriage place
pandit requirement
Copyright © 2022. All Rights Reserved. aryasamajraipur.com