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एकादश समुल्लास भाग -11

(प्रश्न) स्वामीनारायण का मत कैसा है?

(उत्तर) ‘यादृशी शीतला देवी तादृशो वाहन खरः।’ जैसी गुसाईं जी की धनहरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामीनारायण की भी है। एक ‘सहजानन्द’ नामक अयोध्या के समीप एक ग्राम का जन्मा हुआ था। वह ब्रह्मचारी होकर गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, भुज आदि देशों में फिरता था। उसने देखा कि यह देश मूर्ख भोला भाला है। चाहें जैसे इन को अपने मत में झुका लें वैसे ही ये लोग झुक सकते हैं। वहां उस ने दो चार शिष्य बनाये। उन ने आपस में सम्मति कर प्रसिद्ध किया कि सहजानन्द नारायण का अवतार और बड़ा सिद्ध है। और भक्तों को चतुर्भुज मूर्ति धारण कर साक्षात् दर्शन भी देता है। एक वार काठियावाड़ में किसी काठी अर्थात् जिस का ‘दादाखाचर’ गड्ढे का भूमिया (जिमीदार) था। उस को शिष्यों ने कहा कि-तुम चतुर्भुज नारायण का दर्शन करना चाहो तो हम सहजानन्द जी से प्रार्थना करें? उस ने कहा बहुत अच्छी बात है। वह भोला आदमी था। एक कोठरी में सहजानन्द ने शिर पर मुकट धारण कर और शंख, चक्र अपने हाथ में ऊपर को धारण किया और एक दूसरा आदमी उसके पीछे खड़ा रह कर गदा, पद्म अपने हाथ में लेकर सहजानन्द की बगल में से आगे को हाथ निकाल चतुर्भुज के तुल्य बन ठन गये। दादाखाचर से उन के चेलों ने कहा कि एक बार आंख उठा कर देख के फिर आंख मींच लेना और झट इधर को चले आना। जो बहुत देखोगे तो नारायण कोप करेंगे अर्थात् चेलों के मन में तो यह था कि हमारे कपट की परीक्षा न कर लेवे। उस को ले गये, वह सहजानन्द कलाबत्तू और चलकते हुए रेशमी कपड़े धारण किये था। अन्धेरी कोठरी में खड़ा था। उस के चेलों ने एकदम लालटेन से कोठरी की ओर उजाला किया। दादाखाचर ने देखा तो चतुर्भुज मूर्त्ति दीखी, फिर झट दीपक को आड़ में कर दिया। वे सब नीचे गिर, नमस्कार कर दूसरी ओर चले आये और उसी समय बीच में बातें कीं कि तुम्हारा धन्य भाग्य है। अब तुम महाराज के चेले हो जाओ। उस ने कहा बहुत अच्छी बात। जब लों फिर के दूसरे स्थान में गये तब लों दूसरे वस्त्र धारण करके सहजानन्द गद्दी पर बैठा मिला। तब चेलों ने कहा कि देखो अब दूसरा रूप धारण करके यहां विराजमान हैं। वह दादाखाचर इन के जाल में फंस गया। वहीं से उन के मत की जड़ जमी क्योंकि वह एक बड़ा भूमिया था। वहीं अपनी जड़ जमा ली, पुनः इधर उधर घूमता रहा। सब को उपदेश करता था, बहुतों को साधु भी बनाता था। कभी-कभी किसी साधु की कण्ठ की नाड़ी को मल कर मूर्छित भी कर देता था और सब से कहता था कि हमने इन को समाधि चढ़ा दी है। ऐसी-ऐसी धूर्त्तता में काठियावाड़ के भोले भाले लोग उसके पेच में फंस गये। जब वह मर गया तब उस के चेलों ने बहुत सा पाखण्ड फैलाया। इस में यह दृष्टान्त उचित होगा कि जैसे कोई एक चोरी करता पकड़ा गया था। न्यायाधीश ने उस की नाक काट डालने का दण्ड किया। जब उस की नाक काटी गई तब वह धूर्त्त नाचने गाने और हंसने लगा। लोगों ने पूछा कि तू क्यों हंसता है? उस ने कहा कुछ कहने की बात नहीं है । लोगों ने पूछा-ऐसी कौन सी बात है? उस ने कहा बड़ी भारी आश्चर्य की बात है, हम ने ऐसी कभी नहीं देखी । लोगों ने कहा-कहो! क्या बात है? उस ने कहा कि मेरे सामने साक्षात् चतुर्भुज नारायण खड़े हैं। मैं देख कर बड़ा प्रसन्न होकर नाचता गाता अपने भाग्य को धन्यवाद देता हूं कि मैं नारायण का साक्षात् दर्शन कर रहा हूं। लोगों ने कहा हम को दर्शन क्यों नहीं होता? वह बोला नाक की आड़ हो रही है। जो नाक कटवा डालो तो नारायण दीखे, नहीं तो नहीं। उन में से किसी मूर्ख ने कहा कि नाक जाय तो जाय परन्तु नारायण का दर्शन अवश्य करना चाहिये। उस ने कहा कि मेरी भी नाक काटो, नारायण को दिखलाओ। उस ने उस की नाक काट कर कान में कहा कि तू भी ऐसा ही कर, नहीं तो मेरा और तेरा उपहास होगा। उस ने भी समझा कि अब नाक तो आती नहीं इसलिए ऐसा ही कहना ठीक है। तब तो वह भी वहां उसी के समान नाचने, कूदने, गाने, बजाने, हंसने और कहने लगा कि मुझ को भी नारायण दीखता है । वैसे होते-होते एक सहस्र मनुष्य का झुण्ड हो गया और बड़ा कोलाहल मचा और अपने सम्प्रदाय का नाम ‘नारायणदर्शी’ रक्खा । किसी मूर्ख राजा ने सुना, उन को बुलाया। जब राजा उन के पास गया तब तो वे बहुत नाचने, कूदने, हंसने लगे। तब राजा ने पूछा कि यह क्या बात है। उन्होंने कहा कि साक्षात् नारायण हम को दीखता है।

(राजा) हम को क्यों नहीं दीखता?

(नारायणदर्शी) जब तक नाक है तब तक नहीं दीखेगा और जब नाक कटवा लोगे तब नारायण प्रत्यक्ष दीखेंगे। उस राजा ने विचारा कि यह बात ठीक है।

ज्योतिषी जी! मुहूर्त्त देखिये।

ज्योतिषी जी ने उत्तर दिया-जो हुकम अन्नदाता! दशमी के दिन प्रातःकाल आठ बजे नाक कटवाने और नारायण के दर्शन करने का बड़ा अच्छा मुहूर्त्त है। वाह रे पोप जी! अपनी पोथी में नाक काटने कटवाने का भी मुहूर्त्त लिख दिया। जब राजा की इच्छा हुई और उन सहस्र नकटों के सीधे बांध दिये तब तो वे बड़े ही प्रसन्न होकर नाचने, कूदने और गाने लगे। यह बात राजा के दीवान आदि कुछ-कुछ बुद्धि वालों को अच्छी न लगी। राजा के एक चार पीढ़ी का बूढ़ा ९० वर्ष का दीवान था। उस को जाकर उस के परपोते ने जो कि उस समय दीवान था; वह बात सुनाई। तब उस वृद्ध ने कहा कि वे धूर्त्त हैं। तू मुझ को राजा के पास ले चल। वह ले गया। बैठते समय राजा ने बड़े हर्षित होके उन नाककटों की बातें सुनाईं। दीवान ने कहा कि सुनिये महाराज! ऐसी शीघ्रता न करनी चाहिए। विना परीक्षा किये पश्चात्ताप होता है।

(राजा) क्या वे सहस्र पुरुष झूठ बोलते होंगे?

(दीवान) झूठ बोलो या सच, विना परीक्षा के सच झूठ कैसे कह सकते हैं?

(राजा) परीक्षा किस प्रकार करनी चाहिए।

(दीवान) विद्या, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

(राजा) जो पढ़ा न हो वह परीक्षा कैसे करे?

(दीवान) विद्वानों के संग से ज्ञान की वृद्धि करके।

(राजा) जो विद्वान् न मिले तो?

(दीवान) पुरुषार्थी को कोई बात दुर्लभ नहीं है।

(राजा) तो आप ही कहिए कैसा किया जाय?

(दीवान) मैं बुड्ढा और घर में बैठा रहता हूं और अब थोड़े दिन जीऊंगा भी। इसलिए प्रथम परीक्षा मैं कर लेऊँ। तत्पश्चात् जैसा उचित समझें वैसा कीजियेगा।

(राजा) बहुत अच्छी बात है। ज्योतिषी जी! दीवान जी के लिये मुहूर्त्त देखो।

(ज्योतिषी) जो महाराज की आज्ञा। यही शुक्ल पञ्चमी १० बजे का मुहूर्त्त अच्छा है। जब पञ्चमी आई तब राजा जी के पास आ कर आठ बजे बुड्ढे दीवान जी ने राजा जी से कहा कि सहस्र दो सहस्र सेना लेके चलना चाहिए।

(राजा) वहां सेना का क्या काम है?

(दीवान) आपको राज्यव्यवस्था की जानकारी नहीं है। जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिये।

(राजा) अच्छा जाओ भाई, सेना को तैयार करो। साढ़े नौ बजे सवारी करके राजा सब को लेकर गया। उस को देख कर वे नाचने और गाने लगे। जाकर बैठे। उनके महन्त जिस ने यह सम्प्रदाय चलाया था, जिस की प्रथम नाक कटी थी उस को बुलाकर कहा कि आज हमारे दीवान जी को नारायण का दर्शन कराओ। उस ने कहा अच्छा। दश बजे का समय जब आया तब एक थाली मनुष्य ने नाक के नीचे पकड़ रक्खी। उस ने पैना चाकू ले नाक काट थाली में डाल दी और दीवान जी की नाक से रुधिर की धार छूटने लगी। दीवान जी का मुख मलिन पड़ गया। फिर उस धूर्त्त ने दीवान जी के कान में मन्त्रेपदेश किया कि आप भी हंसकर सब से कहिये कि मुझ को नारायण दीखता है। अब नाक कटी हुई नहीं आवेगी। जो ऐसा ना कहोगे तो तुम्हारा बड़ा ठठ्ठा होगा, सब लोग हंसी करेंगे। वह इतना कह अलग हुआ और दीवान जी ने अंगोछा हाथ में ले नाक की आड़ में लगा दिया। जब दीवान जी से राजा ने पूछा, कहिये! नारायण दीखता है वा नहीं? दीवान जी ने राजा के कान में कहा कि कुछ भी नहीं दीखता। वृथा इस धूर्त्त ने सहस्रों मनुष्यों को भ्रष्ट किया। राजा ने दीवान से कहा अब क्या करना चाहिये? दीवान ने कहा-इन को पकड़ के कठिन दण्ड देना चाहिए। जब लों जीवें तब लों बन्दीघर में रखना चाहिए और इस दुष्ट को कि जिस ने इन सब को बिगाड़ा है गधे पर चढ़ा बड़ी दुर्दशा के साथ मारना चाहिए। जब राजा और दीवान कान में बातें करने लगे तब उन्होंने डरके भागने की तैयारी की परन्तु चारों और फौज ने घेरा दे रक्खा था, न भाग सके। राजा ने आज्ञा दी कि सब को पकड़ बेड़ियां डाल दो और इस दुष्ट का काला मुख कर गधे पर चढ़ा, इस के कण्ठ में फटे जूतों का हार पहिना सर्वत्र घुमा छोकरों से धूड़ राख इस पर डलवा चौक-चौक में जूतों से पिटवा कुत्तों से लुंचवा मरवा डाला जावे। जो ऐसा न होवे तो पुनः दूसरे भी ऐसा काम करते न डरेंगे। जब ऐसा हुआ तब नाककटे का सम्प्रदाय बन्द हुआ। इसी प्रकार सब वेदविरोधी दूसरों का धन हरने में बड़े चतुर हैं। यह सम्प्रदायों की लीला है। ये स्वामिनारायण मत वाले धनहरे छल कपटयुक्त काम करते हैं। कितने ही मूर्खों के बहकाने के लिये मरते समय कहते हैं कि सफेद घोड़े पर बैठ सहजानन्द जी मुक्ति को ले जाने के लिये आये हैं और नित्य इस मन्दिर में एक बार आया करते हैं। जब मेला होता है तब मन्दिर के भीतर पुजारी रहते हैं और नीचे दुकान लगा रक्खी है। मन्दिर में से दुकान में जाने का छिद्र रखते हैं। जो किसी का नारियल चढ़ाया वही दुकान में फेंक दिया अर्थात् इसी प्रकार एक नारियल दिन में सहस्र बार बिकता है। ऐसे ही सब पदार्थों को बेचते हैं। जिस जाति का साधु हो उन से वैसा ही काम कराते हैं। जैसे नापित हो उस से नापित का, कुम्हार से कुम्हार का, शिल्पी से शिल्पी का, बनिये से बनिये का और शूद्र से शूद्रादि का काम लेते हैं। अपने चेलों पर एक कर (टिक्कस) बांध रक्खा है। लाखों क्रोड़ों रुपये ठग के एकत्र कर लिये हैं और करते जाते हैं। जो गद्दी पर बैठता है वह गृहस्थ (विवाह) करता है, आभूषणादि पहिनता है। जहां कहीं पधरावनी होती है वहां गोकुलिये के समान गोसाईं जी, बहू जी आदि के नाम से भेंट पूजा लेते हैं। अपने ‘सत्संगी’ और दूसरे मत वालों को ‘कुसंगी’ कहते हैं। अपने सिवाय दूसरा कैसा ही उत्तम धार्मिक, विद्वान् पुरुष क्यों न हो परन्तु उस का मान्य और सेवा कभी नहीं करते क्योंकि अन्य मतस्थ की सेवा करने में पाप गिनते हैं। प्रसिद्धि में उन के साधु स्त्रीजनों का मुख नहीं देखते परन्तु गुप्त न जाने क्या लीला होती होगी? इस की प्रसिद्धि सर्वत्र न्यून हुई है। कहीं-कहीं साधुओं की परस्त्रीगमनादि लीला प्रसिद्ध हो गई है। और उन में जो-जो बड़े-बड़े हैं वे जब मरते हैं तब उन को गुप्त कुवे में फेंक देकर प्रसिद्ध करते हैं कि अमुक महाराज सदेह वैकुण्ठ में गये। सहजानन्द जी आके ले गये। हम ने बहुत प्रार्थना करी कि महाराज इन को न ले जाइये क्योंकि इस महात्मा के यहां रहने से अच्छा है। सहजानन्द जी ने कहा कि नहीं अब इन की वैकुण्ठ में बहुत आवश्यकता है इसलिए ले जाते हैं। हम ने अपनी आंख से सहजानन्द जी को और विमान को देखा तथा जो मरने वाले थे उन को विमान में बैठा दिया। ऊपर को ले गये और पुष्पों की वर्षा करते गये। और जब कोई साधु बीमार पड़ता है और उस के बचने की आशा नहीं होती तब कहता है कि मैं कल रात को वैकुण्ठ में जाऊंगा। सुना है कि उस रात में जो उस के प्राण न छूटे और मूर्छित हो गया हो तो भी कुवे में फेंक देते हैं क्योंकि जो उस रात को न फेंक दें तो झूठे पड़ें इसलिये ऐसा काम करते होंगे। ऐसे ही जब गोकुलिया गोसाईं मरता है तब उन के चेले कहते हैं कि गोसाईं जी लीला विस्तार कर गये। जो इन गोसाईं, स्वामीनारायणवालों का उपदेश करने का मन्त्र है वह एक ही है। ‘श्रीकृष्ण शरणं मम।’ इसका अर्थ ऐसा करते हैं कि श्रीकृष्ण मेरा शरण है अर्थात् मैं श्रीकृष्ण के शरणागत हूं परन्तु इस का अर्थ श्रीकृष्ण मेरे शरण को प्राप्त अर्थात् मेरे शरणागत हों ऐसा भी हो सकता है। ये सब जितने मत हैं वे विद्याहीन होने से ऊटपटांग शास्त्रविरुद्ध वाक्यरचना करते हैं क्योंकि उन को विद्या के नियम की जानकारी नहीं।

(प्रश्न) माध्व मत तो अच्छा है?

(उत्तर) जैसे अन्य मतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है क्योंकि ये भी चक्रांकित होते हैं। इन में चक्रांकितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक वार चक्रांकित होते हैं और माध्व वर्ष-वर्ष में फिर-फिर चक्रांकित होते जाते हैं। चक्रांकित कपाल में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माध्व पण्डित से किसी एक महात्मा का शास्त्रर्थ हुआ था-

(महात्मा) तुम ने यह काली रेखा और चांदला (तिलक) क्यों लगाया?

(शास्त्री) इसके लगाने से हम वैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग था इसलिए हम काला तिलक करते हैं।

(महात्मा) जो काली रेखा और चांदला लगाने से वैकुण्ठ में जाते हों तो सब मुख काला कर लेओ तो कहां जाओगे? क्या वैकुण्ठ के भी पार उतर जाओगे? और जैसा श्रीकृष्ण का सब शरीर काला था। वैसा तुम भी सब शरीर काला कर लिया करो तब श्रीकृष्ण का सादृश्य हो सकता है। इसलिए यह भी पूर्वों के सदृश है।

(प्रश्न) लिंगांकित का मत कैसा है?

(उत्तर) जैसा चक्रांकित का। जैसे चक्रांकित चक्र से दागे जाते और नारायण के विना किसी को नहीं मानते वैसे लिंगांकित लिंगाकृति से दागे जाते और विना महादेव के अन्य किसी को नहीं मानते। इन में विशेष यह है कि लिंगांकित पाषाण का एक लिंग सोने अथवा चांदी में मढ़वा के गले में डाल रखते हैं। जब पानी भी पीते हैं तब उसको दिखा के पीते हैं। उनका भी मन्त्र शैव के तुल्य रहता है।

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Dhanarees with the opinion of Swaminarayan do fraudulent acts. While dying to seduce so many fools, it is said that sitting on a white horse, Sahajanand ji has come to take liberation and always comes to this temple once. When the fair is held, the priests stay inside the temple and a shop is kept below. From the temple, we have a hole to go to the shop. Whoever offered someone's coconut was thrown in the shop, that is, in the same way, a coconut is sold a thousand times a day. They sell all such items.

 

 

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